कुछ महीनों के मजबूत प्रदर्शन के बाद मई में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के एक बार फिर दबाव में आने की आशंका है। ऐसा अप्रैल महीने में आर्थिक गतिविधियों में आई कमी की वजह से हो सकता है। महामारी की दूसरी लहर ने जो तबाही मचाई है उसे ई-वे बिल में भारी गिरावट में पहले ही महसूस किया जा सकता है। माना जा रहा है कि शुक्रवार को जीएसटी परिषद की बैठक में राजस्व की चुनौतियां ही चर्चा के केंद्र में होंगी। राज्य सरकारें महामारी से निपटने में सबसे अग्रिम पंक्ति में हैं और राहत प्रदान कर रही हैं। अब उन्हें टीकाकरण कार्यक्रम पर भी व्यय करना होगा। कम आधार से राजस्व में गिरावट और व्यय में इजाफा राज्यों के लिए राजकोषीय प्रबंधन को और मुश्किल बना देगा। राज्य संभावित कमी को लेकर चिंता जता रहे हैं और भरपाई के ढांचे का नए सिरे से आकलन करना होगा।
राजस्व से जुड़ी समग्र चिंताओं और संग्रह में कमी की भरपाई के अलावा कई अन्य मसले हैं जिन पर परिषद विचार कर सकती है। उदाहरण के लिए व्युतक्रम शुल्क ढांचे (जहां विनिर्मित वस्तु पर निर्यात शुल्क कच्चे माल से कम हो) का मसला काफी समय से लंबित है और यह राजस्व को प्रभावित कर रहा है। पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाने की मांग भी काफी समय से की जा रही है। इससे उपयोगकर्ताओं को इनपुट क्रेडिट की सुविधा मिलेगी। बहरहाल, फिलहाल पेट्रोल और डीजल को जीएसटी के दायरे में लाना संभव नहीं होगा क्योंकि ऐसा करने से करों में काफी कमी आएगी और राजकोषीय संतुलन प्रभावित होगा। केंद्र और राज्य सरकारें पेट्रोलियम उत्पादों से हासिल होने वाले कर पर बहुत हद तक निर्भर करती हैं। इन्हें जीएसटी के दायरे में लाना और राजस्व क्षति की भरपाई के लिए उपकर लगाना कारगर नहीं होगा क्योंकि इससे कर ढांचा जटिल हो जाएगा। ऐसे में पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी ढांचे में शामिल करने के प्रस्ताव पर विचार करने के पहले इन बातों का आकलन कर लेना चाहिए।
परंतु परिषद को जिस सबसे अहम मसले पर विचार करना चाहिए वह है दरों को तार्किक बनाना। हाल के महीनों में राजस्व में सुधार हुआ क्योंकि अनुपालन बेहतर हुआ है। हालांकि यह एक अच्छा कदम है लेकिन राजनीतिक कारणों के चलते इससे दरों में अनावश्यक कमी की भरपाई नहीं हो सकेगी। जैसा कि पंद्रहवें वित्त आयोग ने अपनी रिपोर्ट में रेखांकित किया है और वह है विशुद्ध क्षतिपूर्ति उपकर। सन 2019-20 में जीएसटी संग्रह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का बमुश्किल 5.1 फीसदी था। यह जीएसटी में समाहित करों से हासिल होने वाले राजस्व की तुलना में काफी कम था क्योंकि 2016-17 में ही वह जीडीपी के 6.3 फीसदी के बराबर था। ऐसे में मौजूदा दर राजस्व निरपेक्ष नहीं है। भारतीय रिजर्व बैंक ने 2019 में एक अध्ययन में बताया था कि जीएसटी के लिए प्रभावी औसत दर 11.6 थी जबकि क्रियान्वयन के समय वह 14.4 फीसदी थी। यह अपरिपक्वकर समायोजन की वजह से हुआ। राजस्व निरपेक्षता का मसला तत्काल हल किया जाना चाहिए क्योंकि यह जीडीपी के एक फीसदी के बराबर कर संग्रह को प्रभावित कर रही है।
कोविड-19 महामारी ने सरकार की वित्तीय स्थिति को तगड़ा नुकसान पहुंचाया है और देश का सार्वजनिक ऋण जीडीपी के 90 फीसदी तक पहुंच गया है। यदि अर्थव्यवस्था जल्दी पटरी पर नहीं आती तो यह अनुपात और बिगड़ सकता है। कर्ज और घाटे के स्तर को देखते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को राजकोषीय दबाव कम करने के रास्ते तलाशने होंगे। परिषद को राजस्व संग्रह में कमी की भरपाई के लिए ऋण से परे सोचना चाहिए और जीएसटी व्यवस्था की ढांचागत कमियों को दूर करना चाहिए।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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