प्रतिम व्यक्तित्व सुंदरलाल बहुगुणा के निधन से हमने ऐसे एक व्यक्ति को खोया है, जिसे हम अपने बीच में आखिरी गांधी की उपस्थिति के रूप में देख सकते थे. हमने उन्हें जितना भी जाना, आज के दौर में गांधी कहीं देखे या खोजे जा सकते थे, तो बहुगुणा जी ही थे. उनकी कथनी और करनी में कभी भी कोई अंतर नहीं होता था. उनमें न कोई आडंबर था, न ही कोई बनावट थी. जैसे वे बाहर दिखाते थे, वैसे ही वे भीतर भी थे. मेरे साथ वे तीन-चार साल रहे थे मेरे आश्रम में, जहां मैं रहता हूं.
मैंने उनकी सुबहें भी देखी, दोपहर, शामें और रातें भी. मैं जो कहने की कोशिश कर रहा हूं, वह यह है कि जिसे आप सरलता की पराकाष्ठा कह सकते हैं, वह उनमें थी. इसे व्यक्तित्व में आत्मसात करना बहुत कठिन होता है. आज दुनिया में जो सबसे कठिन काम है, वह सरल रहना ही है. यह सरलता ही बहुगुणा जी का व्यक्तित्व और व्यवहार थी. उन्हें कभी किसी भौतिक सुख की चाह कभी भी नहीं रही, बल्कि वे किसी भी तरह की वैसी सुविधा से कतराते थे, जिसके बारे में उन्हें लगता था कि उसकी कोई आवश्यकता नहीं है.
सत्तर के दशक में जो ‘चिपको आंदोलन’ शुरू हुआ, उसकी जो अंतरराष्ट्रीय छाप एवं छवि बनी, उसमें सुंदरलाल बहुगुणा की अहम भूमिका रही. हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सत्तर के दशक में प्रकृति और पर्यावरण तथा इनसे संबंधित विषयों का कहीं उल्लेख तक नहीं था. बहुगुणा और उनके साथी आंदोलनकारी वे लोग थे, जिन्होंने धरती के लिए इस महत्वपूर्ण मामले को विश्व पटल पर मानवता के समक्ष रखा. इन्हीं प्रयासों के परिणामस्वरूप कृषि दिवस, पर्यावरण दिवस, पृथ्वी दिवस, जैव-विविधता दिवस आदि जैसी अवधारणाएं सामने आयीं.
पर्यावरण को लेकर जो भी गतिविधियां और कोशिशें शुरू हुईं, वे सब उस भावना का प्रभाव थीं कि प्रकृति के प्रति हम सभी को संवेदनशील हो जाना चाहिए. फिर भी, मेरी दृष्टि में बहुगुणा जी का व्यक्तित्व ‘चिपको आंदोलन’ से बहुत ऊपर देखता हूं. टिहरी बांध निर्माण के विरुद्ध आंदोलन हो, शराबबंदी के लिए अभियान हो, टिहरी राज के दौर में जो उनकी सक्रियता रही, ऐसी परिघटनाओं में जब हम उनकी भूमिका को देखते हैं, तो हमें एक बड़ा वैचारिक व्यक्तित्व दिखायी पड़ता है.
आपको मेरी बात से आश्चर्य हो सकता है, लेकिन उनके साथ कोई भी बात आप करें, चाहे वह घर की हो या और कुछ, बहुगुणा जी घुमा-फिराकर वहीं पहुंच जाते थे, जो प्रकृति और पर्यावरण के मामलों से संदर्भित होता था. इस बात को आप उस किसी भी व्यक्ति से जान सकते हैं, जो उनके निकट रहा हो. उनकी सोच और उनके कर्म में प्रकृति, नदियां, वन आदि ही सदैव केंद्र में रहे.
मैंने अपने जीवन में जो भी कुछ काम किया है, उसमें जो धार आयी, वह बहुगुणा जी की समझ की वजह से ही आ सकी. मैं बहुत से सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों से परिचित हूं, लेकिन वे इन सबमें अद्भुत थे. मैंने प्रकृति और पर्यावरण के मुद्दों पर जागृति के लिए तीन बार साइकिल से भारत भ्रमण किया है. मैं जब भी चाहे केरल, तमिलनाडु, बिहार या और कहीं रहा हूं, मैंने किसी भी समूह में जब भी सुंदरलाल बहुगुणा का नाम लिया, तो सभी उनके नाम से परिचित मिले.
इतनी बड़ी पहचान, मैं आपसे कह रहा हूं, इस संदर्भ में किसी और की नहीं देखी है. उनकी शैली यह थी कि वे अपनी पोटली उठाते थे और चल देते थे. वे अपनी पोटली को भी किसी और के कंधे पर नहीं रखने देते थे. वे कहते थे कि अपना श्रम स्वयं करना चाहिए. इन्हीं बातों ने उस व्यक्ति को अनोखा और अद्भुत भी बनाया. हम आम तौर पर दो तरह का व्यक्तित्व रखते हैं- एक समाज के लिए और दूसरा घर के कोने के लिए. उनमें यह बात नहीं थी.
कई मामलों में वे मुझे टोकते भी थे कि ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए. मैंने उनके साथ कभी काम नहीं किया, पर मेरे मन में हमेशा उनके प्रति श्रद्धा रही. अच्छा यही रहता है कि किसी ने ऐसे व्यक्ति के साथ काम नहीं किया हो और वह उसका अनुयायी हो क्योंकि उस व्यक्ति के अपने अनुभव होते हैं तथा वह उस आदर्श के साथ उनको टटोलता है. इससे बेहतर विश्लेषण की स्थिति बनती है. साल 2009 में उनके जन्मदिन पर हमने बिना किसी आडंबर के उनके नाम पर सुंदर वन की स्थापना की.
यह उस जगह है, जहां मेरा आश्रम है. इसका पहला वृक्ष सुंदरलाल बहुगुणा ने ही लगाया था. मैं अपने और अपने संगठन के कर्म में उनके विचारों को हमेशा केंद्र में रखता आया हूं और आगे भी ऐसा ही होगा क्योंकि यही सबसे अच्छा रास्ता है. उन्होंने जो स्थापित किया है. उसे कोई चुनौती नहीं दे सकता है. आज या आनेवाले समय में जब भी चर्चाएं होंगी, आंदोलन होंगे या यात्राएं होंगी, मेरे द्वारा हों या मेरे समकक्ष मित्रों द्वारा हों, हम सब उनके विचारों का वाहक बनेंगे. सुंदरलाल बहुगुणा के लिए घर, परिवार, मित्र या संबंधी नहीं, बल्कि उनका काम ही हमेशा महत्वपूर्ण रहा था.
सौजन्य - प्रभात खबर।
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