पहले ही कोरोना महामारी से हलकान मरीजों को निजी चिकित्सालयों में उलटे उस्तरे से मूंडने की खबरें विचलित करती हैं। खबरें विचलित करती हैं कि क्यों ऐसे लोगों में मानवीय संवेदनाओं व नागरिक बोध का लोप हुआ है। लंबे-चौड़े बिल बनाना और दोहन के बाद बड़े सरकारी अस्पतालों के लिये रैफर कर देना आम है। ऐसे तमाम मामले सामने आये हैं, जिनमें मनमानी फीस उपचार हेतु वसूली गई। चिंता की बात यह है कि इलाज की रेट लिस्ट लगाने के बावजूद मोटी फीस मरीजों से वसूले जाने की खबरें मीडिया में सुर्खियां बनती रही हैं। दरअसल, जनसंख्या के बोझ और तंत्र की अकर्मण्यता से वेंटिलेटर पर गये सरकारी अस्पतालों से निराश लोग निजी अस्पतालों की ओर उन्मुख होते हैं। सरकारी अस्पताल सामान्य दिनों में ही रोगियों को उपचार देने में हांपते रहते हैं तो आपदा में उनसे उम्मीद करना कि वहां पर्याप्त इलाज मिल जायेगा, बेमानी ही है। ऐसे में ऑक्सीजन की आपूर्ति में कमी और कोरोना के गंभीर मरीजों की वेंटिलेटर की जरूरत के चलते निजी अस्पतालों की पौ-बारह हुई। लॉकडाउन और कई तरह की बंदिशों तथा कोरोना संकट से उपजे हालात में तमाम व्यवसायों व रोजगारों में भले ही आय का संकुचन हो, मगर देश का फार्मा उद्योग, जांच करने वाली लैब व निजी अस्पताल दोनों हाथों से कमाई कर रहे हैं। कुछ मामलों में शिकायतकर्ता सामने भी आये हैं और कुछ निजी अस्पतालों के खिलाफ कार्रवाई भी हुई है। लेकिन यह कार्रवाई न के बराबर है। हरियाणा-पंजाब के स्वास्थ्य मंत्री उद्घोष करते रहे हैं कि मरीजों को लूटने वाले अस्पतालों के खिलाफ कार्रवाई होगी। होगी के क्या मायने हैं, होती क्यों नहीं है? कोई सरकार अस्पतालों की मनमानी के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं करती। महज इसलिये कि ये अस्पताल धनाढ्य व राजनेताओं के वरद्हस्त प्राप्त लोगों के हैं। कई तरह के इंस्पेक्टर जो इनकी निगरानी के लिये तैनात होते हैं, वे क्यों जिम्मेदारी नहीं निभाते। क्यों स्थानीय प्रशासन स्वत: संज्ञान लेते हुए कार्रवाई नहीं करता। क्यों उनकी नींद भी अदालत की सक्रियता के बाद खुलती है।
यह निजी चिकित्सालयों के मालिकों के लिये भी आत्ममंथन का समय है। चिकित्सा का पेशा कभी कारोबार नहीं हो सकता। आज भी लोग डॉक्टर को भगवान का दूसरा रूप मानते हैं। ऐसे में जब लोग महामारी से टूट चुके हैं, आय के स्रोत संकुचित हुए हैं, लाखों के इलाज का खर्च आम आदमी कहां से उठा पायेगा? इस संकट के दौरान तमाम लोगों द्वारा घर-जमीन व जेवर गिरवी रखने के मामले सामने आते रहे हैं। कई लोग बैंकों से लोन लेकर अपनों को बचाने की जद्दोजहद में जुटे हैं। सर्वे बताते हैं कि देश में करोड़ों लोग कई गंभीर बीमारियों से अपनों का इलाज कराने की कोशिश में हर साल गरीबी की दलदल में डूब जाते हैं। जरूरत इस बात की है कि पूरे देश में विभिन्न रोगों के उपचार, बेड, जांच व टेस्ट के दामों के मानक तय हों। सत्ताधीशों की नाकामी है कि वे जनता का दोहन करने वाले अस्पतालों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करते। उन्हें फलने-फूलने का अवसर देते हैं। जबकि बड़े अस्पतालों को जमीन व अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने में सरकार की भूमिका होती है। अस्पतालों का मुनाफा नियंत्रित होना चाहिए। खासकर आपदा के वक्त। जब निजी अस्पताल नागरिक बोध और मानवीय संवेदनाओं का ध्यान नहीं रखते तो उन्हें कानून की भाषा में समझाया जाना चाहिए। सरकारी अस्पतालों को भी इस लायक बनाने की जरूरत है कि लोग प्राइवेट अस्पतालों की मुनाफाखोरी से बच सकें। निस्संदेह, एक डॉक्टर पढ़ाई से लेकर एक अस्पताल बनाने में बड़ी पूंजी का निवेश करता है, जिसका मुनाफा भी वह चाहता है। लेकिन ये मुनाफा अनियंत्रित न हो। आपदा को लाभ में बदलना मानवीयता का धर्म तो नहीं ही है। इस बाबत देशव्यापी हेल्पलाइन व्यवस्था हो। न्यायालय की परिधि में आने वाले मामलों का निस्तारण भी समय रहते हो ताकि कानून का डर भी बना रहे। वह भी ऐसे दौर में जब मानवता महामारी के संकट में कराह रही हो। इनके लिये एक आचार संहिता भी लागू होनी चाहिए।
सौजन्य- दैनिक ट्रिब्यून।
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