के पी कृष्णन
सन 1748 में फ्रांसीसी दार्शनिक मॉन्टेक्यू ने सरकार के एक स्वरूप का प्रस्ताव रखा जिसमें अधिकार और शक्तियां अत्यधिक संकेंद्रित नहीं थे। विधायिका यह बताती है कि विधि मेंं कौन सी बातें प्रतिबंधित हैं। कार्यपालिका कानून का पालन सुनिश्चित करती है, उल्लंघन के मामलों की जांच करती है और मामले चलाती है। न्यायपालिका यह तय करती है कि आरोपित व्यक्ति दोषी है या नहीं। सरकार की इन तीनों शाखाओं को अलग-अलग रखने से संतुलन बना रहता है और अधिकांश उदार लोकतांत्रिक देशों में यही व्यवस्था दिखती है। शक्तियों का विभाजन हमारे संविधान निर्माताओं के विचार का भी हिस्सा रहा और यह हमारे संविधान का अनिवार्य अंग है।
हालांकि देश की कुछ संस्थाएं ऐसी हैं जो स्वयं कानून बनाती हैं, जांच करती हैं और दंड भी देती हैं। यह देश के लोगों के लिए एक नए स्तर का खतरा है और संवैधानिक व्यवस्था को लेकर एक नई चिंता पेश करती है।
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) भी एक सांविधिक संस्था है जिसका गठन सन 1992 में किया गया था। सेबी न केवल प्रतिभूति बाजार के लिए नियम बनाती है और उन्हें लागू कराती है बल्कि बाजार प्रतिभागियों को उससे प्रमाणन हासिल करना होता है और सेबी को यह अधिकार है कि वह उल्लिखित गलतियों के लिए कंपनियों का पंजीयन रद्द कर सके या उसे निलंबित कर सके। ऐसे में सेबी को नियमन केे रूप में कानून बनाने, जांच के रूप में कार्यपालिका का काम करने और दंडित करने के रूप में न्यायपालिका की शक्तियां तीनों हासिल हैं।
जब दंड की व्यवस्था में केवल दो ही विकल्प हों: कुछ भी नहीं करना या कुछ ऐसा करना जो मृत्युदंड के समान हो (पंजीयन रद्द करना), तो अनुपालन के लिए प्रोत्साहित कर पाना मुश्किल होता है। ऐसा महसूस किया गया कि मौद्रिक जुर्माना दंड के रूप में कहीं अधिक मुफीद तरीका है। इसी प्रकार सन 1995 में सेबी अधिनियम में एक बड़ा बदलाव संसद में पारित किया गया। इसके तहत सेबी की निगरानी वाले कानूनों में दो किस्म के प्रावधान जोड़े गए।
इनमें पहला था एक नए भाग को शामिल करना। इस भाग में कुछ आपात स्थितियों का ब्योरा दिया गया और सेबी के एक वरिष्ठ अधिकारी को निर्णयकर्ता बनाया गया ताकि वह जांच करके निर्णय सुना सके और जरूरी लगने पर मौद्रिक जुर्माना लगा सके। दूसरा भाग कुछ ऐसे प्रावधान लाने वाला था जहां सेबी जरूरी जांच परख करने के बाद प्रतिभूति बाजार से जुड़े किसी भी व्यक्ति को लेकर निर्देश जारी कर सकता था। ये निर्देश प्रतिभूति बाजार की किसी मध्यस्थ कंपनी के समुचित प्रबंधन से जुड़े भी हो सकते थे या फिर निवेशकों के हित में अथवा प्रतिभूति बाजार के व्यवस्थित विकास से संबंधित थी। इन संशोधनों ने औपचारिक रूप से सेबी को दीवानी अदालत के अधिकार दे दिए। निवेशकों के हित जैसी बातें परिभाषित नहीं हैं इसलिए इस संशोधन ने सेबी के अधिकारों को अचानक बढ़ा दिया। सन 2002 और 2014 में हुए आगे के संशोधनों ने सेबी का दायरा ऐसे लोगों तक बढ़ा दिया जो बाजार से जुड़े मध्यस्थ नहीं थे बल्कि प्रतिभूति बाजारों से संबद्ध थे। इसके अलावा सेबी को एकपक्षीय निर्णय देने का अधिकार भी दे दिया गया।
