बंगाल में हुआ खेला, चुनाव परिणामों के गहरे निहितार्थ ( दैनिक ट्रिब्यून)

पश्चिम बंगाल के बहुचर्चित विधानसभा चुनावों में भाजपा द्वारा अपने तमाम संसाधन झोंकने के बाद ‘दो सौ पार’ के नारे को ममता बनर्जी ने लपक लिया। उन्होंने ‘खेला होबा’ यानी खेल होगा का नारा सच में कर दिखाया है। ‘आशोल परिवर्तन’ के नारे को राज्य के मतदाताओं को समझाने में सफल रही। देश के चार राज्यों व एक केंद्रशासित प्रदेश में आये परिणाम हाल के चुनाव सर्वेक्षणों के अनुरूप ही रहे। तमिलनाडु में डीएमके की वापसी की उम्मीद थी। केरल में एलडीएफ का पलड़ा पहले ही भारी था। असम में भाजपा की जीत दोहराने की बात सामने आ रही थी, कमोबेश भाजपा को उम्मीद से ज्यादा ही मिला। पुड्डुचेरी में भाजपा का चुनावी गणित सिरे चढ़ा है। लेकिन विधानसभा चुनावों मे हॉट स्पाट बने पश्चिम बंगाल ने शेष राज्यों के चुनाव परिणामों को पार्श्व में डाल दिया। निस्संदेह पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम भाजपा की महत्वाकांक्षाओं को झटका है। कह सकते हैं कि वर्ष 2016 में तीन सीट जीतने वाली भाजपा का सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभरना उसकी उपलब्धि है। भले ही भाजपा पश्चिम बंगाल के किले को हासिल न कर पाई हो, मगर हाल के चुनाव में हर राज्य में उसका कद बढ़ा ही है। वैसे भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने चुनाव अभियान में बंगाल के स्थानीय नेताओं को तरजीह न देकर बड़ी चूक की है। पार्टी राज्य की जमीनी हकीकत समझने में विफल रही।


दरअसल, पश्चिम बंगाल चुनाव में भाजपा भले ही अपने लक्षित वर्ग का ध्रुवीकरण न कर पायी, लेकिन वहीं ममता की रणनीति ने अल्पसंख्यक मतों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण कर दिया। साथ ही भाजपा के ध्रुवीकरण की कोशिशों में सेंध लगा दी। जहां भाजपा का शीर्ष नेतृत्व टीएमसी सुप्रीमो पर हमलावार रहा, वहीं ममता बनर्जी राज्य में निर्णायक महिला मतदाताओं को समझा गयी कि एक महिला मुख्यमंत्री को निशाना बनाया जा रहा है। चोट लगने की सहानुभूति को वोटों में तब्दील करने में भी सफल रही। जहां भाजपा के नेता हवाई जहाज-हेलीकॉप्टरों से चुनावी रैलियों में पहुंच रहे थे, वहीं पूरा चुनाव ममता बनर्जी ने व्हीलचेयर के जरिये करके सहानुभूति बटोरी। सही मायनों में ममता भाजपा के हिंदुत्व के खिलाफ बंगाली उपराष्ट्रवाद भुनाने में कामयाब हुई। हिंदीभाषी भाजपा नेताओं को लगातार वह बाहरी बताती रही। वहीं दूसरी ओर केरल में भी मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने हर पांच साल में बदलाव की परंपरा को किनारा करके फिर सत्ता की चाबी हासिल कर ली। कोरोना संकट में उन्होंने बहुत योजनाबद्ध ढंग से काम किया। जनता को जो विश्वास दिलाया, उसको हकीकत में बदला। कोरोना संक्रमण की जांच, उपचार, राहत और मेडिकल ऑक्सीजन के मुद्दे पर वे अव्वल रहे। वही तमिलनाडु में पहली बार बड़े कद्दावर राजनेताओं की अनुपस्थिति में लड़े गये चुनाव में स्टालिन को करुणानिधि की विरासत का लाभ मिला। एआईएडीएमके में वर्चस्व की लड़ाई मतदाताओं में विश्वास जगाने में विफल रही। असम में भाजपा की प्रभावी जीत में जहां पार्टी संगठन और रणनीति का योगदान मिला, वहीं स्थानीय मजबूत छत्रपों ने उसमें बड़ी भूमिका निभायी।

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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