रामचंद्र गुहा
चुनाव के दिन टेलीविजन देखना बुजुर्ग नागरिकों के लिए घबराहट बढ़ाने वाला होता हैं, क्योंकि चारों ओर तीखी आवाजों का शोर सुनाई देता है और स्क्रीन पर तेजी से आंकड़े और तस्वीरें बदलती रहती हैं। पिछले कुछ सालों से मैं मतगणना के दिन खुद को अद्यतन रखने के लिए ट्विटर का सहारा लेता हूं।
रविवार की सुबह जिस पहले ट्वीट पर मेरी नजर पड़ी, वह मतों की गिनती या बढ़त या उम्मीदवारों या पार्टी के बारे में नहीं, बल्कि उस संस्था के बारे में था, जिससे उम्मीद की जाती है कि वह निष्पक्ष और सांविधानिक तरीके से चुनावों की निगरानी करेगी। लेखक सिदिन वदुक्त ने यह ट्वीट किया था, जो अपने चुटीले, लेकिन द्वेषरहित ट्वीट के लिए जाने जाते हैं। वदुक्त ने एक खबर पोस्ट की थी : ब्रेकिंग न्यूज : मद्रास हाई कोर्ट की 'हत्या का मामला दर्ज करें' वाली टिप्पणी के खिलाफ चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट गया।' साथ ही उन्होंने अपनी तरफ से यह भी जोड़ दिया : 'सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में 15 सालों में पैंतीस चरणों में सुनवाई करनी चाहिए।'
निस्संदेह इशारा पश्चिम बंगाल में आठ चरणों में चुनाव कराने के चुनाव आयोग के फैसले की ओर था। गूगल से मुझे पता चला कि क्षेत्रफल के लिहाज से 79,000 वर्ग किमी में फैला पश्चिम बंगाल 1,30,000 वर्ग किमी में फैले तमिलनाडु से छोटा है। हालांकि पश्चिम बंगाल की 10 करोड़ की आबादी की तुलना में तमिलनाडु की आबादी 7.9 करोड़ है। और तमिलनाडु की तुलना में उसका कहीं अधिक अशांत राजनीतिक इतिहास है, जिसमें प्रतिद्वंद्वी दलों के बीच कहीं अधिक हिंसा हुई है। इस आखिरी कारण से वहां दो से तीन चरणों में चुनाव हो सकते थे, लेकिन वहां आठ चरणों में चुनाव कराए गए।
चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल में हद से लंबी कवायद करने का क्यों फैसला किया? पक्के तौर पर हम कभी नहीं जान पाएंगे। मोदी सरकार ने सूचना का अधिकार कानून को प्रभावी तरीके से नष्ट कर दिया है और संभव है कि यह फैसला मौखिक बातचीत के आधार पर लिया गया हो। यह भी सर्वविदित है कि भाजपा पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने को लेकर बेताब थी। 2014 के बाद से अमित शाह ने राज्य की अनगिनत यात्राएं की हैं। अपनी इस पहुंच में उन्होंने 'भद्रलोक' के साथ ही 'छोटोलोक', दोनों की ही चिंता बढ़ाई। उन्होंने टैगोर की सराहना की (हालांकि उन्होंने कवि का जन्मस्थान गलत बताया था), और उन्होंने विद्यासागर की सराहना की (जबकि कथित तौर पर उनकी पार्टी के लोगों ने इस सुधारक की मूर्ति तोड़ दी थी)। उन्होंने एक दलित के घर पर भोजन कर तस्वीर खिंचवाई और आदिवासी नायक बिरसा मुंडा की प्रतिमा के सामने सिर झुकाया (पता चला कि यह किसी और की प्रतिमा है)।
2019 में गृह मंत्री बनने के बाद शाह ने केंद्र सरकार की नीतियों को पश्चिम बंगाल में अपनी पार्टी की जीत की ओर मोड़ दिया, जिसमें सबसे कुख्यात था नागरिकता संशोधन विधेयक, जिसे स्पष्ट तौर पर कभी पूर्वी पाकिस्तान रहे बांग्लादेश से आने वाले हिंदू शरणार्थियों को संदेश देने के लिए लक्षित किया गया। शाह की तरह ही मोदी भी इस विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी की जीत को लेकर बेताब थे। यहां तक कि उन्होंने बांग्लादेश की आधिकारिक यात्रा के दौरान परंपरा और प्रोटोकॉल का उल्लंघन कर प्रचार किया। और हम साफ तौर पर अनुमान लगा सकते हैं कि उनकी बढ़ती हुई दाढ़ी द्रविड़ सुधारक पेरियार या मलयाली सुधारक श्री नारायण गुरु का अनुकरण नहीं थी, जिन्हें गुरुदेव की तरह शेविंग करना पसंद नहीं था।
टीएमसी के चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने चुनाव आयोग को भाजपा का 'विस्तारित अंग' बताकर कहा, 'धर्म के इस्तेमाल से लेकर चुनाव कार्यक्रम निर्धारित करने और नियमों को मोड़ने तक चुनाव आयोग ने भाजपा को मदद पहुंचाने के लिए हर संभव कदम उठाया।' किशोर की आलोचना पर चुनाव आयोग की प्रतिक्रिया अभी नहीं आई है। पश्चिम बंगाल में संक्रमण के मामले और मौतों की संख्या बढ़ रही है, तब वायरस के मुख्य सहयोगी के रूप में चुनाव आयोग की भूमिका स्पष्ट रूप से सामने है।
पश्चिम बंगाल में टीएमसी को मिली जीत ने क्या ममता बनर्जी में प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा जगा दी है? क्या केरल में लेफ्ट फ्रंट की जीत सुशासन का पारितोषिक है? भारी प्रयास और धन खर्च करने के बावजूद पश्चिम बंगाल में चुनाव जीतने में नाकाम भाजपा को असम में सत्ता बरकरार रहने पर संतोष होगा? क्या असम और केरल में कांग्रेस के नाकाम रहने और पश्चिम बंगाल में उसका पूरी तरह से सफाया होने के बाद गांधी परिवार किसी कहीं अधिक प्रभावी नेता के लिए रास्ता बनाएगा? इन सवालों पर चर्चा करने के साथ ही यह आलेख एक तार्किक रूप से अधिक महत्वपूर्ण सवाल उठा रहा है, क्या चुनाव आयोग की विश्वसनीयता कभी आज जैसे न्यूनतम स्तर पर थी?
