कुरबान अली
मधु लिमये आधुनिक भारत के विशिष्टतम व्यक्तित्वों में से एक थे, जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और बाद में पुर्तगालियों से गोवा को मुक्त कराकर भारत में शामिल कराने में। वह देश के लोकतांत्रिक समाजवादी आंदोलन के करिश्माई नेता थे और अपनी विचारधारा के साथ उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। ईमानदारी, सादगी, तपस्या, उच्च नैतिक गुणों से संपन्न होने के साथ-साथ, उन पर महात्मा गांधी के शांति और अहिंसा के दर्शन का बहुत प्रभाव था, जिसका उन्होंने जीवन भर अनुसरण किया।
आज से सौ वर्ष पूर्व मधु लिमये का जन्म एक मई, 1922 को महाराष्ट्र के पूना में हुआ था। पूना के फर्ग्युसन कॉलेज में उच्च शिक्षा के समय से उन्होंने छात्र आंदोलनों में भाग लेना शुरू कर दिया। बाद में वह एस एम जोशी, एन जी गोरे वगैरह के संपर्क में आए और अपने समकालीनों के साथ राष्ट्रीय आंदोलन और समाजवादी विचारधारा के प्रति आकर्षित हुए। 1939 में, जब दूसरा विश्व युद्ध छिड़ा, तो उन्होंने सोचा कि यह देश को औपनिवेशिक शासन से मुक्त करने का एक अवसर है। लिहाजा अक्तूबर, 1940 में उन्होंने विश्व युद्ध के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया और अपने युद्ध विरोधी भाषणों के लिए गिरफ्तार किए गए। अगस्त, 1942 में महात्मा गांधी ने 'भारत छोड़ो' आंदोलन का आह्वान किया, तो मधु लिमये वहां मौजूद थे। यह पहला मौका था, जब उन्होंने गांधीजी को करीब से देखा। उसी समय गांधीजी सहित कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। मधु अपने कुछ सहयोगियों के साथ भूमिगत हो गए और भूमिगत आंदोलन में अहम भूमिका निभाई।
मधु लिमये ने 1950 के दशक में, गोवा मुक्ति आंदोलन में भाग लिया, जिसे उनके नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने 1946 में शुरू किया था। उपनिवेशवाद के कट्टर आलोचक मधु लिमये ने 1955 में एक बड़े सत्याग्रह का नेतृत्व किया और गोवा में प्रवेश किया। पेड़ने में पुर्तगाली पुलिस ने हिंसक रूप से सत्याग्रहियों पर हमला किया। उन्हें पांच महीने तक पुलिस हिरासत में रखा गया था। दिसंबर 1955 में पुर्तगाली सैन्य न्यायाधिकरण ने उन्हें 12 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई। लेकिन मधु लिमये ने न तो कोई बचाव पेश किया और न ही सजा के खिलाफ अपील की।
एक बार जब वह गोवा की जेल में थे, तो उन्होंने लिखा था, 'मैंने महसूस किया है कि गांधीजी ने मेरे जीवन को कितनी गहराई से बदल दिया है, उन्होंने मेरे व्यक्तित्व और इच्छाशक्ति को कितनी गहराई से आकार दिया है।’ उन्होंने जेल डायरी के रूप में एक पुस्तक 'गोवा लिबरेशन मूवमेंट और मधु लिमये’ लिखी, जो 1996 में गोवा आंदोलन के शुभारंभ की स्वर्ण जयंती के अवसर पर प्रकाशित हुई और अब उसका दोबारा प्रकाशन किया गया है। 1957 में पुर्तगाली हिरासत से छूटने के बाद भी मधु लिमये ने गोवा की मुक्ति के लिए जनता को जुटाना जारी रखा और विभिन्न वर्गों से समर्थन मांगा तथा भारत सरकार से इस दिशा में ठोस कदम उठाने के लिए आग्रह किया। दिसंबर 1961 में गोवा आजाद हो कर भारत का अभिन्न अंग बना।
भारतीय संविधान और संसदीय मामलों के ज्ञाता मधु लिमये, 1964 से 1979 तक चार बार लोकसभा के लिए चुने गए। उन्हें संसदीय नियमों की प्रक्रिया और उनके उपयोग तथा विभिन्न विषयों की गहरी समझ थी। आज जब उनकी जन्म सदी शुरू हो रही है, तो यह रेखांकित किया जा सकता है कि असामान्य राजनीतिक परिस्थितियों में भी उन्होंने अपने मूल्यों से कभी समझौता नहीं किया। आपातकाल के दौरान पांचवीं लोकसभा के कार्यकाल के विस्तार के खिलाफ जेल से उनका विरोध इस बात की गवाही है। वह जनता पार्टी के गठन और आपातकाल के बाद केंद्र में सत्ता हासिल करने वाले गठबंधन में सक्रिय थे, उन्हें मोरारजी सरकार में मंत्री पद देने का प्रस्ताव भी किया गया, पर उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया। मधु लिमये ने लोकसभा में अपने प्रदर्शन की तरह अपने लेखन में भी तार्किक, निर्णायक, निर्भीक और स्पष्ट रूप से तथ्यों को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से पेश किया। संक्षिप्त बीमारी के बाद 72 वर्ष की आयु में 8 जनवरी, 1995 को मधु लिमये का नई दिल्ली में निधन हो गया।
सौजन्य - अमर उजाला।
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