बीजापुर नक्सल हमला: अब रणनीति बदलने की है जरूरत (अमर उजाला)

मारूफ रजा, सामरिक विश्लेषक  

माओवादियों ने छत्तीसगढ़ के बीजापुर में हुई मुठभेड़ के दौरान बंधक बनाए गए सीआरपीएफ के कोबरा कमांडर राकेश्वर सिंह मनहास को सामाजिक कार्यकर्ता धर्मपाल सैनी और आदिवासी नेता तेलम बोरइया की मौजूदगी में छोड़ दिया है। तीन अप्रैल को बीजापुर के तर्रेम के जंगल में माओवादियों के साथ मुठभेड़ में सीआरपीएफ, एसटीएफ और डीआरजी के 22 जवान शहीद हो गए थे। इस घटना के बाद क्या इस बात की समीक्षा होगी कि आखिर क्यों माओवादी मध्य भारत के जंगल में लगातार सफल होते जा रहे हैं? बस्तर में सुरक्षा बलों के भारी-भरकम दस्ते पर घात लगाकर किया गया माओवादियों का यह हमला मध्य भारत के माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में किए गए अतीत के दूसरे हमलों जैसा ही था। अक्सर घात लगाने का उनका तरीका अतीत में किए गए हमले जैसा ही होता है। 

सुरक्षा बलों पर या तो तब हमला किया जाता है, जब जंगलों में थका देने वाले ऑपरेशन के बाद वे कैम्प की ओर लौट रहे होते हैं या फिर जब वह ऐसे पुलिस कैम्प में होते हैं, जिसकी पुख्ता सुरक्षा न हो। ऐसे जनसंहार को रोकने के तरीके हैं। इस चुनौती से निपटने के लिए ऊपर से नीचे की ओर देखने के दृष्टिकोण की जरूरत है, न कि नीचे से ऊपर की ओर देखने वाले दृष्टिकोण की। माओवादियों ने विगत तीन दशकों में भारत के मध्य हिस्से में विस्तार किया है और वह समय-समय पर पशुपति (नेपाल) से लेकर तिरुपति (दक्षिण भारत) तक लाल गलियारे में अपनी ताकत दिखाते रहते हैं। कुछ वर्ष पूर्व अपने चरम में देश के दो सौ जिले माओवादी हिंसा से प्रभावित थे और उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आधिकारिक तौर पर कहा था कि देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए माओवादी हिंसा सबसे बड़ी चुनौती है। 



दिल्ली से किए जाने वाले प्रयास आज भी पहले जैसे ही अनियमित हैं। एक समस्या देश की संघीय प्रकृति और राज्य सरकारों के विरोध से जुड़ी हुई है। यह चुनौतियों से निपटने के लिए केंद्र सरकार के समग्रता में किए जाने वाले प्रयास को बाधित कर सकता है। एक राज्य के विद्रोही किसी दूसरे राज्य के वोट बैंक नहीं हो सकते! यह दुखद है कि नागरिकों की सुरक्षा के मामले में राजनीति अक्सर अतीत की चूकों का अनुसरण करने लगती है। इस क्षेत्र में जरूरत से अधिक तनाव झेलते हुए पुलिस जवान पर्याप्त वरिष्ठ नेतृत्व के काम करते रहते हैं। एक दशक पहले सीआरपीएफ के एक डीजीपी ने मुझे बताया था कि उनके लिए यह एक बड़ी चुनौती है कि कैसे वह सीआरपीएफ के वरिष्ठ अधिकारियों (आईजी और डीआईजी) को शहरों की आरामदायक जिंदगी से बाहर निकालकर जंगलों में तैनात बल की कमान संभालने के लिए भेजें। 


हमारे प्रायः सारे पुलिस बल का नेतृत्व आईपीएस अधिकारी करते हैं और उनमें से अनेक पुलिस के कार्य में दक्ष हैं और वे नक्सलियों या उग्रवादियों से मुकाबला करने के लिए सिविल सेवा से नहीं जुड़े हैं। इसके अलावा उनके पास न तो नक्सली हिंसा से लड़ने का अनुभव है और न ही वह दिलचस्पी। वे ऑपरेशनल एरिया में तैनाती के प्रति अनिच्छुक होते हैं। एक तरीका है कि सेना के उग्रवाद विरोधी ऑपरेशन के अनुभव वाले वरिष्ठ अधिकारियों (कर्नल से लेकर जनरल) को केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन आने वाले अर्धसैनिक बल सीआरपीएफ के जवानों का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी दी जाए। यदि सेना गृह मंत्रालय या पीएमओ के अधीन आने वाले एनएसजी या 'एस्टेब्लिशमेंट 22' (विशेष सीमांत बल) के लिए अधिकारी उपलब्ध करा सकती है, तो फिर माओवाद विरोधी अभियान के लिए क्यों नहीं? इसी तरह से ऐसे ऑपरेशन में हेलीकॉप्टर के इस्तेमाल के बारे में भी विचार करना चाहिए। 


नक्सली और चरमपंथी रोजगार और आधारभूत ढांचे से वंचित स्थानीय लोगों से समर्थन जुटाते हैं। माओवादियों से निपटने के लिए तीन स्तरीय रणनीति पर काम हो सकता हैः (1) आवश्यक सैन्य बल का इस्तेमाल (2) स्थानीय लोगों की बुनियादी मुश्किलों के समाधान के साथ ही आधारभूत ढांचे का समयबद्ध निर्माण (3) जमीनी स्तर पर स्थिति के नियंत्रित होने और सैन्य ऑपरेशन के कम होने के बाद स्थानीय लोगों की राजनीतिक मांगों को सुलझाने के लिए बातचीत की पहल।

सौजन्य - अमर उजाला।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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