By प्रो पीआर कुमारस्वामी
पश्चिम एशिया में इजरायल और फिलीस्तीनियों के बीच तनाव पिछले कुछ समय से बढ़ता हुआ दिख रहा था. इसी तरह का तनाव फिलीस्तीनी समूहों- फतह और हमास- के बीच तथा फिलीस्तीनियों और व्यापक अरब दुनिया के बीच बढ़ रहा था. माहौल पूरा तनावपूर्ण था. किसी एक पक्ष ने जरा सी कोई हरकत की और मामला यहां तक पहुंच गया.
यदि आप वास्तविकता देखें, तो तमाम मौतों और बर्बादी के बावजूद हमास दस दिन पहले की अपेक्षा आज कहीं अधिक ताकतवर होता दिख रहा है. फिलीस्तीनी आबादी के बीच इसकी लोकप्रियता बनी हुई है. आज फिलीस्तीनी अथॉरिटी बहुत मजबूत नहीं है. हमास 1998 से सक्रिय है, पर आज वह अन्य समूहों की तुलना में इजरायल को कहीं अधिक गंभीर चुनौती देता हुआ दिख रहा है. मेरी राय में वहां अब एक नयी स्थिति पैदा हो रही है.
इजरायल के भीतर यहूदी और अरबी आबादी के बीच पिछले दिनों से जो हिंसक झड़पें हो रही हैं, वह एक नयी परिघटना है. इतने बड़े पैमाने पर ऐसी घटनाएं पहली बार हो रही हैं. पहले एकाध छिटपुट ऐसी वारदातें होती थीं, जो दुनिया के किसी भी समाज में होती हैं. लेकिन इस बार स्वत:स्फूर्त दंगों की कई घटनाएं हुई हैं और हो रही हैं, जिनमें अरबी लोग यहूदियों पर हमले कर रहे हैं और यहूदी समूह अरबों को निशाना बना रहे हैं. यह सब इजरायल के भीतर घटित हो रहा है, जो पहले कभी भी नहीं हुआ था.
यह उस देश के लिए एक खतरनाक स्थिति है. आप अपने दुश्मनों से लड़ सकते हैं, लेकिन अगर आपको अपने ही लोगों से लड़ना पड़ जाए, तो वह एक अलग बात होती है. सो, इजरायल एक बहुत गंभीर घरेलू चुनौती का सामना कर रहा है. विदेश नीति के मोर्चे पर लड़ना अलग बात है, जिसे आप आसानी से लड़ सकते हैं, लेकिन घरेलू चुनौती हमेशा ही मुश्किल होती है.
इजरायल के भीतर हाशिये के कुछ यहूदी और अरबी समूहों के उग्र होने की जो बात कही जा रही है, उससे मैं सहमत नहीं हूं. हिंसा की चुनौती कठिन जरूर है, पर मुझे लगता है कि इस पर नियंत्रण पा लिया जायेगा. यह खतरनाक है क्योंकि यह कुछ ऐसा ही है कि कोई परिवार आपस में ही लड़ने लगे. खबरों के मुताबिक, स्थिति को नियंत्रित करने के प्रयास शुरू हो चुके हैं.
यह एक अहम सवाल है कि क्या हमास और इजरायल के बीच इस समस्या के समाधान के लिए आमने-सामने की बातचीत या किसी समझौते की कितनी गुंजाइश है. मेरी राय में ऐसी किसी भी संभावित स्थिति के लिए हमास को अपनी सोच में बुनियादी बदलाव लाना पड़ेगा. हमास इजरायल के अस्तित्व में बने रहने के अधिकार को स्वीकार नहीं करता है. अब ऐसी स्थिति में इजरायल उससे कैसे और क्या समझौता कर सकता है?
यह समस्या है. अगर हमास यह कहता है कि उसे इजरायल से तमाम असहमतियां हैं, लेकिन वह अतीत की ओर देखने की जगह भविष्य के बारे में सोचने के लिए तैयार है, तो शायद आमने-सामने बैठकर बातचीत करने की गुंजाइश बन सकती है. तभी किसी समझौते की संभावना हो सकती है. यदि हमास यही रट लगाये रहेगा कि वह इजरायल को खत्म कर देगा, तब बात नहीं बन सकती है.
