पत्रलेखा चटर्जी
आखिरकार ग्रामीण इलाकों के दूर-दराज के गांवों में, जहां अधिकांश भारतीय रहते हैं, कोरोना वायरस की दूसरी लहर कहर मचा रही है। पिछले सप्ताहांत केंद्र ने देश के ग्रामीण, कस्बाई और आदिवासी क्षेत्रों में कोविड-19 को नियंत्रित करने की रणनीतियों पर चर्चा की। हालांकि गांवों में वायरस के प्रसार की तीव्रता के बारे में हमारे पास सभी राज्यों के अलग-अलग आंकड़े नहीं हैं। पर इसमें कोई शक नहीं है कि अंदरूनी इलाकों में बड़ी संख्या में कोविड के मामले दर्ज हो रहे हैं। सामान्य समय में भी ग्रामीण भारत की अनेक मौतें दर्ज नहीं की जातीं, ऐसे में, यह सुनना आश्चर्यजनक नहीं है कि गांवों में कोविड-19 से होने वाली मौतों का पता लगाने या उन्हें सार्वजनिक करने का काम नहीं किया जा रहा।
यह सर्वज्ञात है कि ग्रामीण भारत के बड़े क्षेत्रों में स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी ढांचा कमजोर है। विश्व बैंक के अनुमान के मुताबिक, 65 फीसदी से ज्यादा आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, जबकि सार्वजनिक अस्पतालों के कुल बेड का लगभग 65 फीसदी शहरी भारत में है। गांवों में जांच का स्तर भी कम है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने हालांकि ग्रामीण इलाकों में कोविड के प्रबंधन के लिए मानक संचालन प्रक्रियाओं (एसओपी) को अपनी वेबसाइट पर अपलोड किया है, पर यह देखा जाना बाकी है कि ग्रामीण भारत कितनी जल्दी वायरस से निपटने के लिए खुद को तैयार कर सकता है।
केंद्र ने जमीनी कार्यकर्ताओं, विशेष रूप से चिकित्सा अधिकारियों और ब्लॉक स्तर के नोडल अधिकारियों को निगरानी, रोकथाम और त्वरित जांच के लिए रैपिड एंटीजन टेस्ट (आरएटी) के इस्तेमाल के प्रति संवेदनशील होने का आग्रह किया है। राज्यों के वरिष्ठ स्वास्थ्य अधिकारियों को इन जमीनी कार्यकर्ताओं के साथ नियमित समीक्षा बैठकें करने का निर्देश दिया गया है, ताकि बुनियादी स्तर तक मानक संचालन प्रक्रिया का पालन सुनिश्चित हो सके। देर से ही सही, लेकिन ये सब अच्छी खबरें हैं। पर अब भी भरोसा पैदा करना एक प्रमुख मुद्दा है, जिस पर हमें बात करने की जरूरत है। सार्वजनिक संस्थानों के प्रति भरोसा तब पैदा होता है, जब वंचित लोगों को समय पर मदद मिलती है।
हाल के हफ्तों में हमने देखा कि कैसे शहरी लोगों ने ऑक्सीजन सिलेंडर या आईसीयू बेड की सख्त जरूरत के समय ट्विटर जैसे सोशल मीडिया का सहारा लिया। संकट के समय लोगों ने ट्विटर पर एक-दूसरे की मदद कर जो एकजुटता दिखाई, वह दिल को छू लेने वाली है, यह सरकार में विश्वास के क्षरण और महामारी के बीच आपातकालीन सेवाएं देने की इसकी क्षमता को भी दर्शाता है। लोगों को लगता है कि उन्हें पूरी तरह से उनके अपने भरोसे छोड़ दिया गया है और कुछ भी निश्चित नहीं है। ग्रामीण भारत में बहुत कम लोगों के पास स्मार्टफोन है। इसलिए जो लोग दूर-दराज के गांवों में रहते हैं, तत्काल चिकित्सा की जरूरत के समय उनके ट्विटर पर मदद मांगने की संभावना नहीं है। ऐसे में, शहरी लोगों के लिए उनका संकट अदृश्य रह सकता है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि यह कम दर्दनाक है। ग्रामीणों को यह विश्वास दिलाने की जरूरत है कि जांच करवाना उनके अपने भले के लिए है; उन्हें यह विश्वास करने की आवश्यकता है कि टीके काम करते हैं और उनके लिए भी उपलब्ध होंगे।
