युसूफ अख्तर
देश में महामारी से हालात इतने बदतर हो गए हैं कि इससे निपटने के उपलब्ध सारे संसाधन नाकाफी साबित हो रहे हैं। स्वास्थ्य क्षेत्र पर भारी दबाव है। आॅक्सीजन और इसके उत्पादन से जुड़े उपकरणों, दवाइयों, बचाव के किट व अन्य जरूरी सामान दूसरे देश भारत को दे रहे हैं। जाहिर है, स्वास्थ्य क्षेत्र अचानक आए दबाव से लड़खड़ा गया है। ऐसे में चिकित्सकों, नर्सों और अन्य चिकित्साकर्मियों की भारी कमी का सामना भी करना पड़ रहा है। हालांकि हालात से निपटने के लिए सरकार ने सारे मोर्चे खोल दिए हैं। सेना की मेडिकल कोर में सेवाएं दे चुके सेवानिवृत्त चिकित्साकर्मियों की मदद भी ली जा रही है। यह स्थिति भारत के साथ ही नहीं, दुनिया के ज्यादातर पीड़ित देशों के साथ देखने को मिली है।
विशेषज्ञों का मानना है कि मई के मध्य तक हालात और विकराल रूप धारण कर सकते हैं। संक्रमितों की संख्या सात लाख रोजाना तक भी जा सकती है। जाहिर है, ऐसे में अस्पतालों की हालत क्या होगी, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। देश के ज्यादातर अस्पताल कोरोना मरीजों से अटे पड़े हैं। लोगों के लिए बड़े स्तर पर कामचलाऊ अस्पतालों का निर्माण किया जा रहा है। चिकित्साकर्मी चौबीसों घंटे जुटे हैं। ऐसे में इतना तो साफ है कि इस संकट से मुक्ति आसान नहीं है। जिस तरह के हालात हैं, उसमें अब बड़े पैमाने पर जनसहयोग की जरूरत है। जब इस तरह की आपदाएं आती हैं और हालात बेकाबू हो जाते हैं तो उससे निपटने में समाज की ही भूमिका ज्यादा बड़ी हो जाती है।
हालांकि सरकारें काम करती हैं, लेकिन एक बनी-बनाई व्यवस्था के तहत। फिर विकासशील देशों में सरकारों की कार्यसंस्कृति विकसित देशों की तरह दक्ष नहीं होती। ज्यादातर विकासशील देशों की व्यवस्था में नौकरशाही हावी रहती है, जो लीक से हटने में खतरे देखती है, अपने आकाओं को वक्त पर सही सलाह देने में हिचकती है। इस कारण इन देशों में आबादी की जरूरतों के हिसाब से संसाधनों का विकास नहीं हो पाता। आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी और अभाव में रहने को मजबूर होता है। ये स्थितियां तब पनपती हैं जब सरकारें जनसरोकार वाली नहीं होतीं, नागरिकों के हित उनकी प्राथमिकता नहीं होते। यह सब हाल में हमने महसूस भी किया। वरना क्या कारण है कि आजादी के साढ़े सात दशक बाद भी भारत का स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र इतनी बदतर हालत में है कि देश के तमाम अस्पतालों में लोग सिर्फ आॅक्सीजन के अभाव में दम तोड़ रहे हैं।
इतिहास और अनुभव बताता है कि ऐसी महामारी के समय में लोगों को संकट से उबारने में संगठित समुदायिक प्रयास कारगर साबित होते हैं। भारत जैसे विशालकाय देश में पूरी तरह से सरकारों पर आश्रित नहीं रहा जा सकता। ऐसे में इस पर विचार करना जरूरी हो जाता है कि ऐसे संगठित सामुदायिक प्रयास किस प्रकार लोगों की मदद में सहायक हो सकते हैं और उन्हें कैसे सफल बनाया जा सकता है। यह सही है कि बड़े पैमाने पर महामारी से निपट पाना भारत सहित दुनिया भर की सरकारों के लिए काफी मुश्किलों भरा रहा है।
संक्रमण के प्रसार को रोकने, जांच करने, संक्रमितों के संपर्क में आए लोगों का पता लगा कर उन्हें अलग रखने और अस्पतालों में लोगों के इलाज से लेकर इसके बाद आने वाली सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां कम कठिन नहीं हैं। ऐसे में कोविड-19 प्रबंधन में एक व्यापक सहयोगी दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है, जिसमें महामारी के प्रबंधन के लिए सरकार के प्रयासों का समर्थन करने के लिए सामान्य नागरिकों एवं नागरिक समाज संगठनों की भागीदारी जरूरी हो जाती है। अगर इतिहास पर गौर करें, तो विपत्ति के समय नागरिक समाज ने स्थिति की बारीकी से निगरानी करके, सरकार की सहायता करने और सबसे कमजोर सामाजिक समूहों तक पहुंचने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस मामले में लोगों ने अपने स्तर सामुदायिक प्रयासों के जरिए पोलियो, खसरा-रूबेला और चेचक जैसी बीमारियों के प्रबंधन और उन्मूलन में सरकारों की सहायता की और उन अंतरालों को भरने में मदद की जहां सरकारें नहीं पहुंच सकती थीं।
