पशु चिकित्सा में सुधार की जरूरत (प्रभात खबर)

By मेनका गांधी 

 

पशु चिकित्सकों का मेडिकल चिकित्सकों जैसा ही सम्मान क्यों नहीं किया जाता है और उन्हें उनके समान क्यों नहीं माना जाता है? जहां एक मानव चिकित्सक को भगवान का संदेशवाहक माना जाता है, वही एक पशु चिकित्सक को केवल सेवा प्रदाता के रूप में जाना जाता है.



जब दोनों चिकित्सा पेशेवर एक ही शपथ लेते हैं- जीवन बचाने, विज्ञान का प्रयोग करने, बीमारी को खत्म करने और रोगियों को पीड़ा से छुटकारा दिलाने की, तो पशु चिकित्सा पेशे के साथ क्या गलत हो गया है कि उन्हें बहुत निचले दर्जे का माना जाता हैं? लॉकडाउन के दौरान जारी प्रारंभिक अधिसूचनाओं ने सभी मेडिकल अस्पतालों और क्लीनिकों को खुला रहने दिया, पर किसी ने भी पशु चिकित्सा प्रैक्टिस को याद नहीं किया, जब तक कि हमने उपयुक्त अधिकारियों के सामने चिंता नहीं जतायी.



जब मानव पर रोग हमला करते हैं, तो डॉक्टर फ्रंटलाइन वारियर्स बन जाते हैं. जब एवियन या स्वाइन फ्लू फैलता है, तो पशु चिकित्सकों को न तो वारियर माना जाता है और न ही फ्रंटलाइन. चुनावों के दौरान भी किसी भी सरकारी चिकित्स को उसके काम से हटाकर कोई चुनाव ड्यूटी नहीं दी जाती है. लेकिन पशु चिकित्सकों को अन्य सरकारी कर्मचारियों की तरह अक्सर कई सप्ताहों के लिए चुनाव ड्यूटी पर लगाया जाता है, भले ही मैंने वर्षों पहले इस पर प्रतिबंध लगवा दिया था.


मैंने हमेशा पशु चिकित्सक समुदाय को सबसे अधिक महत्व दिया है क्योंकि उनके बिना पशु कल्याण संभव नहीं है. भारत में 65 हजार से अधिक पशु चिकित्सक हैं, जिनमें से अधिकतर पशुपालन विभाग द्वारा नियोजित हैं. विभाग का ध्यान और कार्य दूध, अंडे, मांस, फर और किसी भी अन्य पशु उत्पाद का उत्पादन बढ़ाना है, जिससे पैसा कमाया जा सकता है. नैदानिक कार्य सीमित हैं, और उन जानवरों तक सीमित हैं, जो उत्पादक जीवन के भीतर हैं. वे अपने पशु रोगी के साथ किसी जीव के रूप में नहीं, बल्कि ‘संपत्ति’ के रूप में व्यवहार करते हैं. अधिकतर पशु चिकित्सक अवैध पालतू पशु प्रजननकर्ताओं के लिए बिचौलियों के रूप में कार्य करते हैं.


बड़े पैमाने पर व्याप्त नीम हकीमी एक और कारण है जो पशु चिकित्सा पेशे को बदनाम करता है. छह साल की पशु चिकित्सा शिक्षा के साथ आनेवाले ज्ञान के अभाव के साथ वे पेशे के महत्व और सम्मान को कम करते हैं. यदि पशु जीवन को अमूल्य और महत्वपूर्ण माना जाये और सभी पशु चिकित्सा प्रयास रोगी के हित में पीड़ा कम करने की दिशा में हों, तो पशु चिकित्सकों को मेडिकल डॉक्टरों जितना ही सम्मान मिलेगा.


जानवरों, विशेष रूप से पशुधन, को सदियों से संपत्ति के रूप में माना जाता था. यहां तक कि भारतीय दंड संहिता (1860) 50 रुपये से अधिक मूल्य के जानवर को चोट पहुंचाने के लिए अधिक कठोर सजा का प्रावधान करती है, बजाय उसके जिसकी कीमत कम है. निश्चित मूल्य के तौर पर जानवरों के साथ व्यवहार करने का यह पुराना तरीका मानव जाति के विकास के साथ अब अपना महत्व खो रहा है. वर्ष 1960 में पशु क्रूरता निवारण अधिनियम को प्रख्यापित किया गया था, जिसमें इसमें पशु जीवन के साथ मूल्य जोड़े जाने का कोई संकेत नहीं है.


इस अधिनियम में किसी भी जानवर के मालिक या संरक्षक को बाध्य किया जाता है कि वह जानवर को होनेवाले अनावश्यक दर्द और पीड़ा को रोके. इस मामले में जानवर को ’मनुष्य के अलावा कोई भी प्राणी’ के रूप में परिभाषित किया गया है. उच्च नैतिक मानकों का विकास अपरिहार्य भविष्य है और लिंग, नस्ल और प्रजातियों के बीच न्याय का अंतर धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है. पशु चिकित्सकों के लिए इस अंतर को दूर करने का एकमात्र तरीका जानवरों के जीवन को किसी भी और चीज से अधिक महत्व देना है.


इसके संबंध में तीन चीजें होनी चाहिए. भारत में पशु चिकित्सा कॉलेजों को बेहतर होना होगा. वे दुनिया में सबसे खराब हैं और मध्य वर्ग से ऊपर के बहुत कम छात्र उनमें आवेदन करते हैं. वे छात्र विदेश जाते हैं और फिर उन जगहों पर प्रैक्टिस करते हैं, जहां पशु चिकित्सकों का सम्मान किया जाता है.


पशु चिकित्सा कॉलेजों में प्रवेश करनेवाले आमतौर पर शिक्षित होनेवाली पहली पीढ़ी से होते हैं और वे वहां हर तरह की प्रवेश परीक्षा में असफल होने के बाद जाते हैं. शिक्षकों को बेहतर होना चाहिए, मानकों को और अधिक कठोर करना चाहिए और प्रत्येक वर्ष डिग्री नवीकरण के लिए पशु चिकित्सकों का परीक्षण किया जाना चाहिए.


वेटनरी काउंसिल ऑफ इंडिया को अपने काम को गंभीरता से लेना होगा और खराब पशु चिकित्सा व्यवहारों के बारे में शिकायतों पर कार्रवाई करनी होगी. आज तक पशु चिकित्सालयों, चिकित्सा पद्धतियों या चिकित्सकों को नयी सूचनाओं के प्रसार के बारे में कोई दिशा-निर्देश नहीं है.पशु चिकित्सक खुद को कामगार के रूप में देखते हैं और कम काम कर पैसा कमाने के लिए रोजगार बदलते रहते हैं.


सरकार को प्रत्येक जिले में पशु चिकित्सा विभाग से अधिक काम निकालना होगा और इसके लिए अधिक धन आवंटित करना होगा. कोई भी मुख्य पशु चिकित्सा अधिकारी कभी भी फील्ड में नहीं जाता है. किसी भी ग्रामीण पशु चिकित्सालय के पास कोई दवा नहीं होती है. कोई भी पशु चिकित्सक पशु कल्याण कानूनों को नहीं जानता है. समूचे विभाग को गैर-निष्पादनकारी माना जाता है और उसकी वैसी ही इज्जत की जाती है.

सौजन्य - प्रभात खबर।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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