नाइंसाफी है देर से मिला इंसाफ (राष्ट्रीय सहारा)

इस बात सूरत में बीस साल पहले शिक्षा से जुड़ी एक कांफ्रेंस में जुटे १२३ लोग–जिनमें से पांच लोगों की इस दौरान मौत भी हो चुकी है–जिन्हें प्रतिबंधित सिमी संगठन से जुड़ा बताया गया था‚ उनकी इतने लम्बे वक्फे के बाद हुई बेदाग रिहाई के बारे में कही जा सकती है। समूह में शामिल लोग आल इंडिया माइनॉरिटी एजुकेशन बोर्ड के बैनर तले हुए कांफ्रेंस के लिए देश के दस अलग–अलग राज्यों से लोग एकत्रित थे‚ जिनमें कुछ राजस्थान से आए दो कुलपति‚ चार–पांच प्रोफेसर‚ डॉक्टर‚ इंजीनियर तथा एक रिटायर्ड न्यायाधीश तथा अन्य पेशों से सम्बद्ध पढ़े–लिखे लोग शामिल थे।


 इन लोगों को बेदाग रिहा करते हुए अदालत ने पुलिस पर तीखी टिप्पणी की है कि उसका यह कहना कि यह सभी लोग प्रतिबंधित संगठन ‘सिमी' से जुड़े थे‚ न भरोसा रखने लायक है और न ही संतोषजनक है‚ जिसके चलते सभी अभियुक्तों को संदेह का लाभ देकर बरी किया जाता है।' मालूम हो इन सभी को एक साल से अधिक समय तक ऐसे फर्जी आरोपों के लिए जेल में बंद रहना पड़ा था और अदालती कार्रवाई में शामिल होने के लिए आना पड़ता था। इन १२३ में से एक जियाउद्दीन अंसारी का सवाल गौरतलब है कि ‘अदालत ने हमें सम्मानजनक ढंग से रिहा किया है‚ लेकिन उन लोगों–अफसरों का क्या –जिन्होंने हमें नकली मुकदमों में फंसाया था‚ क्या उन्हें भी दंडित होना पड़ेगा।' 


 अदालत की पुलिस की तीखी टिप्पणी दरअसल हाल के समयों में इसी तरह विभिन्न धाराओं में जेल के पीछे बंद दिशा रवि जैसे अन्य मुकदमों की भी याद दिलाती है‚ जहां पुलिस को अपने कमजोर एवं पूर्वाग्रहों से प्रेरित जांच के लिए लताड़ मिली थी। तय बात है कि सूरत के फर्जी मुकदमे में गिरफ्तार रहे इन लोगों की बेदाग रिहाई न इस किस्म की पहली घटना है और न ही आखिरी। कुछ माह पहले डॉ. कफील खान की हुई बेदाग रिहाई‚ जब उन्हें सात माह के बाद रिहा किया गया‚ दरअसल इसी बात की ताईद करती है कि अगर सरकारें चाहें तो किसी मासूम व्यक्ति के जीवन में कितना कहर बरपा कर सकती है। याद रहे उच्च अदालत के सख्त एवं संतुलित रवैये का बिना यह मुमकिन नहीं थी‚ जिसने डॉ. कफील खान के खिलाफ खड़ी इस केस को ही ‘अवैध' बताया। अगर हम अपने करीब देखें तो ऐसे तमाम लोग मिल सकते हैं‚ जो इसी तरह व्यवस्था के निर्मम हाथों का शिकार हुए‚ मामूली अपराधों में न्याय पाने के लिए उनका लम्बे समय तक जेलों में सड़ते रहना या फर्जी आरोपों के चलते लोगों का अपनी जिंदगी के खूबसूरत वर्षों को जेल की सलाखों के पीछे दफना देना। पता नहीं लोगों को एक युवक आमिर का वह प्रसंग याद है कि नहीं जिसे अपनी जिंदगी के १४ साल ऐसे नकली आरोपों के लिए जेल में गुजारने पड़े थे‚ जिसमें कहीं दूर–दूर तक उसकी संलिप्तता नहीं थी। उस पर आरोप लगाया गया था कि दिल्ली एवं आसपास के इलाकों में हुए १८ बम विस्फोटों में वह शामिल था। यह अलग बात है कि यह आरोप जब अदालत के सामने रखे गए तो एक एक करके अभियोजन पक्ष के मामले खारिज होते गए और आमिर बेदाग रिहा हो गया। 


