इलाज का हक (जनसत्ता)

हाल में ऐसी कई खबरें आर्इं कि कोरोना से संक्रमित मरीजों को अस्पताल भर्ती करने से मना कर दिया गया। कभी किसी मरीज के दूसरे राज्य का निवासी होने को आधार बताया गया तो कहीं किसी और वजह से इनकार कर दिया गया। सवाल है कि संक्रमण की चपेट में आने के बाद बीमार हुए व्यक्ति को ऐसी वजहों से क्या किसी अस्पताल में इलाज करने से मना किया जा सकता है! यह न केवल तकनीकी आधार पर पूरी तरह गलत है, बल्कि एक बेहद अमानवीय रुख है। अगर कहीं ऐसे मामले सामने आए हैं तो अस्पतालों और उनके प्रबंधनों को इस मसले पर ठहर कर सोचना चाहिए। लेकिन ऐसी खबरें बताती हैं कि कागज पर दर्ज नियम-कायदों के बरक्स इस बीमारी की जद में आए लोगों को जमीनी स्तर पर कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।

अलग-अलग जगहों पर भिन्न कारण बता कर इलाज की गुहार लगाते मरीजों और उनके परिजनों को अस्पताल में दाखिल नहीं होने दिया गया। इसलिए यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या मरीजों को भर्ती करने की स्थितियों के संबंध में एक राष्ट्र्ीय नीति बनाई जा सकती है! दरअसल, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के कुछ अस्पतालों में कोविड-19 संक्रमित मरीजों को भर्ती करने के लिए स्थानीय पते का प्रमाण मांगने से संबंधित कुछ खबरें आर्इं तो सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर स्वत: संज्ञान लिया। अदालत ने केंद्र सरकार से इसके लिए एक समान और राष्ट्रीय नीति बनाने के बारे में जानकारी मांगी और कहा कि अस्पतालों द्वारा मरीजों को दाखिले के लिए किसी स्थानीय पते की मांग नहीं की जाए।

यों किसी भी बीमारी के इलाज के मामले में मरीज से अनिवार्य तौर पर स्थानीय पते की मांग करने को सही नहीं कहा जा सकता। मगर यह विचित्र है कि जिस दौर में देश महामारी के संकट से गुजर रहा है और हर तरफ लोग एक बड़ी त्रासदी का सामना कर रहे हैं, वैसे में अस्पताल संक्रमण की चपेट में आए किसी व्यक्ति का इलाज करने के लिए उससे स्थानीय पते की मांग करें! गौरतलब है कि एक व्यक्ति को नोएडा के अस्पताल में भर्ती करने से इसलिए इनकार कर दिया गया कि उसके आधार कार्ड पर मुंबई का पता था। कुछ अस्पताल अपने यहां भर्ती करने के लिए कोविन ऐप पर पंजीकरण पर जोर देते हैं। इसी तरह दिल्ली में अस्पताल में भर्ती होने के लिए एसडीएम के हस्ताक्षर वाले आदेश की जरूरत बताए जाने की खबरें आर्इं।

यह शायद अलग से दर्ज करने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए कि चिकित्सा सुविधाओं को हासिल करना देश के नागरिकों का एक मौलिक अधिकार है। लेकिन क्या अलग-अलग राज्यों में सरकारें, नौकरशाही या कोई अस्पताल अपनी सुविधा से इस अधिकार को खारिज कर सकते हैं? यह खबर अपने आप में अमानवीय है कि गुजरात के एक अस्पताल के बाहर इलाज के अभाव में दो मरीजों की मौत हो गई, क्योंकि उन्हें ‘108’ एंबुलेंस सेवा से नहीं, बल्कि निजी वाहन में लाया गया था और उन्हें अस्पताल में भर्ती करने से इनकार कर दिया गया था।

अब तक यही माना जाता रहा है कि किसी को भी चिकित्सा सहायता से सिर्फ इसलिए वंचित नहीं किया जा सकता कि उसके पास अपने स्थानीय होने के निवास का प्रमाण नहीं है। नियमों के तहत और मानवीयता के नाते भी मरीज का यह अधिकार है कि जरूरत के मुताबिक वह किसी जगह इलाज कराए। लेकिन अगर कहीं अस्पतालों की ओर से निजी स्तर पर तो कहीं नई व्यवस्था के तहत मरीजों के अधिकारों का हनन हो रहा है या फिर अमानवीय रुख दर्शाया जा रहा है तो इस पर तत्काल रोक की जरूरत है।

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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