जहां तक इजरायल की आंतरिक राजनीतिक स्थिति का सवाल है, तो गाजा में हो रही कार्रवाई से शायद प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को कुछ फायदा हो जाए, लेकिन उन्हें इससे कोई दीर्घकालीन लाभ होगा, इसमें संदेह है. यदि आप इजरायल के घटनाक्रमों को गहराई से देखें, तो आप पायेंगे कि वहां किसी भी समस्या की अवधि एक सप्ताह की होती है. अगले सप्ताह कोई नयी समस्या आ खड़ी होती है.
ऐसे में भले नेतन्याहू को आज कुछ फायदा होता हुआ दिखायी पड़े, लेकिन यह लंबे समय के लिए कारगर नहीं होगा. इस स्थिति का दूसरा पहलू यह भी है कि इजरायल के भीतर कई लोग पूरे घटनाक्रम की फिर पड़ताल करने की जरूरत समझें. लोगों की एक राय यह हो सकती है कि देश में कई पक्षों को मिलाकर कोई यूनिटी गवर्नमेंट बने, जिसमें भले ही सभी लोग शामिल न हों, पर अधिक-से-अधिक पक्षों को साथ लेकर ऐसी कोई पहल हो.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मौजूदा स्थिति पर भारत ने जो राय रखी है, वह एक स्तर पर सही है. भारतीय राजदूत ने अपने भाषण में कहा है कि भारत द्विराज्य सिद्धांत के तहत समस्या के समाधान का पक्षधर है. इसमें दोनों संभावित देशों- इजरायल व फिलीस्तीन- की सीमाएं निर्धारित नहीं हैं क्योंकि वे तो बातचीत और समझौते के बाद ही तय की जा सकती हैं. भारतीय राय में किसी निर्धारित राजधानी का भी उल्लेख नहीं है. लेकिन यदि मैं भारतीय राजदूत की जगह होता, तो उनसे कम बोलता.
उन्होंने जेरूसलम, शेख जर्राह आदि अनेक मामलों का उल्लेख किया है, जिसकी कोई जरूरत नहीं थी. यह कहना काफी था कि भारत सभी पक्षों से यथास्थिति बनाये रखने और हिंसा रोकने का आग्रह करता है. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि राजदूत ने कुछ गलत कहा है, मेरा कहना है कि यह कूटनीति की दृष्टि से ठीक नहीं था. एक कूटनीतिक का उद्देश्य अपने देश के राष्ट्रीय हितों को आगे रखना होता है.
पूर्वी जेरूसलम की चर्चा कर भारतीय प्रतिनिधि ने बिना जरूरत इजरायल को आक्रोशित किया है. फिलीस्तीनी भी इस भाषण से खुश नहीं हैं क्योंकि जो कहा गया है, उससे वे कहीं अधिक की अपेक्षा रखते थे. पर, बुनियादी बातें सही हैं कि भारत बिना सीमाओं और राजधानी का पूर्व निर्धारण किये समस्या का समाधान दो राज्यों के सिद्धांत के तहत चाहता है.
इजरायल-फिलीस्तीन समस्या के स्थायी समाधान की प्रक्रिया में अंतरराष्ट्रीय समुदाय एक हद तक ही अपनी भूमिका निभा सकता है. विभिन्न देश ऐसी परिस्थितियां बनाने में सहायक हो सकते हैं, जिससे स्थिति सुधरे और समझौते के लिए समुचित वातावरण बने. लेकिन दोनों पक्षों आपस में लड़ना है या शांति से आगे की राह तलाशनी है, यह उन्हें ही तय करना है. यह इजरायलियों और फिलीस्तीनियों को ही फैसला करना होगा कि बातचीत से कोई हल निकालना सही है या फिर बमबारी करना है.
इसमें अन्य देशों की भूमिका बहुत सीमित है. यदि वे कुछ ठोस निर्णय लेते हैं, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय उसे आगे बढ़ाने में मददगार हो सकता है. समस्या सुलझने की दिशा में कोई राह निकल सकती है. उदाहरण के लिए, भारत और पाकिस्तान को ही अपनी समस्याओं को सुलझाना है, कोई तीसरा पक्ष आकर हमारी मुश्किलों को ठीक नहीं कर सकता है. ठीक यही बात पश्चिम एशिया में भी लागू होती है. तीसरा पक्ष सहयोग ही उपलब्ध करा सकता है, वह मध्यस्थता नहीं कर सकता है और न ही समाधान कर सकता है.
सौजन्य - प्रभात खबर।
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