 यह अलग बात है कि इन चौदह सालों में उसके पिता का इंतकाल हो चुका था और मां की मानसिक हालत ऐसी नहीं थी कि वह बेटे की वापसी की खुशी को महसूस कर सके। आमिर को जिस पीड़ादायी दौर से गुजरना पड़ा‚ जिस तरह संस्थागत भेदभाव का शिकार होना पड़ा‚ पुलिस की साम्प्रदायिक लांछना को झेलना पड़ा‚ यह सब एक किताब में प्रकाशित भी हुआ है। ‘£ेमड एज ए टेररिस्ट (२०१६) शीर्षक से प्रकाशित इस किताब के लिए जानी–मानी पत्रकार एवं नागरिक अधिकार कार्यकर्ता नंदिता हक्सर ने काफी मेहनत की है। क्या यह कहना मुनासिब होगा कि सरकारें जब एक खास किस्म के एजेंडा से भर जाती है और लोगों की शिकायतों के प्रति निÌवकार हो जाती है तो ऐसे ही नजारों से हम बार–बार रूबरू होते रहते हैं। सवाल यह उठता है कि आखिर इस बात को कैसे सुनिश्चित किया जाए कि आने वाले वक्त में सूरत के सम्मेलन से गिरफ्तार १२३ लोगों को या आमिर जैसे लोगों को जिस स्थिति से गुजरना पड़ा था‚ वैसी त्रासदी अन्य किसी निरपराध को न झेलनी पड़े‚ और क्या तरीका हो सकता है कि इन बेगुनाहों को झूठे आरोपों के इस बोझ की साया से–भले ही वह कानूनन मुक्त हो गए हों–कैसे मुक्ति दिलाई जा सकती है॥। शायद सबसे आसान विकल्प है ऐसे लोगों को–जिनके साथ व्यवस्था ने ज्यादती की–आÌथक मुआवजा देना‚ जैसा कि पिछले साल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने किया जब उसने छत्तीसगढ़ सरकार को यह निर्देश दिया कि वह उन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं‚ विदुषियों को मुआवजा प्रदान करें जिन पर वर्ष २०१६ में झूठे एफआईआर दर्ज की गई थी। मालूम हो कि अध्यापकों‚ कार्यकर्ताओं का वह दल–जिसमें प्रोफेसर नंदिनी सुंदर‚ प्रो. अर्चना प्रसाद‚ कामरेड विनीत तिवारी‚ कामरेड संजय पराते आदि शामिल थे–मानवाधिकारों के हनन की घटनाओं की जांच करने वहां गया था। 


 मानवाधिकार आयोग ने कहा कि ‘हमारी यह मुकम्मल राय है कि इन लोगों को इन झूठे एफआईआर के चलते निश्चित ही भारी मानसिक यातना से गुजरना पड़ा‚ जो उनके मानवाधिकार का उल्लंघन था और राज्य सरकार को उन्हें मुआवजा देना ही चाहिए।' लेकिन क्या ऐसा मुआवजा वाकई उन सालों की भरपाई कर सकता है‚ उस व्यक्ति तथा उसके आत्मीयों को झेलनी पड़ती मानसिक पीड़ा को भुला दे सकता है‚ निश्चित ही नहीं! मुआवजे की चर्चा चल रही है और बरबस एक तस्वीर मन की आंखों के सामने घूमती दिखी जो पिछले दिनों वायरल हुई थी। इस तस्वीर में एक अश्वेत व्यक्ति को बेंच पर बैठे दिखाया गया था‚ जिसके बगल में कोई श्वेत आदमी बैठा है और उसे सांत्वना दे रहा है। खबर के मुताबिक श्वेत व्यक्ति ने उसके सामने एक खाली चेकबुक रखा था और कहा था कि वह चाहे जितनी रकम इस पर लिख सकता है‚ मुआवजे के तौर पर। अश्वेत आदमी का जवाब आश्चर्यचकित करने वाला था‚ ‘सर‚ क्या वह रकम मेरी पत्नी और बच्चों को लौटा सकती है‚ जो भयानक गरीबी में गुजर गए जिन दिनों मैं बिना किसी अपराध के जेल में सड़ रहा था।'॥

सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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