महेश व्यास
कोविड-19 संक्रमण से उत्पन्न भविष्य की अनिश्चितताओं ने उपभोक्ताओं का उत्साह ठंडा कर दिया है। उपभोक्ता नजरिया एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक संकेत होता है, जो हमें यह बताता है कि लोग अपनी वित्तीय स्थिति और देश की अर्थव्यवस्था के बारे में क्या सोचते हैं। इस महामारी से बचाव के टीके उपलब्ध होने के महीनों बाद भी जीवन एवं आजीविका के समक्ष गंभीर चुनौतियां खड़ी हैं। स्वास्थ्य व्यवस्था की बिगड़ी सेहत और सरकार एवं प्रशासन की विफलताओं ने मुश्किल हालात पैदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। महामारी से लोग असमय काल के ग्रास बन रहे हैं और मरणोपरांत भी उनके शवों को सम्मान नसीब नहीं हो रहा है। महामारी की गिरफ्त में आकर देश में परिवारों की आय भी कम या खत्म हो गई है। भविष्य को लेकर उपभोक्ताओं का उत्साह एवं नजरिया दोनों कमजोर हो गए हैं। आर्थिक सुधार को गति देने के लिए मांग और खपत अति महत्त्वपूर्ण होते हैं।
उपभोक्ताओं की धारणा परिलक्षित करने वाला सूचकांक 16 मई को समाप्त हुए सप्ताह में 1.5 प्रतिशत तक लुढ़क गया। यह लगातार पांचवां सप्ताह रहा जब उपभोक्ता धारणा कमजोर रही। 11 अप्रैल को समाप्त हुए सप्ताह से इस सूचकांक में गिरावट का सिलसिला शुरू हुआ था और तब से यह 8.3 प्रतिशत तक फिसल गया है। मार्च के अंतिम सप्ताह से यह 9.1 प्रतिशत तक लुढ़क चुका है। पारिवारिक आय में कमी और भविष्य को लेकर निराशा का भाव इस गिरावट का मुख्य कारण रहे हैं।
16 मई को समाप्त हुए सप्ताह में केवल 3.1 प्रतिशत परिवारों ने कहा कि उनकी आय एक वर्ष पूर्व की तुलना में बढ़ी है। जो परिवार यह कह रहे हैं कि एक वर्ष पहले की तुलना में उनकी आय बढ़ी, उनका अनुपात 21 मार्च को समाप्त हुए सप्ताह से लगातार कम हो रहा है। लगभग उसी दौरान जिन परिवारों ने कहा था कि एक वर्ष पहले की तुलना में उनकी आय कम हुई है, उनका अनुपात बढ़ता जा रहा है। एक वर्ष पहले की तुलना में 55.5 प्रतिशत परिवारों की आय कम हो गई है। शेष 41.5 प्रतिशत लोगों का कहना है कि उनकी पारिवारिक आय नहीं बढ़ी है। करीब 97 प्रतिशत भारतीय परिवारों की वास्तविक आय ंकम हुई है।
पिछले कुछ सप्ताहों से श्रम बाजार में भी तनाव महसूस किया जा रहा है। श्रम भागीदारी दर कम हुई है और बेरोजगारी दर भी बढ़ी है। अप्रैल 2021 में बेरोजगारी दर बढ़ी थी और उपभोक्ताओं के उत्साह में कमी आई थी और मई में भी ऐसी परिस्थितियां बनती नजर आ रही हैं। 16 मई को समाप्त सप्ताह में बेरोजगारी दर 14.5 प्रतिशत तक पहुंच गई। पिछले एक वर्ष में यह सबसे ऊंची बेरोजगारी दर है। वर्ष 2020-21 में औसत बेरोजगारी दर 8.8 प्रतिशत थी। अप्रैल 2021 में यह 8 प्रतिशत थी। मई 2021 में यह दो अंकों में पहुंच सकती है।
