जीत लिया बंगाल: बड़ी है ममता बनर्जी की जीत
(अमर उजाला)
नीरजा चौधरी
चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के चुनावों के नतीजे ज्यादा चौंकाने वाले नहीं हैं। दिलचस्प बात यह है कि तीन राज्यों केरल, पश्चिम बंगाल और असम में सत्ताधारी पार्टियों को जीत मिली है। सामान्यतः यह होता नहीं है, लेकिन तीनों राज्यों में जीत के कारण अलग अलग हैं। तमिलनाडु में द्रमुक आगे है, वहां बदलाव आया है। लेकिन वहां भी अन्नाद्रमुक को लेकर जो बातें सामने आ रही थीं, वह उस तरह से नहीं पिछड़ी है। क्योंकि पिछले दस वर्ष से वह सत्ता में थी और पहली बार वह जयललिता के बिना चुनाव लड़ रही थी। पुडुचेरी में भी बदलाव आया है। इन चुनावों में कोविड की स्थितियों की भूमिका रही है।
क्योंकि पिछले 14-15 महीनों से देश विषम परिस्थितियों का सामना कर रहा है। लोग बीमार हैं, मौतें हो रही हैं। किस तरह से सरकारों ने कोविड का सामना किया है, यह मुद्दा मतदाता के मन में था। चूंकि केरल में सत्ता की अदला-बदली होती है। ऐसे में, पिनरई विजयन के नेतृत्व में सत्तारूढ़ एलडीएफ का दूसरी बार जीतना मायने रखता है। विजयन पर भरोसा दिखाने के पीछे वजह यह है कि वह मजबूती से कोविड की स्थितियों से निपटे हैं। जब पूरे देश में ऑक्सीजन के लिए हाहाकार मचा है, तब केरल इकलौता राज्य है, जहां ऑक्सीजन की कमी महसूस नहीं की गई।
ऐसे ही असम में भाजपा ने दोबारा वापसी की है। असम में कांग्रेस वापसी कर सकती थी, लेकिन वह भाजपा को मात नहीं दे सकी। उसने आठ पार्टियों के साथ गठबंधन भी किया। सीएए जरूर एक मुद्दा था, एनआरसी से हुई परेशानियों से लोग नाराज थे। इसकी वजह से बंगाली हिंदुओं और असमियों में भी एक चिढ़ थी। लेकिन भाजपा वह नाराजगी दूर करने में कामयाब रही। वहां एक अहम मुद्दा नेतृत्व का रहा है, जिसने निर्णायक भूमिका निभाई। भाजपा में स्वास्थ्य मंत्री हेमंत विस्व सरमा जैसे नेता थे, जिन्होंने कोविड की शुरुआत में जो चीजें लागू कीं, उनकी चर्चा हुई। जबकि कांग्रेस की ओर से नेतृत्व का चेहरा न होना और अनेक पार्टियों के गठबंधन ने असर डाला। एआईयूडीएफ का, जिससे कांग्रेस ने गठबंधन किया है, बराक घाटी और लोअर असम में उसका असर दिखा है। अगर कांग्रेस दो साल पहले से तैयारी शुरू कर देती, तो उसके पास वापसी का अवसर था। हालांकि तरुण गोगोई के न होने का कांग्रेस को नुकसान हुआ। इसके बावजूद असम में एक जमीन तैयार थी, कांग्रेस जिसका फायदा पूरी तरह से नहीं उठा पाई।
इन चुनावों में सबकी नजरें पश्चिम बंगाल पर थीं। भाजपा ने अपने चुनाव अभियानों से अलग ही हवा बना दी थी। जैसे कि प्रधानमंत्री, गृहमंत्री का दर्जनों रैलियां करना, मंत्रियों का जमावड़ा होना यह इंगित करता है कि भाजपा पूरी फौज के साथ बंगाल में ममता को मात देने उतरी थी। बेशक 2016 से तुलना करें, तो भाजपा का प्रदर्शन बेहतर है, लेकिन 2019 के मुकाबले उसने काफी कुछ खोया है, क्योंकि 2019 का उसका आंकड़ा 121 विधानसभा सीटों के बराबर था। इसके बावजूद अब वहां भाजपा मुख्य विपक्षी पार्टी होगी, क्योंकि माकपा और कांग्रेस का तो सफाया हो गया। जो पुरानी कांग्रेस हुआ करती थी, उसकी जगह अब ममता बनर्जी ने ले ली है। और लेफ्ट का जो वोट हुआ करता था, जिसका बहुत बड़ा तबका 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की ओर गया था, लगता है इस बार भी गया है। ऐसा लग रहा है कि पहले जो मुस्लिम तबका बंट जाता था, इस बार एकत्रित है और एकतरफा तृणमूल को गया है, इसलिए ममता को शानदार जीत हासिल हुई है।
