सुरिंदर सूद
औषधि एवं सुगंध वाले पौधों के साथ ही जड़ी-बूटियों की वाणिज्यिक उपज भी भारतीय कृषि की एक आकर्षक शाखा के तौर पर उभर रही है। पारंपरिक स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र को आपूर्ति के लिए अमूमन जड़ी-बूटियों को जंगलों से इक_ा किया जाता रहा है। फार्मा उद्योग एवं सौंदर्य प्रसाधन क्षेत्र को भी ये जड़ी-बूटियां जंगलों से ही इक_ा कर भेजी जाती रही हैं। लेकिन इन औषधीय पौधों का प्राकृतिक आवास काफी हद तक अतिक्रमण का शिकार हो चुका है। यानी परंपरागत तरीकों से इन जड़ी-बूटियों की आपूर्ति घरेलू एवं निर्यात बाजार की मांग के अनुरूप नहीं की जा सकती है। लिहाजा उनकी वाणिज्यिक खेती का ही तरीका बच जाता है।
खास तरह की यह खेती काफी हद तक मांग पर आधारित है और खुद सरकार भी राष्ट्रीय आयुष मिशन जैसे अभियानों के जरिये इसे प्रोत्साहन दे रही है। आयुष मिशन के तहत आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध एवं होम्योपैथी चिकित्सा पद्धतियों को बढ़ावा देने का लक्ष्य रखा गया है। इन चारों इलाज पद्धतियों को ही संक्षिप्त रूप से 'आयुष' का कूटनाम दिया गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का अनुमान है कि दुनिया की करीब दो-तिहाई आबादी अब भी आंशिक या पूर्ण रूप से इलाज की इन पारंपरिक पद्धतियों पर ही आश्रित है। पारंपरिक दवाओं के साथ आधुनिक दवाओं के लिए भी करीब 80 फीसदी कच्चा माल इन जड़ी-बूटियों से ही आता है। जड़ी-बूटी वाले औषधीय उत्पादों का सालाना कारोबार घरेलू बाजार में करीब 8,000-9,000 करोड़ रुपये और निर्यात बाजार में करीब 1,000 करोड़ रुपये रहने का अनुमान है। इस साल इन आंकड़ों में खासी उछाल आती हुई दिख रही है। इसका कारण यह है कि कोविड-19 महामारी के दौरान प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मददगार बताई जा रही इन औषधियों की मांग बहुत तेजी से बढ़ी है। देसी काढ़ा जैसे औषधीय मिश्रण में इस्तेमाल होने वाली तुलसी, दालचीनी, सूखी अदरक एवं काली मिर्च की इन दिनों पुरजोर मांग है।
आयुष मंत्रालय ने कोविड से हल्के स्तर पर पीडि़त लोगों के इलाज में मददगार दवा आयुष-64 एवं सिद्ध उत्पाद कबासुर कुडिनीर के वितरण के लिए हाल ही में देशव्यापी अभियान हाल ही में शुरू किया है। मंत्रालय ने भारतीय चिकित्सा एवं अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के साथ मिलकर आयुष-64 दवा के क्लिनिकल परीक्षण कई जगहों पर करवाए हैं। इसी तरह कबासुर कुडिनीर का परीक्षण केंद्रीय सिद्ध अनुसंधान परिषद ने किया है।
हरियाणा सरकार ने आयुर्वेदिक विशेषज्ञों से सलाह की 24 घंटे वाली टेली-कॉन्फ्रेंसिंग सेवा भी शुरू की है ताकि कोविड-19 संक्रमितों को अस्पताल ले जाने की नौबत न आए। कई स्वैच्छिक संगठन भी योग एवं स्वदेशी चिकित्सा पद्धतियों के बारे में ऐसी ही परामर्श सेवाएं मुहैया करा रहे हैं। इनका मकसद यही है कि कोविड-19 संक्रमण को शुरुआती दौर में ही संभाल लिया जाए। कई होम्योपैथी डॉक्टर भी इस जानलेवा बीमारी के लक्षणों के इलाज में सफलता मिलने का दावा कर रहे हैं। कोविड की निरोधक दवाओं