मनीषा प्रियम
Published by: मनीषा प्रियम
कोरोना महामारी जैसी भयानक मानवीय त्रासदी की पृष्ठभमि में चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे बहुत कुछ कहते हैं। चुनावी नतीजों में एक बात स्पष्ट है कि सभी राज्यों में क्षेत्रीय क्षत्रप नेता अनुभवी हैं और पार्टी की अगुआई करते हैं, तो विधानसभा चुनाव में जनता स्थानीय नेतृत्व का ही चयन करती है। जैसे कि केरल में चार दशक से भी पुरानी राजनीतिक परंपरा उलट-पुलट गई है और पिनरई विजयन के नेतृत्व में वामपंथी गठबंधन एलडीएफ दोबारा सत्ता में आया है। जबकि वहां की राजनीतिक परंपरा यह रही है कि हर पांच साल पर वहां सत्ता एलडीएफ और यूडीएफ के बीच पलटती रहती है। हालांकि कोरोना से निपटने में मीडिया द्वारा केरल की चर्चा न के बराबर होती है, पर वहां की स्वास्थ्य मंत्री टीचर शैलजा ने कोरोना की पहली लहर के दौरान भी जबर्दस्त काम किया था और इस बार भी केरल सरकार ने जी-तोड़ मेहनत कर न केवल स्वास्थ्य व्यवस्था को बेहतर बनाया है, बल्कि जरूरतमंदों को खाद्यान्न सामग्री का किट भी भेजा। राज्य मशीनरी पूरी तरह से आपदा प्रबंधन में जुटी हुई है। इन सबका फायदा एलडीएफ को चुनाव में मिला है।
यूडीएफ एलडीएफ के मुकाबले लगभग आधे के आंकड़े पर सिमट गया है। उधर भाजपा ने मेट्रोमैन श्रीधरन को मैदान में उतारा, सबरीमला जैसे मुद्दे को उछाला, पर तमाम कोशिशों के बावजूद वह वहां कुछ खास नहीं कर पाई। तमिलनाडु में एम के स्टालिन के नेतृत्व में द्रमुक ने भी सत्ता में शानदार वापसी की है। स्टालिन ने पारिवारिक झगड़े को किनारे रख अपनी बढ़त बनाई, जबकि अन्नाद्रमुक में मुख्यमंत्री पलानीस्वामी और पार्टी के दूसरे प्रमुख नेता पन्नीरसेलवम के बीच आपसी मतभेद भी खुलकर सामने आ गए थे। जयललिता की करीबी शशिकला को दरकिनार करने का पूरा षड्यंत्र भी रचा गया। स्पष्ट है कि दक्षिण के दोनों राज्य-केरल और तमिलनाडु में अब भाजपा को जबर्दस्त जवाब देने वाले मुख्यमंत्री होंगे।
जहां तक असम की बात है, तो भाजपा ने सर्वानंद सोनोवाल एवं हेमंत विस्व सरमा के नेतृत्व में फिर से राज्य की सत्ता में वापसी की है। हालांकि ऐसी चर्चा थी कि असम में वोट का बंटवारा अपर असम और लोअर असम के तौर पर होगा। जहां ब्रह्मपुत्र की घाटी में अहमिया अस्मिता का वर्चस्व रहेगा, वहीं लोअर असम में कांग्रेस और बदरुद्दीन अजमल की पार्टी का गठबंधन अच्छी बढ़त बनाएगा। कुछ लोग तो यह भी कहते थे कि असम में कहीं इस बार गठबंधन सरकार बनाने की नौबत न आ जाए। कांग्रेस के प्रचार अभियान की बागडोर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश सिंह बघेल के हाथों में थी। पर भाजपा सत्ता बचाने में कामयाब रही। जबकि कांग्रेस सभी राज्यों में पूरी तरह विफल रही है।
पश्चिम बंगाल में भाजपा ने ममता बनर्जी को घेरने की तमाम कोशिशें कीं, यहां तक कि उनके खिलाफ व्यक्तिगत टिप्पणी भी की गई, जिसे बंगाल के साथ-साथ संस्कृति और महिला अस्मिता पर भी आघात माना गया। पर कड़े संघर्ष के बाद तृणमूल कांग्रेस ने लगातार तीसरी बार विजय हासिल की है। भाजपा ने चुनावी माहौल कुछ ऐसा बना दिया था कि लगता था कि यह प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की 'आसोल परिवर्तन' की निजी लड़ाई है। भाजपा ने 'सोनार बांग्ला' बनाने के नारे के साथ अपने कई केंद्रीय मंत्रियों और कुछ फिल्म अभिनेत्रियों को भी चुनावी मैदान में उतारा। इसके अलावा तृणमूल के कई कद्दावर नेताओं को तोड़कर अपनी
पार्टी में लाया, पर यह सब कारगर नहीं हुआ। चुनाव में ममता की व्यक्तिगत छवि और उनकी कल्याणकारी योजनाओं का पलड़ा ही भारी रहा। वामपंथी दल और कांग्रेस गठबंधन का तो राज्य में सूपड़ा ही साफ हो गया।
मतदाताओं ने अपने बुनियादी मुद्दों पर, सरकारी की खूबियों और खामियों पर और स्थानीय राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की नुक्ताचीनी को देखते हुए सोच-समझ कर अपना मत डाला है। आने वाले दिनों में राजनीतिक उथल-पुथल होना अवश्यंभावी है और ममता बनर्जी के नेतृत्व में तीसरे घटक के रूप में मुख्यमंत्रियों का एक महत्वपूर्ण समूह उभरेगा।
सौजन्य - अमर उजाला।
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