केंद्र के साथ राज्यों को भी लेना होगा नाकामी का जिम्मा (बिजनेस स्टैंडर्ड)

श्यामल मजूमदार 

बीता पखवाड़ा कई राज्य सरकारों के लिए इस मायने में असाधारण रहा कि उन्हें कोविड महामारी की तैयारी को लेकर संबंधित उच्च न्यायालयों से तगड़ी फटकार सुनने को मिली। इन अदालतों की टिप्पणियों पर जरा गौर कीजिए।


जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दावा कर रहे हों कि राज्य में ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं है तब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि सत्ता में बैठे लोगों को 'मेरी मर्जी चलेगी या कुछ नहीं होगा' वाला रवैया छोडऩा होगा। दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी अदालतों से कोई रियायत नहीं मिली। गुजरात उच्च न्यायालय ने कहा कि राज्य सरकार सिर्फ कागजों पर ही काम करती दिख रही है। वहीं बंबई उच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार के 'अत्यधिक संवेदनहीन आचरण' पर कड़ी टिप्पणी की है।


दिल्ली सरकार को भी अदालत से कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा। दिल्ली उच्च न्यायालय ने कोविड महामारी की दूसरी लहर से निपटने के तरीकों को लेकर नाराजगी जताते हुए कहा कि उसका भरोसा हिल चुका है और अगर राज्य सरकार हालात को नहीं संभाल पाती है तो फिर अदालत केंद्र सरकार से दखल देने को कहेगी।


कोविड मरीजों को सांस लेने में तकलीफ होने पर जरूरी मेडिकल ऑक्सीजन नहीं मिल पाने से पैदा हुई मानवीय त्रासदी को देखते हुए अदालतों का यह रवैया पूरी तरह वाजिब नजर आता है। केरल को छोड़कर तमाम राज्यों ने महामारी की दूसरी लहर की आशंका के बावजूद आपात स्थिति के लिए तैयार रखने की कोई कोशिश नहीं की। सिर्फ केरल ही अप्रैल 2020 में 99.39 टन की ऑक्सीजन क्षमता को अप्रैल 2021 में बढ़ाकर 219 टन करने में सफल रहा है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक उसने नए ऑक्सीजन संयंत्र लगाने के लिए अक्टूबर 2020 में बोलियां आमंत्रित की थीं। जिन 162 संयंत्रों की स्थापना की मंजूरी दी गई उनमें से सिर्फ 33 ही अब तक स्थापित हो पाए हैं। इसका कारण यह है कि राज्य सरकारों ने ऑक्सीजन संयंत्र लगाने के लिए जरूरी भूमि ही नहीं मुहैया कराई है। दिल्ली के लिए 8 ऑक्सीजन संयंत्र लगाने की मंजूरी दी गई थी लेकिन दिल्ली सरकार केवल एक संयंत्र ही लगा पाई। उसके वकील तो उच्च न्यायालय को यह भी नहीं बता पाए कि वह अकेला संयंत्र भी काम कर रहा है या नहीं। बहरहाल स्वास्थ्य मंत्रालय ने यह नहीं बताया कि ऑक्सीजन संयंत्र लगाने की इस योजना का जिम्मा उसके पास ही होने के बावजूद उसने सक्रियता नहीं दिखाने वाले राज्यों के खिलाफ कोई भी कदम नहीं उठाया। यह तो महज एक उदाहरण है कि मौजूदा बदहाली के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारें किस तरह बराबर की दोषी हैं। 'द इंडियन एक्सप्रेस' में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक केंद्र सरकार ने कोविड महामारी से मुकाबले के लिए मार्च 2020 में 11 अधिकार-प्राप्त समूह बनाए थे। उम्मीद की गई थी कि ये समूह त्वरित प्रतिक्रिया दलों के रूप में काम करेंगे और केंद्र एवं राज्यों के बीच तालमेल बिठाएंगे। लेकिन ऑक्सीजन संकट से पता चलता है कि इन समूहों ने कितना कम काम किया है और मध्य सितंबर से मध्य फरवरी तक के पांच महीने उन्होंने कैसे गंवा दिए?