के तौर पर आर्सेनिक एल्ब, इन्फ्लुएंजियम एवं कैम्फर जैसी कुछ होम्योपैथी दवाओं की मांग हाल में खूब बढ़ी है। भारत इस लिहाज से खुशकिस्मत है कि यहां चिकित्सकीय गुणों से युक्त एवं सुगंध वाले पौधों की काफी विविधता मौजूद है। इसके 15 कृषि-जलवायु क्षेत्रों में 17,000-18,000 पौधे पाए जाते हैं। इनमें से करीब 7,000 पौधों में बीमारियों का इलाज करने की क्षमता एवं अन्य वाणिज्यिक गुण पाए जाते हैं। लेकिन विडंबना ही है कि फिलहाल 960 से अधिक जड़ी-बूटियों का कारोबार नहीं हो पा रहा है। असल में, सिर्फ 178 पौधे ही साल भर में 100 टन से अधिक मात्रा में इस्तेमाल किए जाते हैं। इन औषधीय पौधों की मांग नहीं बल्कि कम उपलब्धता ही इनमें से कई पौधों के कम उपयोग के लिए आंशिक तौर पर जिम्मेदार है। इस बात को ध्यान में रखते हुए सरकार ने इन जड़ी-बूटियों की आपूर्ति बढ़ाने के लिए उन्हें प्रोत्साहन देना शुरू किया है। इसके लिए आयुष मिशन के तहत करीब 140 औषधीय पौधों को चिह्नित किया गया है। कच्चे माल के तौर पर इन जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों को इनकी खेती के प्रायोजन की अनुमति भी दे दी गई है। इसमें उद्योग कंपनियां उत्पादकों के साथ उपज खरीद का करार करती हैं। जड़ी-बूटियों की विशिष्ट खेती हमें राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, अरुणाचल प्रदेश और समूचे हिमालयी क्षेत्र में देखने को मिल रही है।
कर्नाटक इस लिहाज से खास है कि इसकी व्यापक प्राकृतिक विरासत में 2,500 से भी अधिक चिकित्सकीय एवं सुगंधित पौधे पाए जाते हैं। अश्वगंधा, चंदन, लेमन ग्रास, चमेली, सिट्रोनेला एवं रजनीगंधा के अलावा कर्नाटक की जलवायु तुलसी, एलोवेरा, गुग्गल, श्रीफल (बेल) एवं स्टेविया (मीठी तुलसी) के लिए भी खासी अनुकूल है। भारत का हर्बल सौंदर्य उत्पाद उद्योग वर्ष 2017 से ही करीब 19 फीसदी की दर से वृद्धि कर रहा है और देश में औषधीय गुणों वाले पौधों की उपज बढ़ाने में इसकी भी अहम भूमिका रही है। भारत फूलों एवं दूसरे पादप स्रोतों की मदद से सुगंधित द्रव्य एवं इत्र बनाने में अग्रणी रहा है। सदियों पहले बनाए गए ये इत्र अब भी मांग में हैं और घरेलू एवं वैश्विक परफ्यूम ब्रांडों से मिलने वाली प्रतिस्पद्र्धा के बावजूद इनकी मांग कायम है। विज्ञापन एजेंसियां भी ऑर्गेनिक सौंदर्य एवं त्वचा देखभाल वाले उत्पादों के पक्ष में राय बनाने में मददगार साबित हो रही हैं।
जड़ी-बूटियों की प्राथमिक मार्केटिंग काफी हद तक असंगठित ही होती है जिसमें न कोई नियमन है और न ही वह पारदर्शी होता है। स्थानीय स्तर पर लगने वाले हाट-बाजारों में उनकी खरीद-फरोख्त होती है और वहां बिचौलियों का दबदबा होता है। छोटे उत्पादकों एवं आदिवासी संग्राहकों का शोषण खूब होता है। इन गलत चीजों को दुरुस्त करने की जरूरत है ताकि जड़ी-बूटियों की खेती का तीव्र विकास हो सके। स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र एवं अन्य उद्योग भी एक हद तक इन पर आश्रित हैं।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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