अजय शाह
यह सही है कि हमारे आसपास स्वास्थ्य संबंधी आपदा आई हुई है लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर जो निराशा जताई जा रही है वह अतिरंजित है। टीकाकरण धीमी गति से हो रहा है लेकिन बीमारी का पूर्वानुभव भी लोगों का बचाव कर रहा है। निर्यात में भी सुधार हो रहा है। डॉलर के संदर्भ में वह महामारी के पहले के स्तर से ज्यादा हो चुका है। कंपनियों के निर्णयकर्ताओं की बात करें तो उनके लिए बेहतरी की राह टीकाकरण और निर्यात से निकलती है।
देश इन दिनों जिस त्रासदी से गुजर रहा है उसे लेकर काफी निराशा का माहौल है। इसके अलावा एक विचार यह भी है कि टीकाकरण ही हालात सामान्य करने की दिशा में इकलौता कदम है इसलिए जिन देशों ने टीकाकरण में प्रगति कर ली है वे दूसरे देशों की तुलना में जल्दी बेहतर स्थिति में आएंगे। इसे एक ऐसी स्थिति के रूप में देखा जा रहा है जहां राज्य की क्षमता (अधिक क्षमता यानी अधिक टीकाकरण) और आर्थिक नतीजों (टीकाकरण से हालात सामान्य होते हैं) में सीधा संबंध है।
यह परिदृश्य भारत को लेकर अतिरिक्त निराशा क्यों पैदा करता है इसकी दो वजह हैं। पहली समस्या है बीमारी के नियंत्रण को टीकाकरण के समकक्ष मानना। परंतु बीमारी के अनुभव से बचाव भी उत्पन्न होता है। प्रतिरोधक क्षमता हासिल करने के दो तरीके हैं: टीके या वायरस के माध्यम से। देश में बहुत बड़ी आबादी ऐसी है जो बीमारी के कारण प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर रही है।
हाल के महीनों में बीमारी बहुत तेजी से फैली है। इसके अलावा टीकाकरण का नीतिगत ढांचा भी बेहतर हो रहा है।
आयात किया जा रहा है और कई राज्य सरकारों ने टीके खरीदने के लिए निविदाएं आमंत्रित की हैं। कई स्थानों पर निजी क्षेत्र में भी टीकाकरण आरंभ है। इन सब में केंद्र सरकार की क्षमता के पूरक के रूप में काफी ऊर्जा लगेगी। इसका लाभ प्रति दिन टीकाकृत होने वाले लोगों की तादाद में इजाफे के रूप में भी नजर आएगा।
वर्तमान की बात करें तो वुहान के मूल वायरस और उससे निपटने के लिए बना एस्ट्राजेनेका का टीका फिलहाल भारत में काफी हद तक सफल नजर आ रहा है। संभव है कि यह प्रतिरोधक क्षमता हमेशा नहीं रहे। वायरस के नए स्वरूप इसे भेद सकते हैं। वायरस का दक्षिण अफ्रीकी स्वरूप एस्ट्राजेनेका टीके के खिलाफ अधिक घातक है। भविष्य में ऐसे बदलते स्वरूप वाले वायरस के लिए बूस्टर खुराक की आवश्यकता हो सकती है। जब भी ऐसा होता है तो हर संस्थान, शहर और राज्य की संस्थागत क्षमता बहुत मायने रखेगी।
शक्ति का दूसरा स्रोत निर्यात मांग में निहित है। फिलहाल भारत में बढ़ी हुई मांग के लिए पर्याप्त राजकोषीय गुंजाइश नहीं है। निजी क्षेत्र का निवेश सन 2007 या 2011 (आकलन के आधार पर) की तुलना में न्यूनतम स्तर पर है। आम परिवारों की खपत भी महामारी, आय से जुड़ी अनिश्चितता और ऋण तक आसान पहुंच नहीं होने के कारण प्रभावित हुई है। महामारी का प्रभाव कम होने के बाद इसमें सुधार होगा। परंतु निर्यात मांग के क्षेत्र में अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन पहले ही बेहतर है।