ऐसी निष्क्रियता के बीच 551 जिलों में ऑक्सीजन उत्पादन संयंत्र लगाने और उसके लिए पैसे का इंतजाम पीएम केयर्स फंड से करने की केंद्र की घोषणा पर भरोसा नहीं हो पा रहा। ऐसा लगता है कि यह घोषणा लोगों को खुश करने की मंशा से की गई है। ऑक्सीजन पर राजनीति होना बेहद घृणित है। देश में सबसे बड़े ऑक्सीजन उत्पादक आइनॉक्स ने दिल्ली उच्च न्यायालय को बताया कि दिल्ली के अस्पतालों में आपूर्ति के लिए लाए जा रहे चार ऑक्सीजन टैंकरों को केंद्र सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया। कंपनी के मुताबिक दिल्ली को की जाने वाली ऑक्सीजन आपूर्ति को भी केंद्र ने कम कर दिया है और उसके यहां उत्पादित ऑक्सीजन की बड़ी खेप उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान को आवंटित कर दी गई है।


दिल्ली उच्च न्यायालय की इस टिप्पणी से हालात को लेकर एक बेबसी नजर आई कि 'हमें यही लग रहा है कि इस देश को भगवान ही चला रहे हैं।' केंद्र सरकार के किसी खास शख्स का जिक्र किए बगैर यह टिप्पणी उस धारणा की ही पुष्टि करती है कि ऑक्सीजन के लिए बेहाल लोगों को उनके ही हाल पर छोड़ दिया गया है।


सच कहें तो कोई भी अंदाजा नहीं लगा सकता था कि मौजूदा संकट इतना गहरा होगा। वर्ष 2019 में महामारी के दस्तक देने तक भारत को सिर्फ 750-800 टन मेडिकल ऑक्सीजन की जरूरत होती थी। कोविड की पहली लहर में भी मेडिकल ऑक्सीजन की मांग 1,500 टन से अधिक नहीं थी लेकिन अब यह 6,000 टन को भी पार कर चुकी है। वैसे भारत की दैनिक ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता 7,127 टन की है।


लेकिन असली समस्या ऑक्सीजन आपूर्ति के प्रबंधन की रही है। दिल्ली को मिलने वाली ऑक्सीजन सात राज्यों से आती है जिनमें से कुछ 1,000 किलोमीटर दूर हैं। ऐसे में ऑक्सीजन का परिवहन चुनौतीपूर्ण काम हो जाता है क्योंकि ऑक्सीजन लेकर जाने वाले क्रायोजेनिक टैंकर 40 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से तेज नहीं चल सकते। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में सड़क परिवहन के लिए सिर्फ 1,172 क्रायोजेनिक ऑक्सीजन टैंकर ही उपलब्ध हैं। महामारी फैलने तक ये टैंकर पर्याप्त होते थे लेकिन अब उनकी किल्लत हो रही है। ऐसे एक टैंकर की कीमत 50 लाख रुपये से भी अधिक होती है। कंपनियां नए टैंकर खरीदने से इसलिए भी हिचक रही हैं कि मौजूदा संकट खत्म होने के बाद उनका निवेश फंस जाएगा।


लिहाजा कोविड मामलों की सुनामी को देखते हुए ऑक्सीजन की कमी एक हद तक होनी ही थी। लेकिन केंद्र एवं राज्य सरकारों दोनों का बुनियादी तैयारी तक न करना असल समस्या है। जनवरी से नए मामलों की संख्या में आई कमी ने सुरक्षित होने की गलत धारणा पैदा की और कोविड पर जीत तक के दावे किए जाने लगे। इस दौरान पूर्व-नियोजित परियोजनाएं भी ठंडे बस्ते में डाल दी गईं। इसका परिणाम यह हुआ कि लोग बीमारी से नहीं बल्कि मेडिकल ऑक्सीजन की किल्लत के कारण झुंड में मर रहे हैं।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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