बांग्लादेश में लगभग दो सौ गैर-सरकारी संगठन सरकार के साथ मिल कर लोगों को चिकित्सा और भोजन सहायता के लिए आर्थिक सहायता प्रदान कर रहे हैं। वे बेहद गरीब और पिछड़े लोगों में जाकर उन्हें स्वच्छता किट बांट रहे हैं और महामारी के बारे में जागरूकता फैला रहे हैं। सत्तर के दशक में भारत को अपने नागरिक संगठनों की सहायता के माध्यम से चेचक के उन्मूलन के लिए तैयार किया गया था।
तब डब्ल्यूएचओ द्वारा प्रशिक्षित हजारों स्वास्थ्य कार्यकर्ता और एक लाख सामुदायिक कार्यकर्ता देश में घर-घर गए दस करोड़ घरों, छह लाख गांवों और ढाई हजार से ज्यादा शहरों में सेवाएं दीं। वर्ष 1977 में जब भारत से ये घातक बीमारी समाप्त हो गई तब उनके अथक श्रम का फल सामने आया। इन पूर्व घटनाओं से सबक लेकर आज के हालात में हम ऐसे ही स्वयंसेवी समूहों की मदद ले सकते हैं जो लोगों को घर-घर जाकर हाथ धोने, मास्क लगाने, सुरक्षित दूरी के बारे में तो जागरूक करे ही, साथ ही लोगों की जांच और टीकाकरण जैसे बड़े अभियान को भी ऐसे प्रशिक्षित कार्यकतार्ओं के माध्यम से तेज किया जा सकता है।
सामुदायिक पहल और सहायता महामारी प्रबंधन की कुंजी है। सार्वजनिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के सामुदायिक प्रयास के प्रयोग के काफी सफल देखे गए हैं। हाल के संकट में एक सोसाइटी के लोगों ने अपने सामूहिक प्रयासों से आकस्मिक चिकित्सा के लिए सीमित बिस्तरों वाला आइसीयू बना लिया। मंदिरों, मस्जिद और गुरद्वारों के प्रबंधन ने अस्थायी कोविड अस्पताल बना कर लोगों की मदद की पहल की है, ताकि लोग अस्पताल के संकट से बचें और अस्पताल भी लोगों की भीड़ से बचें। ऐसे सामुदायिक प्रयास महामारी से निपटने में सरकार की बड़ी मदद कर सकते हैं।
कोरोना महामारी से उत्पन्न चुनौतियों दो तरह की हैं। पहली तो बेहद आकस्मिक है जिसमें लोगों की जान बचाने के लिए परस्पर सहयोग से जीवन-रक्षक चिकित्सा का सामान जैसे आॅक्सीजन सिलेंडर, दवाइयां और अस्पताल के बिस्तर उपलब्ध कराने जैसे इंतजाम करना। दूसरी चुनौती उन लोगों को भी मदद देकर पटरी पर लाने की है जो महामारी संकट से उत्पन्न हालात के कारण आजीविका नहीं चला पा रहे हैं। बड़ी आबादी ऐसे लोगों की है जो दिहाड़ी मजदूरी करके पेट भरती है। ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए संगठनात्मक तरीके से तकनीक का इस्तेमाल किया जा सकता है।
कई शहरों में ऐसे डेटाबेस और वेबपोर्टल बनाए गए हैं जो तत्काल इस बात की जानकारी देते हैं कि कोरोना के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवाई-इंजेक्शन या आॅक्सीजन किस जगह पर उपलब्ध है या कौन से अस्पताल में अभी बिस्तर उपलब्ध है। ऐसे वेब पोर्टल कुछ तो सरकारी एजेंसियों द्वारा बनाये गए थे, लेकिन ज्यादातर ये लोगों के खुद के सामूहिक प्रयासों से ही बनाए गए। इसी प्रकार से राजस्थान के एक गांव में वहां की एक स्वयंसेवी संस्था ने पिछले साल पूर्णबंदी लगने के बाद से विस्थापित होने वाले मजदूरों के परिवारों के लिए नियमित स्वास्थ्य जांच और उनको रोजमर्रा के लिए राशन पहुंचाने का काम किया। कई महिला स्वयंसेवी समूहों ने आचार-पापड़ बनाने से लेकर अन्य सहकारी कुटीर उद्योगों की स्थापना की और लोगों को रोजगार भी दिया।
हालांकि इस भय और अनिश्चितता के माहौल में भविष्य में हमारे सामान्य जीवन का लौटना मुश्किल दिख रहा है। लेकिन एक बात जो विश्वास के साथ कही जा सकती है, वह यह है कि हमारे समाज के सामूहिक प्रयास ही आशा की किरण हैं। अगर हम महामारी पर विजय प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें सरकारी प्रयासों के साथ-साथ इन्हें भी जारी रखना होगा।
सौजन्य - जनसत्ता।
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