मोनिका शर्मा
महामारी से उपजी थकान को पैंडेमिक फटीग कहा जाता है। तन-मन को थकाने वाली यह स्थिति तब आती है, जब लोग महामारी से बचाव के उपायों को अपनाते हुए थक जाते हैं। यह थकान बीते एक वर्ष में अचानक भय, भ्रम और हर पल की सतर्कता के चलते पैदा हुई है। दरअसल, मौजूदा हालात में महामारी से उपजी थकावट को समझना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि कोरोना से लड़ाई अभी जारी है। संकट अभी टला नहीं है। इस समय आम लोगों को अपनी पूरी ऊर्जा जुटाकर दिशा-निर्देशों का पालन करना होगा। वैश्विक संकट की इस मुसीबत से पार पाने तक इस थकान को मन की ऊर्जा से हराना आवश्यक है।
कोरोना के नए स्ट्रेन से भयावह होते हालात के बीच महामारी से उपजी थकान हर किसी के लिए अलग तरह का अनुभव ला रही है। उम्र, लिंग और यहां तक कि जिम्मेदारियों के मुताबिक यह थकान लोगों पर अलग-अलग असर डाल रही है। लेकिन बेचैनी, चिड़चिड़ापन, निराशाजनक सोच और काम पर ध्यान न दे पाने जैसी कठिनाइयां आम हैं। अपने दोस्तों, सहपाठियों और हमउम्र साथियों से दूर होकर युवा और बच्चे अकेलेपन का एहसास कर रहे हैं, तो वरिष्ठजन सामाजिक जुड़ाव की कमी और मेल-मिलाप की दूरी से अवसाद और व्यग्रता के शिकार हो रहे हैं। ऐसे हालात बच्चों और बड़ों, दोनों के मन को थकाने वाले हैं। साथ ही इस तकलीफदेह दौर में आर्थिक मोर्चे पर डटे कामकाजी लोग अपनी नौकरी के मामले में अनिश्चितता और फिक्र से थक रहे हैं, तो गृहिणियों की हद दर्जे तक बढ़ी व्यस्तता उनके मन को थका रही है। ऐसे में यह समझना जरूरी है कि महामारी जन्य थकान हमें किस तरह से प्रभावित कर रही है। इसके बाद हालात समझकर ऐसी राहें तलाशने की जरूरत है, जो इस ठहरे हुए समय में भी मन-जीवन को गतिमान रख सके, अकेलेपन और अवसाद से बचाकर ऊर्जा को सही दिशा में लगाए।
पिछले साल विश्व स्वास्थ्य संगठन के यूरोपीय क्षेत्रीय निदेशक ने यूरोप के देशों को महामारी जन्य थकान के बारे में चेतावनी दी थी। तब कुछ मामलों में इसके 60 प्रतिशत से अधिक तक पहुंचने का अनुमान जताया गया था। एक सर्वेक्षण में कनाडा के 31 प्रतिशत लोगों ने माना कि वे कोरोना वायरस और लॉकडाउन से थक गए हैं, जबकि 28 प्रतिशत लोगों ने खुद को घबराहट का शिकार बताया था। इस थकावट के चलते ही पूरी दुनिया में लॉकडाउन हटने के बाद लोग बड़ी संख्या में बाहर निकलने लगे थे। भारत में भी यही हुआ है। इसीलिए अब इस गलती से सबक लेकर संक्रमण से और सतर्क होकर जूझना होगा।
कोविड-19 से जूझते हुए सोशल आइसोलेशन के चलते सभी ने कुछ हद तक भटकाव, अलगाव और अनिश्चितता का अनुभव किया है। कुछ लोग संक्रमण से उबरने के बाद भी समस्याओं का शिकार हुए, तो कई परिवारों ने अपने करीबियों को खो दिया है। साथ ही, पढ़ाई, रोजगार और आम दिनचर्या में आए बदलावों ने हमें बहुत-सी चीजों से दूर कर दिया है। जिंदगी जीने का रंग-ढंग बदल गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि कोरोना आपदा के चलते लोग फोमो (फियर ऑफ मिसिंग आउट) के भाव से भी जूझ रहे हैं। यह सही है इन दिनों जिंदगी से बहुत कुछ छूट रहा है, लेकिन अगर जिंदगी सहेज ली, तो समझिए फिर कुछ नहीं छूटा। याद रहे कि बेहतरी की उम्मीद हमेशा कायम रहती है। तकलीफदेह समय में एक दूसरे का साथ देने और संकट से निकलने का साहस सदा ही मददगार होता है। यही वजह है कि सुस्ती और ठहराव के इन हालात में भी सकारात्मक रहते हुए अच्छे समय का इंतजार करने की सोच ही सहायक होगी।
हम पहली बार ऐसी विरोधाभासी स्थिति में जी रहे हैं, जब करने को कुछ नहीं, पर ऊर्जा भी रीत रही है। जिंदगी ठहर गई है, पर जिम्मेदारियों की भागमभाग भी कायम है। आपसी मेलजोल बंद है, पर साथ देने और साथ बने रहने की दरकार भी कम नहीं। ऐसे में हम इन संकटकालीन परिस्थितियों को अच्छे से समझ कर थकान से बचने की राह निकालनी होगी। इस विपत्ति काल में ऐसी समझ भरा सकारात्मक और उम्मीद भरा रास्ता ही जीवन को सहेजने और स्वस्थ रहने का सार्थक मार्ग बन सकता है।
सौजन्य - अमर उजाला।
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