टी. एन. नाइनन
क्या भारत एक बार फिर 'तीसरी दुनिया' का देश बनने जा रहा है? क्या 16 वर्ष बाद एक बार फिर वह दूसरे देशों की सहायता पर निर्भर होगा? इसका जवाब न भी हैं और हां भी। न इसलिए क्योंकि भारत ने सहायता लेने के पहले सहायता दी है। जैसा कि विदेश सचिव ने कहा यह पारस्परिक निर्भरता वाली दुनिया है। इसके अलावा यह ऐसी घटना है जो शायद एक सदी में एक बार घटती है। ऐसे में गलतियां होंगी और जो जवाबदेह हैं उन्हें थोड़ी रियायत मिलनी चाहिए। परंतु इसका उत्तर हां भी है क्योंकि विदेशों से आपात सहायता इसलिए लेनी पड़ रही है क्योंकि असाधारण स्तर पर गोलमाल किया गया और अक्षमता नजर आई। संस्थागत कमजोरी तीसरी दुनिया के देशों की एक विशिष्ट पहचान है और यह बताती है कि बीते कुछ महीनों में कौन सी गलतियां की गई हैं: ऑक्सीजन संयंत्रों की स्थापना करने और टीका निर्माण क्षमता बढ़ाने के क्षेत्र में चूक हुई है। अधिकारी उच्चस्तरीय कार्य बल और समितियां बनाने में व्यस्त रहे और इस बीच बड़ी तादाद मेंं हुई मौतों ने पूर्व में हुई नाकामियों को और उजागर कर दिया।
गड़बडिय़ां कई तरह से हुई हैं। मिसाल के तौर पर आधी राह में जीत की घोषणा करने की आदत। फिर चाहे वायरस का मामला हो या डोकलाम का। या फिर पराजय या झटकों को जीत मेंं बदल देना जैसा कि डेपसांग में हुआ। विदेशों में होने वाली आलोचना का बरदाश्त न होना भी कोई नई बात नहीं है। जिस लालफीताशाही वाली व्यवस्था में विदेशी टीका निर्माता को नकार दिया जाता हो वहां आलोचना का यूं चुभना सही नहीं लगता। हम भले ही खुद को टीकों के क्षेत्र में वैश्विक राजधानी कहते रहें लेकिन रोज होने वाला टीकाकरण 30 लाख से घटकर 20 लाख तक आ गया जबकि हमें दो अरब लोगों का टीकाकरण करने की जरूरत है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था का कमजोर होना तथा ऐसी अन्य कमियां लंबे समय से जाहिर थीं और इन पर टिप्पणियां भी की जाती रहीं लेकिन हालिया सफलताओं के नाम पर इनके बारे में बात नहीं की गई या छिपाया गया। कहा गया कि भारत 'तीसरी दुनिया' से 'उभरता बाजार' बन चुका है। कुछ विशिष्ट देशभक्त निगाहों में तो देश संभावित महाशक्तिभी बन गया था। वायरस ने उन छिपी कमियों को दुनिया के सामने उजागर कर दिया है। यह वही दुनिया है जिसने शायद विनम्रतावश हमारी हालिया सफलताओं के जश्न मेंं शिरकत की और चीन के साथ तुलना की कोशिशों की कलई नहीं खोली। 'आंदोलनजीवी' जैसी टिप्पणियां दूसरों की तकलीफ में खुशी खोजने का प्रयास करती रहीं और अपरिपक्वजीत का अहसास कराती रहीं। अधिक परिपक्व नजरिया वह होता जहां नाकामियों और सफलताओं को स्वीकार करते हुए शेष काम को पूरा करने का प्रयास किया जाता।
वह व्यवस्था जिसने संकट को इतना बढ़ जाने दिया उसमें इस संकट को लेकर समुचित प्रतिक्रिया देने की काबिलियत भी है। जानकारी के मुताबिक एक महीने में चिकित्सकीय इस्तेमाल वाली ऑक्सीजन का उत्पादन 70 फीसदी तक बढ़ा है। इसी तरह गत वर्ष हमने व्यक्तिगत संरक्षण उपकरण (पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट यानी पीपीई) का उत्पादन बढ़ाया था। तेजी से अस्पताल खोले गए हैं। जब सरकार का नेतृत्व करने वाले काम संभालते हैं तो काम होता भी है। संस्थागत और औद्योगिक क्षमताएं मौजूद हैं भले ही उन्हें मिशन के रूप में काम करना पड़े। सन 1962 के उलट सेना भी समुचित प्रतिक्रिया देने में सक्षम है। ऐसा भी नहीं है कि 60 या 70 वर्ष में कुछ हासिल ही नहीं हुआ।
'तीसरी दुनिया' की एक और विशेषता है जवाबदेही की कमी। क्या नरेंद्र मोदी सरकार को राजनीतिक रूप से जवाबदेह ठहराया जाएगा और यह कैसे होगा यह बात भविष्य में तय होगी। यहां विकल्पों का सवाल भी उठेगा। फिलहाल तो यह बात ध्यान देने लायक है कि प्रधानमंत्री ने सामने आकर इस बात को स्वीकार तक नहीं किया है कि देश 'हिला' हुआ है। न ही उन्होंने इस बात का दायित्व लिया है। उनके मंत्री पूर्व प्रधानमंत्री या मौजूदा मुख्यमंत्रियों की बातों का जिस तरह जवाब देते हैं उसमें भी दंभ साफ झलक रहा है।
लोगों को धमकाया जा रहा है कि ऑक्सीजन की कमी की शिकायत करने पर उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है जबकि उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई की कोई खबर नहीं है जो मंजूर ऑक्सीजन संयंत्र न लगने के लिए जवाबदेह हैं। या जिन्होंने अतिरिक्त टीकों की आवश्यकता का ध्यान नहीं रखा। विकसित समाज जिस जवाबदेही और व्यवस्थागत निगरानी व्यवस्था में काम करते हैं वह भारत में नदारद है। उदाहरण के लिए ध्यान दीजिए कैसे ब्रिटेन में कैबिनेट सचिव प्रधानमंत्री के घर के नवीनीकरण के व्यय की जांच कर रहे हैं। भारत में तो प्रधानमंत्री की पसंदीदा परियोजनाओं को विशेष मंजूरी प्रदान की जाती है। तीसरी दुनिया ऐसी ही होती है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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