पिछले एक वर्ष के दौरान श्रम बाजारों के व्यवहार और उपभोक्ता धारणा में दिखा अंतर अप्रैल-जून 2020 के दौरान अर्थव्यवस्था में आई तेज गिरावट के बाद आर्थिक सुधार की गति एवं प्रकृति की ओर इशारा करता है। अप्रैल और मई 2020 के दौरान देशव्यापी लॉकडाउन लगाने से श्रम बाजार और उपभोक्ताओं का उत्साह धराशायी हो गए थे। श्रम भागीदारी में तेज गिरावट आई और बेरोजगारी दर दो महीनों में 20 प्रतिशत से अधिक हो गई। रोजगार दर अप्रैल में 27 प्रतिशत फिसल गई। अप्रैल में उपभोक्ताओं का उत्साह 43 प्रतिशत फिसल गया और मई 2020 में इसमें और 9 प्रतिशत कमी आ गई।
मई में रोजगार की स्थिति में 11 प्रतिशत सुधार हुआ। वर्ष 2020-21 में रोजगार की स्थिति सुधरती गई, लेकिन इसकी रफ्तार हरेक महीने काफी सुस्त होती चली गई। अप्रैल 2021 में रोजगार की स्थिति कोविड-19 महामारी से पूर्व की स्थिति के करीब पहुंच गई थी, लेकिन यह तब भी कम ही थी। रोजगार में लगी आबादी 39.08 करोड़ के साथ वर्ष 2019-20 के औसत से 4.4 प्रतिशत कम थी। अप्रैल 2020 में रोजगार के आंकड़े 2019-20 के मानक सूचकांक से 31 प्रतिशत कम थे।
उसके बाद रोजगार की स्थिति में शुरू हुआ सुधार का असर उपभोक्ताओं की धारणा पर नहीं दिख रहा है। अप्रैल 2021 में उपभोक्ताओं का उत्साह 2019-20 की तुलना में करीब 49 प्रतिशत कम था। अप्रैल 2020 में यह 2019-20 के औसत से करीब 49 प्रतिशत कम था। शुरुआती गिरावट के बाद उपभोक्ताओं की धारणा लगातार कमजोर बनी हुई है।
बिजली उत्पादन, रेल माल ढुलाई, जीएसटी संग्रह, इस्पात उत्पादन, दोपहिया उत्पादन संकेत दे रहे हैं कि कोविड-19 महामारी, लॉकडाउन और यातायात पर पाबंदी का असर पीछे छूट चुका है और देश की अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ रही है। सितंबर 2020 तक बिजली उत्पादन पूरी तरह सुधर चुका था। अगस्त 2020 तक रेलमार्ग से होने वाली माल ढुलाई भी पूरी गति पकड़ चुकी थी। सितंबर 2020 तक जीएसटी संग्रह भी बढऩे लगा था। अगस्त 2020 तक तैयार इस्पात और दोपहिया वाहनों के उत्पादन के आंकड़े भी सुधरने लगे थे।
यातायात पर पाबंदी समाप्त होने या इसमें ढील दिए जाने के बाद सितंबर तक अर्थव्यवस्था में आपूर्ति पक्ष में सुधार शुरू हो गया था। हालांकि अर्थव्यवस्था उस अनुपात में रोजगार नहीं दे पाई और न ही परिवारों की आय पहले जैसी बढ़ी। दिसंबर 2020 तक परिवारों की आय 2019-20 के औसत की तुलना में मोटे तौर पर 6.7 प्रतिशत कम थी। भारतीय परिवार आर्थिक रूप से पिछड़ते जा रहे हैं। आपूर्ति पक्ष कम से कम बड़े संगठित क्षेत्रों में सुधर चुका है लेकिन मांग लगातार कमजोर बनी हुई है। अगर पारिवारिक आय कम हो रही है और भविष्य को लेकर उनके मन में अनिश्चितता का भाव है तो वे उत्साहित होकर खर्च करने से शर्तिया परहेज करेंगे। इसका नतीजा यह होगा कि मांग से जुड़ी दिक्कतें सुधार की राह में गंभीर चुनौती पेश करेंगी।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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