उमेश चतुर्वेदी
अब स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी मान लिया है कि गांवों में तेजी से कोरोना फैल रहा है। मंत्रालय के नौ मई तक के आंकड़ों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में रोजाना गांवों से 27,161, उत्तराखंड में 4,445, हिमाचल में 3,847 और जम्मू-कश्मीर में 4,778 कोरोना के मरीज आ रहे हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति राजस्थान, बिहार, तमिलनाडु, ओडिशा, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक आदि की भी है। भारतीय गांवों की स्वास्थ्य व्यवस्था का जो हाल है, वह किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में सरकारों और समाज के सामने चुनौती बढ़ गई है कि देश की साठ फीसद आबादी को किस तरह स्वस्थ रखा जा सके और वहां मौतों की दरें नियंत्रित की जा सकें।
हाल ही में उत्तर प्रदेश के गाजीपुर और बलिया के साथ ही बिहार के बक्सर से गंगा में भारी पैमाने पर बहती लाशों के हृदयद्रावक समाचार आए थे। साफ है कि इनमें से ज्यादातर शव उन लोगों के थे, जिन्हें महामारी ने निगल लिया। बुखार और सर्दी-खांसी को वे सामान्य मानते रहे और उनकी दुनिया ही खत्म हो गई। आजादी के सत्तर सालों में अब तक गांवों की स्वास्थ्य सेवा स्थानीय स्तर पर प्रैक्टिस करने वाले रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर, अधपढ़े बंगाली डॉक्टर या किसी डॉक्टर के यहां दो-चार साल कंपाउंडरी करने के बाद खुद की दुकान लगाकर बैठे डॉक्टरों के जिम्मे है। गांव वालों की जान बचाने वाले इन डॉक्टरों को मीडिया ने 'झोला-छाप' नाम दे रखा है। इनके खिलाफ आए दिन कार्रवाई भी की जाती है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन भी इनके खिलाफ अभियान चलाता है। जिसे वे मीडिया कर्मी भी लपक लेते हैं, जो खुद गांवों से आए हैं और उन्हें पता है कि अगर ये कथित डॉक्टर न रहें, तो गांव वालों को सामान्य इलाज तक नहीं मिल सकता।
सवाल यह है कि अब तक इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने गांव वालों के इलाज के लिए क्या डॉक्टरों के लिए ऐसी कोई आचार संहिता बनाई है? हकीकत तो यह है कि ब्लॉक या क्षेत्रीय स्तर पर जो अस्पताल सरकारों ने बनवाए भी हैं, उनमें तैनात डॉक्टर अक्सर गायब रहते हैं। वे जिला मुख्यालयों पर ही रहना पसंद करते हैं। ऐसे में अंदाज ही लगाया जा सकता है कि गांवों की स्थिति कैसी होने जा रही है? गांवों से आ रहे समाचारों के मुताबिक, अब भी वहां जांच का मुकम्मल तो छोड़िये, सामान्य इंतजाम नहीं है। लोगों को बुनियादी इलाज के लिए स्थानीय दवा दुकानों पर निर्भर रहना पड़ रहा है। लेकिन दवा कारोबार में जिस तरह की धांधली है, उसकी वजह से ज्यादातर दुकानों पर सही दवाएं उपलब्ध नहीं हैं या अगर हैं भी तो मनमानी कीमतों पर हैं।
ऐसे में सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड जैसे पिछड़े राज्यों के गांव वाले कहां जाएं। अव्वल तो होना यह चाहिए कि लक्षण आधारित इलाज के लिए जेनरिक दवाओं की किट सरकारें घर-घर बंटवाएं। सरकारों को स्थानीय स्तर पर लाउड स्पीकर आदि के जरिये लक्षणों की जानकारी देने का भी इंतजाम करना चाहिए, ताकि लोग जान सकें कि जिस सर्दी-खांसी और बुखार को वे सामान्य समझ रहे हैं, वे कितने खतरनाक हैं। नीति आयोग के स्वास्थ्य मामलों की समिति कह भी रही है कि जांच रिपोर्ट का इंतजार करने के बजाय लोगों के इलाज पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। कोरोना के दौर में ऑक्सीजन की कमी आदि को लेकर देश के तमाम हाई कोर्ट में रोजाना सुनवाई हो रही है। सुप्रीम कोर्ट भी ऐसे मामलों को देख रहा है। लेकिन यह हैरत की बात है कि पूरी सुनवाई करीब 30 करोड़ उन नागरिकों की सुविधाओं को लेकर हो रही है, जो शहरों में रहते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में गांव कहीं लापता है।
सवाल यह उठ सकता है कि आखिर इन कामों को अंजाम कौन देगा? निश्चित तौर पर सरकारी मशीनरी की यह जिम्मेदारी है। इस कार्य में स्थानीय स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ ही ग्राम पंचायतों के जिम्मेदार लोगों को भी जवाबदेही तय की जा सकती है। इसमें विपक्षी राजनीतिक तंत्र की भी सहायता ली जा सकती है। जो सरकारी मशीनरी वक्त पर सही तरीके से चुनाव करा सकती है, वह घर-घर तक दवा भी बंटवा सकती है। सरकारों को इन तरीकों को फौरी और युद्ध स्तर पर अमल में लाना होगा, अन्यथा गांवों की हालत खराब होने से कोई नहीं रोक सकता।
सौजन्य - अमर उजाला।
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