सरोकार का जीवन (जनसत्ता)

यह दुनिया इसलिए खूबसूरत है कि चारों तरफ दिखने वाले छोटे-छोटे निजी हितों और चिंताओं के दायरे में सिमटे लोगों के साथ चलने वाले समाज में अक्सर ऐसा भी कोई उठ खड़ा होता है, जो अपनी जिंदगी को समाज और संसार के कल्याण के लिए झोंक देता है। सुंदरलाल बहुगुणा एक उसी प्रकृति के शख्स थे, जिन्होंने अमूमन हर बार ठीक वक्त पर दुनिया के भविष्य के लिहाज से असली मसलों की पहचान की और उनके हल के लिए अपनी सीमा में सब कुछ किया। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जिस उम्र में किसी बच्चे के पढ़ने-लिखने या खेलने-कूदने से उसका परिवार और समाज खुश होता है, उस दौर में उन्होंने राजनीति की दुनिया में अपने कदम रख दिए। उत्तराखंड के टिहरी में नौ जनवरी, 1927 को जन्मे सुंदरलाल बहुगुणा ने महज तेरह साल की उम्र में गांधीजी की प्रेरणा से यह तय कर लिया कि कैसे अहिंसा के रास्ते पर चल कर देश और समाज की समस्याओं का हल करना है। उनकी खास बात यह थी कि उन्होंने मनुष्य और समाज की समस्याओं की असली जड़ों की पहचान की। खासतौर पर समाज के कमजोर तबकों और पर्यावरण के सवाल पर, जहां बहुत सारे लोग पीछे हट जाते हैं, सुंदरलाल बहुगुणा ने इन सवालों को चुनौती की तरह लिया।

अपनी राजनीतिक सक्रियता के शुरुआती दौर में ही उन्होंने दलितों से भेदभाव से लेकर शराब की संस्कृति के खिलाफ मोर्चा खोला, बालिकाओं को शिक्षा दिलाने के लिए ठोस दखल दिया। संभवत: अपने मूल लक्ष्यों की ओर बढ़ने के रास्ते में राजनीति उन्हें अपने अनुकूल नहीं लग रही थी, इसलिए बाद में उन्होंने खुद को समाज और पर्यावरण के सवालों से जूझने के लिए समर्पित कर दिया। 1970 के दशक में उन्होंने पेड़ बचाने के लिए जिस अभियान की शुरुआत की थी, उसकी अहमियत से आज दुनिया वाकिफ है। यह वही दौर था जब एक तरफ प्रदूषण बढ़ने को लेकर चिंता जताई जा रही थी और दूसरी ओर पेड़ों को काटे जाने का खेल भी चल रहा था। सुंदरलाल बहुगुणा ने इसका तीखा विरोध किया। लेकिन उनके विरोध का जो तरीका था, वह आज इतिहास में दर्ज एक सुनहरा अध्याय बन चुका है।

पेड़ों को बचाने के लिए शुरू हुए ‘चिपको आंदोलन’ को उन्होंने जो विस्तार दिया या ‘हिमालय के रक्षक’ के तौर पर पांच हजार किलोमीटर की पदयात्रा की, वह पर्यावरण के क्षेत्र में उनके अप्रतिम योगदान का उदाहरण है। विकास के नाम पर टिहरी जैसे बांधों के खतरों को लेकर उन्होंने अपने आंदोलन के दौरान जिस तरह की चेतावनियां दी थीं, वे पहाड़ी इलाकों में होने वाली हर उथल-पुथल के वक्त अपना महत्त्व बताती रही हैं।


यों गांधीजी की प्रेरणा से खुद को खड़ा करने वाले व्यक्ति की स्वाभाविक बनावट और बुनावट को बिना किसी अतिरिक्त मेहनत के समझा जा सकता है। ऐसा व्यक्ति निश्चित रूप से अपनी व्यक्तिगत चिंताओं की चारदिवारी से बाहर निकल चुका होता है और उसकी फिक्र में संसार का हित शामिल होता है। इस लिहाज से देखें तो सुंदरलाल बहुगुणा ने अपने आसपास की बदलती आबोहवा और भावी दुनिया पर पड़ने वाले उसके असर के मद्देनजर अपने जीवन का जो संघर्ष चुना, वह बेशक उन्हें महान शख्सियतों की श्रेणी में ला खड़ा करता है।


धरती, पहाड़ और पर्यावरण का जीवन बचाने की उनकी लड़ाई के पीछे दरअसल मनुष्य को बचाने की ही भूख थी। उन्होंने ‘धरती की पुकार’ सहित कई किताबें लिखीं थी और उन्हें पर्यावरण के क्षेत्र में योगदान के लिए कई बेहद अहम पुरस्कारों से नवाजा गया। मगर जब व्यक्ति खुद को दुनिया के हित के लिए अर्पित कर देता है तब वह शायद सभी पुरस्कारों से श्रेष्ठ हो जाता है।

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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