इन संशोधनों ने जहां सेबी को अधिकार संपन्न बनाया, वहीं यह उस परंपरावादी रुख के विपरीत है जहां स्वतंत्र न्यायपालिका निष्पक्षता और समुचित प्रक्रिया की एक अनिवार्य जरूरत है। एक सेबी अधिकारी अगर किसी अन्य सेबी अधिकारी के निष्कर्षों का आकलन करता है तो यह इस सिद्धांत का सीधा उल्लंघन है जिसके तहत किसी व्यक्ति या संस्थान को अपने मामले की जांच नहीं करनी चाहिए। सेबी का एक अधिकारी जिसके पास आज कार्यकारी भूमिका है वह आने वाले कल मेंं निर्णयकर्ता अधिकारी बन सकता है और अगले दिन उसकी भूमिका कार्यपालक की हो सकती है। दुनिया के अन्य देशों में ऐसा नहीं होता।
सेबी की मौजूदा व्यवस्था के पक्ष में दी जा रही दलीलें इस विचार पर आधारित हैं कि प्रतिभूति बाजार अत्यधिक जटिल हैं और इन मामलों का निर्णय देने के लिए विशिष्ट जानकारी की आवश्यकता होती है और इन्हें बाहरी न्यायाधीशों के समक्ष पेश नहीं किया जा सकता। इन प्रावधानों के तहत सेबी ने अब तक 20,000 निर्णय दिए हैं।
आंकड़ों के अभाव में यह अनुमान लगाया गया है कि प्रवर्तन संबंधी आदेश शिकायत के तीन वर्ष के भीतर जारी किए गए और हालिया समय में इस अवधि में और भी कमी आई है। येस बैंक मामले में निर्णय शिकायत किए जाने के 13 महीने के भीतर आ गया। हालांकि यह ऑर्डर ऐसे कथित कदमों के बारे में है जो वर्षों पहले लिए गए थे।
हाल के समय मेंं सेबी ने कुछ महत्त्वपूर्ण प्रक्रियात्मक सुधार किए हैं। सेबी के करीब 10 वरिष्ठ अधिकारी पूर्णकालिक रूप से निर्णयकर्ता अधिकारी हैं। उनके पास मामलों के निर्णय लेने के लिए समुचित मशीनरी भी है। यह सही है कि ये अधिकारी अपने करियर के बाद के दिनों में दोबारा कार्याधिकारी बन सकते हैं परंतु मौजूदा अलगाव भी एक तरह से शक्तियों के विभाजन की शुरुआत है। प्रतिभूति बाजारों के नियमन में 15 वर्ष से अधिक का समय व्यतीत करने वाले ऐसे अधिकारियों से यही आशा की जाती है कि वे कुछ विशेषज्ञता, संतुलन और न्यायिक समझ लाएंगे। कई अन्य नियामक जहां केवल दंड व्यवस्था देने पर प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हैं, वहीं सेबी के हर आदेश को जारी करने के दिन ही वेबसाइट पर डाला जाता है और इसकी वजह भी देनी होती है क्योंकि इसे लेकर प्रतिभूति अपील पंचाट में अपील करने का सांविधिक अधिकार सुरक्षित रहता है। हालिया आदेश ऐसे हैं जिन्हें मशीन के जरिये पढ़ा जा सकता है और सेबी शोधकर्ताओं के साथ मिलकर अपने डेटा को परीक्षण और शोध के लिए उपलब्ध कराने पर काम कर रही है।
सेबी पारदर्शिता और सक्षमता के नजरिये से अपनी स्थिति सुधार रहा है। वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग की सिफारिशों की मदद से प्रभावी नियामक की भूमिका को विधि के अनुरूप और संवैधानिक नैतिकता के साथ सामंजस्य वाला बनाया जा सकता है। यह बात याद रखना अहम है कि अब से करीब एक दशक पहले सर्वोच्च न्यायालय ने यह चेतावनी दी थी कि एक ही संस्था मेंं विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शक्तियों को एकजुट करना भविष्य में सार्वजनिक विधि को लेकर कई चिंताओं की वजह बन सकता है। क्योंकि शक्ति विभाजन के सिद्धांत में एक संस्था का दूसरे पर नियंत्रण रखने की बात ही सबसे अहम थी।
(लेखक भारत सरकार के सेवानिवृत्त सचिव हैं। वर्तमान में वह एनसीएईआर में प्राध्यापक और श्रीराम कैपिटल के गैर-कार्यकारी चेयरमैन हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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