विश्वास बहाली के लिए यह सुनना जरूरी है कि स्वास्थ्य कार्यकर्ता खुद क्या कह रहे हैं और उन्हें किस चीज की जरूरत है। आशा कार्यकर्ता गांवों में क्वारंटीन सेंटरों में रह रहे कोविड-19 मरीजों का मार्गदर्शन करती हैं और होम आइसोलेशन में रहने वालों के लिए दवा लाती हैं। पर हमने देखा है कि उनकी मांगों पर हमेशा ध्यान नहीं दिया जाता। हाल के हफ्तों में कई राज्यों में आशा कार्यकर्ताओं ने विरोध जताया है। वे न केवल थोड़े पैसे के लिए काम करती हैं, बल्कि कई बार उनके पास बुनियादी चीजों की भी कमी होती है, जबकि उन्हें रोग के लक्षणों वाले व्यक्तियों की पहचान का काम सौंपा गया है। उत्तर प्रदेश आंगनबाड़ी कर्मचारी एसोसिएशन की राज्य प्रमुख गीतांजलि मौर्य ने हाल ही में मीडिया को बताया कि 'हमारे पास न पल्स ऑक्सीमीटर है, न सैनिटाइजर, न ही थर्मल स्कैनर। हमें इसकी जरूरत उन लोगों के लिए है, जिनके घर हम जा रहे हैं। अगर हम उनका तापमान भी नहीं जांच सकते, तो उनके घर क्यों जाएं?' यही समस्या कई अन्य राज्यों में फ्रंटलाइन वर्कर्स को भी परेशान करती है।
ग्रामीण इलाकों में वायरस का प्रसार रोकना है, तो इन कमियों को दूर करने की जरूरत है। जैसा कि सोसाइटी फॉर एजुकेशन, ऐक्शन ऐंड रिसर्च इन कम्युनिटी हेल्थ के संस्थापक निदेशक अभय बंग ने हाल ही में बताया, 'हालांकि मीडिया मुख्य रूप से बड़े अस्पतालों पर ध्यान केंद्रित करता है, लेकिन असली कहानी गांवों में लिखी जा रही है। पहली लहर को गांवों तक पहुंचने में चार महीने लगे थे, जबकि दूसरी लहर एक महीने में ही गांवों में पहुंच चुकी है। भारत की लगभग 10 प्रतिशत ग्रामीण आबादी लक्षणों से पीड़ित है। हम मौतों की संख्या कम बता रहे हैं। असली समस्या इससे बड़ी है।'
महामारी के एक वर्ष से अधिक समय के दौरान भारत के छह लाख से ज्यादा गांवों में स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी ढांचे को किस हद तक उन्नत बनाया गया है, ताकि वायरस के क्रूर हमले से निपटा जा सके? चिकित्सीय ऑक्सीजन, दवाओं, वेंटिलेटर आदि की आवश्यकता का आकलन करने में ग्रामीण समुदाय किस हद तक शामिल हो रहे हैं? और आने वाले हफ्तों में गांवों में जांच और टीकाकरण की गति कैसे बढ़ाई जाएगी? हमारे पास इस संबंध में निर्देश हैं, लेकिन हमें नहीं पता कि यह कहानी जमीन पर कैसे उतरेगी। हमें यह भी समझना होगा कि यह सब ग्रामीण इलाकों में बढ़ती भूख की पृष्ठभूमि में हो रहा है। शहरों से आने
वाला धन बंद हो गया है। हमें इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि कई संकट एक साथ आएंगे।
सरकारी तंत्र में विश्वास बहाली के लिए क्या करना होगा? एक महत्वपूर्ण कदम पिछली गलतियों और देरी के बारे में ज्यादा खुलापन हो सकता है। यह विश्वास बहाली की दिशा में मददगार हो सकता है। गलती दुरुस्त करने और सॉरी बोलने में कभी देर नहीं होती।
सौजन्य - अमर उजाला।
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