सुनीता नारायण
अप्रैल के शुरुआती सप्ताहों में दिल्ली में जलवायु परिवर्तन को लेकर भारी गतिविधियां देखने को मिलीं। नहीं, मैं जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए उठाए गए कदमों की बात नहीं कर रही हूं। मैं केवल उन तीरों की बात कर रही हूं जो सिर्फ और सिर्फ जबान से छोड़े गए। शून्य उत्सर्जन की घोषणा को लेकर भारत को क्या करना चाहिए अथवा क्या नहीं करना चाहिए, इस विषय में काफी कुछ लिखा जा चुका है। इस विषय पर बंद दरवाजों के पीछे होने वाली बैठकों में काफी चर्चा की जा चुकी है। 22-23 अप्रैल को अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन की जलवायु परिवर्तन शिखर बैठक के पहले अमेरिकी जलवायु दूत जॉन केरी भारत आए थे। वह यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि बैठक के दौरान भारत जलवायु परिवर्तन को लेकर कोई बड़ा कदम उठाने की घोषणा करे। अच्छी खबर यह है कि जलवायु परिवर्तन का मुद्दा एक बार फिर एजेंडे में वापस आ गया है। बुरी खबर यह है कि हम गलत चीजों के बारे में चर्चा कर रहे हैं। एक बार फिर यह खतरा उत्पन्न हो गया है कि कहीं हम जलवायु परिवर्तन से संबंधित कदमों में समता लाने का अवसर गंवा न दें। दिल्ली में हुई बातों पर ही ध्यान दें। वहां इस बात पर चर्चा नहीं हुई कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने या न करने के लिए क्या किया गया। पेरिस में विभिन्न देशों ने ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने के लिए स्वैच्छिक रूप से लक्ष्य तय किए थे। वहां इस बात पर भी चर्चा नहीं हुई कि पेरिस के लक्ष्य कितने असमान और हकीकत से दूर थे। इस विषय पर भी बातचीत नहीं हुई कि जलवायु परिवर्तन की आपदा से बचने के लिए विभिन्न देश उत्सर्जन में कमी के कौन से तरीके अपना रहे हैं। दरअसल वहां मुद्दों पर कोई बात ही नहीं हुई। इसके बजाय पूरी बहस इस बात पर केंद्रित रही कि विभिन्न देश कब अपना उत्सर्जन शून्य कर सकेंगे। सवाल यह था कि क्या भारत को उत्सर्जन शून्य करने की तिथि का पालन करना चाहिए और क्या वह ऐसा कर सकता है?
मैं इन बातों को निरर्थक क्यों कह रही हूं? पहली बात तो यह समझना होगा विभिन्न देशों द्वारा उत्सर्जन शून्य करने के लक्ष्य तय करने की बात में कोई दम नहीं है। यह एक ऐसा विचार अवश्य है जिसकी दिशा में बढऩे का प्रयास किया जा सकता है। व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो ऐसी घोषणा करने वाले तमाम देशों के पास ऐसी कोई योजना नहीं है जिसकी बदौलत वे सन 2050 तक अपना उत्सर्जन शून्य कर सकें। चीन के पास भी ऐसी कोई योजना नहीं कि वह 2060 तक उत्सर्जन समाप्त कर सके। मूल विचार यह है कि उस लक्ष्य के करीब पहुंचा जाए और यह आशा की जाए कि कुछ बड़ी प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल बढ़ाया जाएगा और समय आने पर वे आपूर्ति के लिए तैयार होंगी। दूसरी बात उत्सर्जन को विशुद्घ रूप से समाप्त करने का विचार अपने आप में गलत है। आखिर विभिन्न देश उत्सर्जन को समाप्त कैसे करेंगे? इसके दो ही तरीके हैं: एक पौधे लगाए जाएं ताकि वे उत्सर्जित होने वाली कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण करें और दूसरा कार्बन कैप्चर और स्टोरेज तकनीक की मदद से कार्बन डाइऑक्साइड को वापस जमीन में दफन करना। परंतु इस रुख को लेकर अभी भी कई अनसुलझे सवाल हैं जिनके जवाब तलाशने होंगे। यदि पौधरोपण किया गया तो यह किस पैमाने पर करना होगा इसे लेकर तमाम चुनौतियां हमारे सामने हैं। वहीं कार्बन उत्सर्जन को जमीन में दफनाने की तकनीक के साथ भी दिक्कत हैं।
कम से कम आज इन्हें वास्तविक विकल्प बताना किसी घोटाले से कम नहीं। आप कह सकते हैं कि ये तथाकथित तकनीक भविष्य में सामने आएंगी और हमें इन्हें आज नकारना नहीं चाहिए। मैं कहूंगी हां, लेकिन ये अभी तकनीक अभी प्रायोगिक स्थिति में हैं और इन पर निर्भरता हमारा ध्यान वर्तमान में उठाए जाने वाले जरूरी कदमों से हटा देगी। हमारी चर्चा का विषय यह होना चाहिए।
तीसरी बात, शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य प्राप्त करना सहज रूप से न्याय संगत नहीं है। जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने कहा था कि वैश्विक स्तर पर मानवजनित उत्सर्जन को 2030 तक 2010 के स्तर से 45 प्रतिशत तक कम करना होगा और 2050 तक उत्सर्जन को शून्य करना होगा।
चूंकि पुराने विकसित देशों और नए विकसित चीन तथा शेष विश्व के उत्सर्जन स्तर में बहुत अधिक अंतर है। ऐसे में यही कहना उचित होगा कि अगर सन 2050 तक उत्सर्जन शून्य करना है तो इन देशों को अभी या 2030 तक ही अपना उत्सर्जन समाप्त करना होगा। यदि ऐसा होता है तभी भारत जैसे देशों के लिए 2050 तक शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य तय किया जा सकता है। गौरतलब है कि भारत ऐतिहासिक रूप से भी और वर्तमान में भी उत्सर्जन स्तर के क्षेत्र में नीचे है।
आज के परिदृश्य में भारत को क्या करना चाहिए या वह क्या कर सकता है? क्या उत्सर्जन मुक्ति के लिए 2070 तक का लक्ष्य तय किया जाए? यानी अमेरिका और यूरोप के 20 साल बाद और चीन के 10 वर्ष बाद। इसका क्या अर्थ होगा? अच्छा है कि बाइडन शून्य उत्सर्जन के झांसे में नहीं आए। बैठक में उन्होंने कहा कि अमेरिका 2030 तक 2005 के उत्सर्जन स्तर में 50-52 फीसदी की कमी करेगा। यह बड़ा बदलाव है क्योंकि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अमेरिका को अपनी अर्थव्यवस्था में कई अहम बदलाव करने होंगे। सन 2019 में अमेरिका का ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन 2016 के अंत की तुलना मेंं अधिक था और 2020 में उत्सर्जन में 10 फीसदी कमी आई तो वह कोविड-19 महामारी के कारण थी। हालात सामान्य होते ही उत्सर्जन फिर बढ़ेगा। ऐसे में अमेरिका की कमी की यह योजना महत्त्वाकांक्षी है। अमेरिका ने 2030 का जो लक्ष्य तय किया है वह भारत समेत शेष विश्व पर पहल करने का दबाव डालेगा। इसके बाद हम यह चर्चा करेंगे कि जलवायु परिवर्तन की चुनौती को लेकर हमें शेष विश्व के साथ किस प्रकार सहयोग करना है।
(लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट से संबद्ध हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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