स्वास्थ्य नीति और राजकोषीय नीति के मोर्चे पर अधिकांश विकसित देशों का प्रदर्शन भारत से बेहतर है। बेहतर स्वास्थ्य नीति के कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षमताएं बीमारी को नियंत्रित रखने में कामयाब रही हैं और टीकाकरण की बेहतर व्यवस्था के कारण आबादी के बड़े हिस्से का टीकाकरण किया जा चुका है। परिपक्व बाजार वाले देशों की राजकोषीय नीति दशकों से मजबूत रही है, यानी वहां सरकारों के पास यह अवसर था कि वे जरूरत पडऩे पर घाटे में विस्तार होने दें। इसकी बुनियाद उन देशोंं ने रखी जिन्होंने दशकों तक मजबूत आर्थिक विचार अपनाया यानी वित्तीय दबाव नहीं अपनाया, दुनिया भर से ऋण लिया, बॉन्ड और करेंसी डेरिवेटिव में आकर्षक कीमत निर्धारण होने दिया, सामान्य दिनों में अधिशेष की स्थिति बनाए रखी, वृहद आर्थिक आंकड़ों को मजबूत रखा और सार्वजनिक ऋण प्रबंधन एजेंसियों से काम लिया। यही वजह है कि कई देश राजकोषीय घाटा बढ़ाकर अपनी खपत मजबूत करने में कामयाब रहे। भारत ऐसा करने की स्थिति में नहीं है। अमेरिका में राजकोषीय प्रोत्साहन दूसरे विश्वयुद्ध की तुलना मेंं भी कहीं बड़ा है।
इस वैश्विक सुधार ने भारत के निर्यात को बल दिया है। अमेरिका में दिसंबर 2020 से मार्च 2021 के बीच हुआ वस्तु आयात महामारी के पहले के स्तर से 4.1 फीसदी अधिक था। इन चार महीनोंं में अमेरिका का भारत से होने वाला आयात 9 फीसदी बढ़ा जबकि चीन से होने वाला आयात 8.2 फीसदी बढ़ा। विशुद्ध मूल्य में देखें तो भारतीय वस्तुओं को अमेरिका को होने वाला निर्यात 5.1 अरब डॉलर मासिक हो गया जबकि महामारी के पहले यह 4.7 अरब डॉलर मासिक था।
भारत के कुल गैर पेट्रोलियम निर्यात की बात करेंं तो जनवरी से अप्रैल 2021 तक यह 26.3 अरब डॉलर मासिक रहा जो महामारी के पहले के 23.4 अरब डॉलर प्रति माह डालर से 12.5 फीसदी अधिक था। सेवा निर्यात का प्रदर्शन भी अच्छा रहा। वर्तमान में भारत के लिए निर्यात क्षेत्र काफी विशिष्टता लिए हुए है। आंकड़ों की बात करें तो वे महामारी के पहले की तुलना में काफी बेहतर स्थिति में है। फिलहाल वैश्वीकरण से भारत का संबंध आर्थिक दृष्टि से काफी अहम है और यह घरेलू कठिनाइयों के समक्ष काफी विविधता पैदा करता है।
जब भी निर्यात का ऑर्डर आता है तो कच्चा माल खरीदा जाता है (जो अक्सर आयात किया जाता है) और उत्पादन होता है। इसके बाद विनिर्मित वस्तु का निर्यात किया जाता है। परिणामस्वरूप जब निर्यात में तेजी आती है तो आयात में होने वाली वृद्धि अक्सर निर्यात वृद्धि से अधिक होती है। आज हमें भारत में ऐसा ही देखने को मिल रहा है और आयात महामारी के पहले की तुलना में 21.4 फीसदी अधिक है। सामान्य तौर पर हम यह नहीं पता कर पाएंगे कि आयात में यह तेजी घरेलू मांग के दम पर है या निर्यात से जुड़े कच्चे माल की बदौलत लेकिन मौजूदा हालात में घरेलू मांग काफी कमजोर है।
भारतीय कंपनियों के नीतिगत विचार के लिए इस दलील के दो निहितार्थ हैं: पहला, हर कंपनी को अपने कर्मचारियों और उनके परिजन का टीकाकरण कराने के प्रयास करने चाहिए। उन्हें अपने ग्राहकों के टीकाकरण के लिए भी कोशिश करनी चाहिए और वायरस के उन प्रारूपों पर नजर रखनी चाहिए जिनके लिए बूस्टर डोज की आवश्यकता होगी। दूसरा, अब वक्त आ गया है कि हम निर्यात बाजार को लेकर प्राथमिकता तैयार करें।
(लेखक स्वतंत्र विश्लेषक हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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