तमिलनाडु का नतीजा अपेक्षित ही है, क्योंकि स्टालिन पिछली बार भी जीतते-जीतते बचे थे। लेकिन जो अभी दिख रहा है, लोग उससे ज्यादा की अपेक्षा में थे। इसका भी एक कारण है कि पलानीस्वामी ने स्थितियों का बेहतर प्रबंधन किया है। वह हार भले गए हैं, लेकिन बुरी तरह नहीं हारे हैं। कोविड की स्थितियों को उन्होंने संभाला है। शशिकला को पार्टी से बाहर रखना, पन्नीरसेल्वम से दोस्ती करना आसान नहीं था। कुछ लोगों को यह पसंद आया, लेकिन बदलाव की लहर से स्टालिन को फायदा हुआ। एक और कारण है कि जो वनियार समुदाय को आरक्षण दिया गया, उसका काउंटर रिएक्शन हुआ। बाकि जातियों का भी
एकजुट होना द्रमुक के पक्ष में गया।
ये नतीजे राष्ट्रीय राजनीति और विपक्ष पर असर डालेंगे। इससे विपक्षी पार्टियों में नई जान आएगी। ममता बनर्जी ने इस चुनाव में कठिन संघर्ष किया और जीत हासिल की, तो विपक्षी पार्टियों के लिए यह सबक है। ममता का नंदीग्राम से लड़ना जोखिम भरा फैसला था, क्योंकि नंदीग्राम का इलाका उन्होंने शुभेंदु अधिकारी को सौंपा था। पार्टी को खड़ा करने और लड़ने का काम उन्होंने अधिकारी परिवार को ही दे रखा था। लेकिन स्थितियां ऐसी बदली हैं कि पश्चिम बंगाल के कई इलाकों में यह आशंका बन गई कि बंगाल की संस्कृति खत्म हो जाएगी। आउटसाइडर, इनसाइडर की बहस, ममता को चोट लगा जाना- ये सब भावनात्मक लड़ाई में तब्दील हो गया, इसके सामने कट मनी और भ्रष्टाचार के मुद्दे गौण हो गए। भावनाएं बंगाल के लोगों को बहुत प्रभावित करती हैं, तृणमूल को इसी का फायदा मिला है।
जोखिम उठाकर लड़ने और जीतने के बाद विपक्षी पार्टियों की राजनीति में ममता बनर्जी का कद बड़ा हो गया है। यह विपक्षी पार्टियों के लिए सबक है कि वे भी लड़कर जीत सकती हैं। और जैसा कि ममता ने रैलियों में कहा था कि कि वह दिल्ली की तरफ नजरें करेंगी, मुझे लगता है कि वह विपक्षी एकता की पहल करने वाली हैं। उन्होंने सोनिया गांधी से भी मदद मांगी थी, यह भी एक कारण है कि बंगाल में कांग्रेस नरम पड़ गई। केरल में माकपा, तमिलनाडु में द्रमुक और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के होने से कहीं न कहीं विपक्षी एकता की ओर कदम बढ़ेंगे।
कांग्रेस के लिए राज्यों के चुनावी नतीजे बुरी खबर की तरह हैं। पश्चिम बंगाल, केरल, असम और पुडुचेरी में उसकी हार हुई, तमिलनाडु ही उनका पुरस्कार है। ये चुनावी नतीजे कांग्रेस के लिए चिंताजनक हैं। इसका असर राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष बनने पर होगा या नहीं, वह पार्टी अध्यक्ष के चुनाव में खड़े होंगे या सोनिया गांधी ही पार्टी का नेतृत्व करेंगी, इन सवालों के जवाब तो आने वाले दिनों में ही मिलेंगे।
सौजन्य - अमर उजाला।
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