वनिता कोहली-खांडेकर
पिछले पखवाड़े ईद का त्योहार बहुत बुरे समय में आया। देश महामारी से जूझ रहा है और हमारे चारों तरफ इतना दुख और कष्ट फैला हुआ है कि जश्न मनाने जैसा कोई भाव ही नहीं आता। सलमान खान अभिनीत फिल्म राधे ऐसे ही माहौल में रिलीज हुई। महामारी खत्म होने का इंतजार करने के बाद आखिरकार फिल्म को ओटीटी ज़ी 5 पर रिलीज किया गया। आश्चर्य नहीं कि दर्शकों और आलोचकों ने इसकी जमकर आलोचना की। शायद फिल्म बुरी है लेकिन ओटीटी पर रिलीज करने से इसकी हालत और बिगड़ गई। राधे जैसी फिल्म ईद के सप्ताहांत पर रिलीज होकर खूब भीड़ बटोरती है।
यह पुराने जमाने की सिंगल स्क्रीन फिल्मों जैसी है जहां दर्शक खूब शोरशराबा करते हैं। जब आप इसे 249 रुपये में ऐसे दर्शकों को बेचते हैं जिनकी पसंद नेटफ्लिक्स और एमेजॉन प्राइम वीडियो ने बदल दी है तो इसका नाकाम होना तय है। परंतु चूंकि यह सलमान खान की फिल्म है इसलिए इसे बड़ी तादाद में दर्शक मिलेंगे और विदेशों में रिलीज, टेलीविजन अधिकारों तथा ज़ी के साथ हुए सौदे से यह न केवल लागत वसूल करेगी बल्कि पैसे भी कमाएगी। परंतु इसकी कमजोर रिलीज में न केवल देश का मिजाज बल्कि फिल्म उद्योग की कमजोरी भी रेखांकित होती है। गत वर्ष देश के सिनेमा राजस्व का दोतिहाई हिस्सा गंवाना पड़ा। महामारी के कारण सन 2019 के 19,100 करोड़ रुपये से घटकर यह 7,200 करोड़ रुपये रह गया। महामारी के कारण थिएटर सबसे पहले बंद हुए और सबसे बाद में खुले। टिकट बिक्री घटकर 40 करोड़ रुपये रह गई जो 2019 की तुलना में एक तिहाई से भी कम थी। इस आंकड़े में भी ज्यादातर पहली तिमाही से है जब लॉकडाउन नहीं लगा था। सात लाख लोगों को रोजगार देने वाले इस उद्योग के काम करने वाले लाखों दैनिक श्रमिकों का काम छूट गया। फिक्की-ईवाई की रिपोर्ट के अनुसार 1,000 से 1,500 सिंगल स्क्रीन थिएटर बंद हुए। मल्टीप्लेक्स भी अच्छी स्थिति में नहीं हैं। सिनेमाघर खुले ही थे कि दूसरी लहर ने तबाही मचा दी। अमेरिका के रीगल और एएमसी की तरह अगर भारत में भी कुछ मल्टीप्लेक्स शृंखला बंद होती हैं तो आश्चर्य नहीं।
पूरे भारत का टीकाकरण होने में कम से कम एक वर्ष लगेगा। केवल तभी सिनेमाघर पूरी तरह खुल सकेंगे। इस पूरी प्रक्रिया में वे ही सबसे अहम हैं। बिना सिनेमा घरों के भारतीय सिनेमा दोबारा खड़ा नहीं हो सकता। सन 2019 में भारतीय फिल्मों की 19,100 करोड़ रुपये की आय में 60 फीसदी भारतीय थिएटरों से आई।
किसी फिल्म को थिएटर में कैसी शुरुआत मिलती है, इससे ही तय होता है कि टीवी, ओटीटी और विदेशों में उसकी कैसी कमाई होगी। सन 2019 एक अच्छा वर्ष था और उस वर्ष प्रसारकों ने फिल्म अधिकारों के लिए 2,200 करोड़ रुपये खर्च किए जो कुल कारोबार का 12 फीसदी था। प्रसारक नेटवर्क को इससे 7,700 करोड़ रुपये का विज्ञापन राजस्व मिला। परंतु प्रसारक टीवी को यह कमाई तभी होती है जब फिल्म का प्रदर्शन थिएटर में अच्छा हो। ये दोनों माध्यम आम जनता से संबद्घ हैं। अगर थिएटर पूरी तरह नहीं खुले तो यह पूरी व्यवस्था काम नहीं करेगी। डिजिटल या ओटीटी माध्यम 60 फीसदी