"फिर वही हालत (जनसत्ता)

कोरोना ने रोजी-रोटी पर फिर से कहर बरपाना शुरू कर दिया है। आंशिक बंदी और सख्त प्रतिबंधों की वजह से पिछले महीने पचहत्तर लाख से ज्यादा लोगों का रोजगार चला गया। देश जिस तरह के भंवर में घिर गया है, उससे जल्दी ही बाहर आने के आसार दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे। जाहिर है, रोजगार की यह तस्वीर दिनोंदिन और डरावनी होगी। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआइई) का ताजा आकलन भी अर्थव्यवस्था और रोजगार के मुद्दे पर चिंता बढ़ाने वाला है। बेरोजगारी दर चार महीने के उच्चतम स्तर यानी आठ फीसद तक पहुंच गई है।

यह आर्थिकी पर आने वाले गहरे संकट का भी संकेत है। इससे छोटे और मझोले उद्योगों की हालत का भी पता चलता है। हालांकि भारत के लिए यह सिलसिला अब नया नहीं है। पिछले साल अप्रैल से ही ऐसे ही हालात देखने को मिल रहे हैं। गौरतलब है कि पिछले साल अप्रैल में बिना किसी तैयारी के की गई पूर्णबंदी ने करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी छीन ली थी। मजदूर घर लौटने को मजबूर हो गए थे। इस बार भी अप्रैल के महीने में ही लाखों लोग काम-धंधे से हाथ धो बैठे। आखिर ये कहां जाएंगे, क्या करेंगे, कैसे आजीविका चलाएंगे, इन सवालों के जवाब किसी के पास नहीं है।

कोरोना से निपटने के लिए इस बार केंद्र सरकार ने पाबंदियां लगाने का अधिकार राज्यों को दे दिया। अब राज्य अपने यहां जरूरत के हिसाब से कड़े प्रतिबंध लगा रहे हैं। देश के पंद्रह राज्यों में संक्रमण से स्थिति गंभीर है। महाराष्ट्र सरकार ने महीने भर से जैसी पाबंदियां लगाई हैं, वे पूर्णबंदी से कम नहीं हैं। ऐसे में उद्योग-धंधे तो चौपट होंगे ही। यह संकट असंगठित क्षेत्र के सामने कहीं ज्यादा गहरा है। अब मुश्किल उस तबके की ज्यादा बढ़ गई है जो छोटे-मोटे काम करके रोज कमाता खाता है।

दिहाड़ी मजदूर, रेहड़ी पटरी वाले, मिस्त्री, रिक्शा, आॅटो, टैक्सी चलाने वाले, चाय की गुमटी, छोटे रेस्टोरेंट, ढाबे और ऐसे ही अन्य कामों में लगे करोड़ों इसमें आते हैं। बंदी की वजह से ये लोग एकदम खाली हैं। देश में छोटे और मझोले उद्योगों की तादाद छह करोड़ चौंतीस लाख है। इनमें करीब बारह करोड़ लोग काम करते हैं और रोजमर्रा के इस्तेमाल वाला सामान तैयार करते हैं। लाखों मजदूर तो सामान ढोने जैसे काम से ही गुजारा चलाते हैं। ऐसे में सख्त प्रतिबंध और आंशिक बंदी उद्योगों और इनमें काम करने वालों के लिए काल साबित होने लगी है।

छोटे उद्योगों की हालत दयनीय है। ये कर्ज में डूबे हैं। कच्चा माल महंगा हो गया है। मांग घट रही है और इसका सीधा असर उत्पादन पर पड़ रहा है। नतीजतन फिर से प्रतिबंधों के कारण कई उद्योग ठप होने की कगार पर हैं। कोरोना के हालात बिगड़ते देख एक फिर सख्त पूर्णबंदी की आशंका जताई जा रही है। अगर ऐसा हुआ तो तय है कि कामंधंधे और चौपट हो जाएंगे। याद किया जाना चाहिए कि पिछले साल पूर्णबंदी लगाते समय प्रधानमंत्री ने उद्योगों से कामगारों को नहीं निकालने और वेतन नहीं काटने की अपील की थी।

लेकिन हुआ था इसका उल्टा। ज्यादातर नियोक्ताओं ने कामगार भी बाहर कर दिए थे और वेतन कटौती भी की। तब कोई बचाने नहीं आया। उस पूर्णबंदी का अनुभव सभी के लिए बेहद कटु रहा। यही वजह है कि उद्योग अब बंदी के पक्ष में नहीं हैं। ठीक साल भर बाद फिर वैसे ही नौबत आ गई है। ऐसे में अब ज्यादा बड़ा खतरा यह है कि बंदी जैसे कदम कहीं भुखमरी जैसे हालात पैदा न कर दें।

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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