प्रभाकर मणि तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार
हाल में जिन पांच राज्यों और केंद्रशासित प्रदेश में चुनाव हुए, उनमें भाजपा की प्राथमिकता सूची में दो राज्य - पश्चिम बंगाल और असम क्रमश: पहले और दूसरे नंबर पर थे। असम में उसके सामने जहां अपनी सरकार बचाने की चुनौती थी, वहीं पड़ोसी पश्चिम बंगाल में वह दस साल से सरकार चला रही तृणमूल कांग्रेस को पराजित कर सत्ता हासिल करने के लक्ष्य और दावे के साथ मैदान में उतरी थी। असम में विपक्षी गठबंधन की ओर से मिलने वाली चुनौतियों की वजह से उसकी सरकार दांव पर थी, तो बंगाल में वह ममता बनर्जी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती और सत्ता की प्रमुख दावेदार के तौर पर उभरी थी। असम की चुनौती तो पार्टी ने पार कर ली है और बहुमत के साथ अपनी सरकार बचा ली है। ऐसा करते हुए उसने लगातार दूसरी बार सत्ता में आने वाली पहली गैर-कांग्रेसी सरकार होने का रिकॉर्ड भी अपने नाम कर लिया है, लेकिन इस जीत की खुशी भी बंगाल चुनाव में उसकी पराजय का गम कम नहीं कर सकती। यह भी तय है कि बंगाल के चुनावी नतीजों का असर दूरगामी होगा। अब इस जीत के बाद वर्ष 2024 में ममता विपक्ष का चेहरा बन सकती हैं।
भाजपा के पास न जमीनी नेता थे और न ही बहुमत के लिए जरूरी मजबूत संगठन। यही वजह है कि उसे करीब आधी सीटों पर दूसरे दलों से आने वाले नेताओं को मैदान में उतारना पड़ा। नतीजों से साफ है कि वोटरों ने ऐसे ज्यादातर दलबदलुओं को नकार दिया है। टिकट न मिलने से निराश कार्यकर्ताओं ने भी चुनाव अभियान में बेमन से काम किया। अब नतीजा सामने है। ममता की कद-काठी का कोई नेता नहीं होने का नुकसान भी पार्टी को हुआ। भाजपा ने जिस बड़े पैमाने पर धार्मिक ध्रुवीकरण शुरू किया था, उसका खामियाजा भी उसे भुगतना पड़ा है। ममता बनर्जी की हैट्रिक में भाजपा की ऐसी रणनीतिक गलतियों की अहम भूमिका रही। इसके साथ ही, रैलियों में दीदी-ओ-दीदी कहते हुए ममता का मजाक उड़ाने का वोटरों पर प्रतिकूल असर पड़ा लगता है। केंद्र की ओर से चुनाव के मौके पर सीबीआई, ईडी और आयकर जैसी केंद्रीय एजेंसियों के कथित राजनीतिक इस्तेमाल को भी ममता बनर्जी ने असरदार मुद्दा बनाया। अपनी हार के लिए भाजपा अब चुनावी धांधली का बहाना नहीं कर सकती। हालांकि, वर्ष 2016 की तीन सीटों से यहां तक पहुंचना और राज्य की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरने की उपलब्धि भी कम नहीं है। लेकिन जब मंजिल दो सौ के पार हो और लक्ष्य सत्ता का सिंहासन हो, तो यह उपलब्धि कोई मायने नहीं रखती। अब नतीजों के बाद पार्टी में स्थानीय स्तर पर केंद्रीय नेताओं के खिलाफ असंतोष खदबदाने लगा है।
पड़ोसी असम में विपक्षी गठबंधन की ओर से सत्तारूढ़ भाजपा गठबंधन को कड़ी चुनौती मिल रही थी। वहां खासकर पूर्वोत्तर के चाणक्य कहे जाने वाले भाजपा नेता और असम सरकार के वित्त मंत्री हिमंत बिस्वा सरमा की वजह से पार्टी की राह आसान हो गई। यह उनकी रणनीति का ही नतीजा था कि जिस नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजंस (एनआरसी) और नागरिकता कानून (सीएए) का असम में सबसे ज्यादा विरोध हुआ था, वहीं यह दोनों मुद्दे हाशिए पर चले गए।आखिर असम में भाजपा की राह आसान कैसे हुई? दरअसल, राज्य की करीब 45 सीटों पर चाय बागान मजदूरों के वोट निर्णायक हैं। नतीजों से पता चलता है कि चाय मजदूरों का समर्थन भगवा खेमे को ही मिला है। इसके अलावा कांग्रेस के बदरुद्दीन अजमल की पार्टी के साथ हाथ मिलाने की वजह से राज्य में वोटरों का जबरदस्त ध्रुवीकरण देखने को मिला। भाजपा ने जिस तरह पड़ोसी देश से होने वाली घुसपैठ को अपना सबसे प्रमुख मुद्दा बनाया था और सत्ता में आने पर लव जिहाद केखिलाफ कानून बनाने की बात कही थी, उससे हिंदी वोटरों को एकजुट करने में सहायता मिली है। खासकर हिंदू बहुल इलाकों में उसकी जीत से यह बात शीशे की तरह साफ है। दूसरी ओर, कांग्रेस को इस बार चाय बागान मजदूरों का समर्थन मिलने की उम्मीद थी, इसी वजह से राहुल गांधी और प्रियंका गांधी जैसे नेता अक्सर चाय बागानों का दौरा करते देखे गए, लेकिन पर्याप्त सफलता नहीं मिली। अजमल का साथ होने की वजह से विपक्षी गठबंधन को अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में कामयाबी जरूर मिली, लेकिन वह पर्याप्त नहीं थी। यही वजह है कि सत्ता में वापसी का कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन का सपना पूरा नहीं हो सका। इस चुनाव में पार्टी को तरुण गोगोई जैसे नेता की कमी भी काफी खली।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
0 comments:
Post a Comment