कारोबार की जगह नहीं ले सकते। ध्यान रहे गत वर्ष फिल्मों का डिजिटल राजस्व दोगुना हो गया लेकिन कारोबार फिर भी 60 फीसदी कम रहा। ऐसा लगता है कि लोग भी थिएटरों में वापस जाना चाहते हैं। मास्टर (तमिल), ड्रैकुला सर या चीनी (बांग्ला), जाठी रत्नालू (तेलुगू), कर्णन (तमिल), द प्रीस्ट (मलयालम) आदि फिल्मों ने सन 2020 में और 2021 के आरंभ में बॉक्स ऑफिस में अच्छा प्रदर्शन किया। सवाल यह है कि अगर तेलुगू, तमिल या मलयालम फिल्मों का प्रदर्शन अच्छा है तो राधे को पहले क्यों नहीं रिलीज किया गया? क्योंकि हिंदी रिलीज पूरे देश में होती है। यह जरूरी होता है कि कई राज्यों में फिल्म रिलीज हो। कुल राजस्व का 40-50 फीसदी हिस्सा केवल दिल्ली और मुंबई से आता है। विदेशों से भी बहुत राजस्व मिलता है। जबकि तमिल फिल्म केवल तमिलनाडु में और तेलुगू फिल्म तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में रिलीज होती है। प्रोड्यूसर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष सिद्धार्थ राय कपूर कहते हैं कि ये फिल्में केवल राज्य विशेष में चलती हैं। ऐसे में हिंदी ही फिल्म राजस्व का सबसे बड़ा हिस्सा लाती है। जब तक महामारी समाप्त नहीं होती बड़े पैमाने पर हिंदी रिलीज मुश्किल है। दुनिया भर में अवेंजर्स, मिशन इंपॉसिबल या बॉन्ड शृंखला की फिल्मों में यह ताकत है कि वे दर्शकों को सिनेमाहॉल में खींच सकें। यह बात भारत के लिए भी सही है। बाहुबली (तेलुगू, तमिल), केजीएफ (कन्नड़), वार (हिंदी) या सोरारी पोत्रु (तमिल) जैसी फिल्मों के लिए दर्शक थिएटर जाएंगे जबकि सीयू सून अथवा जोजी (मलयालम) अथवा रामप्रसाद की तेरहवीं (हिंदी) जैसी फिल्में ओटीटी मंच के लिए हैं।
यानी टीकाकरण के अलावा थिएटरों में बड़ी और शानदार फिल्मों की जरूरत होगी ताकि हालात सामान्य हो सकें। ऐसा होता नहीं दिखता। धर्मा प्रोडक्शन के सीईओ अपूर्व मेहता कहते हैं, 'फिल्म अनुबंध का कारोबार है। इसमें कई लोग लंबे समय तक एक साथ काम करते हैं और सावधानी बरतनी होती है। हम इस माहौल में 200-300 करोड़ रुपये की फिल्म की योजना नहीं बना सकते। यही कारण है कि हम ऐसी फिल्में बना रहे हैं जिनका बजट कम हो।'यानी कारोबारी एक दुष्चक्र में फंस गया है जो तभी समाप्त होगा जब शूटिंग और बाहरी शेड्यूल शुरू हो। ऐसा शायद 2022 के अंत में या 2023 में हो। अभी कुछ कहना मुश्किल है कि तब हालात कैसे होंगे। बात केवल बड़े सितारों की नहीं है। यह हजारों लेखकों, तकनीशियनों, सहायक कलाकारों, स्टूडियो में काम करने वालों की भी बात है। हालांकि औद्योगिक संगठन और व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास जारी हैं लेकिन हिंदी, मलयालम, तमिल, बांग्ला आदि अनेक क्षेत्रों के सिनेमा से जुड़े लोग अपना पेशा बदल चुके हैं। कारोबार शायद समाप्त न हो लेकिन संभव है यह अपने पुराने दिनों की छाया भर रह जाए। शेष भारत की तरह उसे भी पुरानी रंगत पाने में कई वर्ष लगेंगे।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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