जैसा कि मैंने अपनी किताब इंडिया आफ्टर गांधी में चर्चा की है कि हमारे देश का सौभाग्य है कि हमें पहले चुनाव आयुक्त के रूप में एक असाधारण शख्स मिला था। वह थे, सुकुमार सेन, जिन्होंने व्यापक रूप से स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान सुनिश्चित करते हुए और मैदान में उतरे उम्मीदवारों और पार्टियों के प्रति निष्पक्षता रखते हुए पहले और दूसरे आम चुनाव का सफल आयोजन किया था। सुकुमार सेन और पश्चिम बंगाल में हाल ही में चुनाव संपन्न करवाने वाले सुनील अरोड़ा के बीच अब तक 21 मुख्य चुनाव आयुक्त हुए हैं। इनमें से कुछ सक्षम, कुछ साधारण और कुछ असाधारण थे। अंतिम श्रेणी में शामिल थे, टी स्वामीनाथन, जिन्होंने 1977 में चुनाव कराया था, जब आपातकाल हटा नहीं था; टी एन शेषन जिन्होंने, भ्रष्टाचार और बूथ लूटने जैसी घटनाओं से घिरी चुनाव व्यवस्था की सफाई की थी; और हाल की स्मृति में शामिल एन गोपालकृष्णन, जे एम लिंगदोह और एस वाई कुरैशी।
संविधान चुनाव आयोग को राजनीतिक हस्तक्षेप करने से रोकता है। हालांकि चुनाव आयोग किस हद तक अपनी स्वायत्तता बचाए रखता है और राजनीतिक व्यवस्था के दबाव का प्रतिरोध करता है, यह बहुत कुछ व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदारी संभाल रहे व्यक्ति पर निर्भर करता है। सेन, स्वामीनाथन, शेषन, गोपालकृष्णन, लिंगदोह और कुरैशी ने आयोग को पूरी तरह से स्वतंत्र बनाए रखा। उल्लेखनीय है कि उनमें से किसी ने सेवानिवृत्ति के बाद सरकार से कोई आकर्षक पद स्वीकार नहीं किया। उनका यह खरापन एम एस गिल के आचरण के एकदम उलट था, जो सेवानिवृत्ति के बाद कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार में मंत्री तक बने।
अतीत में कुछ मुख्य चुनाव आयुक्त कभी-कभी मंत्री या प्रधानमंत्री के दबाव के आगे झुक गए। लेकिन 2014 के बाद जैसा हुआ वैसा कभी नहीं। पश्चिम बंगाल के चुनावों से पहले ऐसी मिलीभगत पिछले आम चुनाव में भी दिखाई दी, जब चुनाव आयोग ने पूरे भारत में सत्तारूढ़ दल के उम्मीदवारों द्वारा फैलाए झूठ और सांप्रदायिक जहर को नहीं रोका। यहां तक कि उसने वोट की चाहत में 'तीर्थयात्री' के भेष में प्रधानमंत्री की केदारनाथ यात्रा तक को नहीं रोका। और संदिग्ध चुनावी बांड योजना पर भी चुप्पी साधे रखी।
अगले आम चुनाव को अब तीन साल रह गए हैं। जैसा कि हम चर्चा कर रहे हैं, ममता बनर्जी के मन में क्या है, क्या कांग्रेस कभी खुद को पुनर्जीवित करेगी और क्या नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के तीसरे कार्यकाल के लिए विजयी होंगे, हमें सांस्थानिक सवालों को नहीं भूलना चाहिए जो कि पार्टियों और राजनेताओं से परे हैं। भारतीय लोकतंत्र का भविष्य अब संभवतः इस पर निर्भर है कि चुनाव आयोग स्वतंत्रता और सक्षमता से जुड़ी प्रतिष्ठा को कैसे हासिल करता है, जैसा कि कभी थी।
सौजन्य - अमर उजाला।
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