आदिति फडणीस
कम से कम किसी ने तो यह कहने का साहस दिखाया कि कोविड-19 की तीसरी लहर आ सकती है। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) नेता और महाराष्ट्र के स्वास्थ्य मंत्री राजेश टोपे ने सार्वजनिक रूप से कहा कि राज्य को आगामी जुलाई और सितंबर के दरमियान मौत एवं दुख के एक और सिलसिले के लिए तैयार रहना चाहिए। आशा की जानी चाहिए कि तीसरी लहर के अवसर पर इस स्वास्थ्य संबंधी आपात स्थिति से निपटने की बेहतर तैयारी देखने को मिलेगी।
यह सही है कि महामारी के प्रबंधन के क्षेत्र में महाराष्ट्र का प्रदर्शन कोई बहुत अधिक उल्लेेखनीय नहीं रहा है लेकिन टोपे मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के काबिल प्रतिनिधि की भूमिका निभा रहे हैं। वह अपने पार्टी सहयोगी अनिल देशमुख से एकदम उलट हैं जो शायद देश के इकलौते ऐसे गृहमंत्री रहे जिन पर पद पर रहते हुए भ्रष्टाचार और शायद धनशोधन का आरोप भी लगा। महामारी के बीच अगर गृहमंत्री को इस्तीफा देना पड़ जाए तो यह किसी भी राज्य के लिए बहुत बड़ी त्रासदी होती है। उद्धव ठाकरे पूरी तरह व्यस्त हैं। उन्हें महामारी का प्रबंधन करना है, अपने दल तथा समर्थन करने वाले लेकिन गैर भरोसेमंद दलों (जिनके बिना उनकी सरकार नहीं चलेगी) के बीच रिश्ते बनाकर रखने हैं और भाजपा के नेतृत्च वाले केंद्र समर्थित विपक्ष से भी निपटना है।
इन बातों केबीच यह याद रखना होगा कि वह पहली बार मुख्यमंत्री बने हैं। सन 1990 के दशक के मध्य में जब वह पहली बार राजनीति में आए तब उद्धव ठाकरे राजनीति करने के बहुत इच्छुक नहीं नजर आते थे। उनकी पत्नी रश्मि ने उन्हें इस पारिवारिक काम में बड़ी भूमिका लेने के लिए उकसाया। आज उद्धव का अपनी पार्टी शिवसेना के कामकाज पर पूरा नियंत्रण है। वह ठाकरे परिवार के पहले ऐसे सदस्य हैं जिसने बाकायदा सरकार बनाई है और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने हैं।
बीच की पूरी अवधि में वह आत्मविश्वास से भरे हुए नजर आए और उन्होंने सही आकलन किए। उन्होंने भविष्य में सामने आ सकने वाली चुनौतियों को भी निष्क्रिय किया। महाराष्ट्र के कोंकण इलाके के बेताज बादशाह माने जाने वाले नारायण राणे को शिवसेना ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। चचेरे भाई राज ठाकरे ने राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए अपनी पार्टी शुरू कर दी। सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उद्धव ठाकरे ने उत्तराधिकार के मसले को भी सुलझा लिया। यानी कम से कम निकट भविष्य में शिव सेना में वैसी पारिवारिक लड़ाई देखने को नहीं मिलेगी जैसी पवार परिवार में देखने को मिली।
परंतु सरकार चलाने में ठाकरे की कुछ कमजोरियां भी नजर आई हैं। एक ओर जहां सरकार में उनके साझेदार उन्हें तानाशाह और पहुंच से बाहर मानते हैं तो वहीं उनका रुख भी यही कहता है कि हां मैं ऐसा ही हूं। कांग्रेस खुलकर कहती रही है कि ठाकरे उसकी बात नहीं सुनते हैं। ठाकरे को भी पता है कि राकांपा उनके लिए बहुत विश्वसनीय साझेदार नहीं है। यह बात सभी जानते हैं कि महाराष्ट्र सरकार में अपने मंत्री होने के बावजूद राकांपा रात में चिर प्रतिद्वंद्वी भाजपा से मुलाकात करने में नहीं हिचकिचाती। राकांपा का आकलन एकदम स्पष्ट है। उद्धव ठाकरे के रूप में उसके पास कम से कम एक ऐसा मुख्यमंत्री है जिस पर वह दबाव बनाकर काम करवा सकती है। कौन जाने क्या होगा यदि वह भाजपा का समर्थन करने का निर्णय लेती है।
केंद्र के साथ भी ठाकरे का विवाद चल रहा है। महामारी के बीच विधानसभा उपचुनाव टलने के बीच राज्यपाल उच्च सदन के लिए उनका नामांकन करने में जरूरत से अधिक समय ले रहे थे। आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हस्तक्षेप के बाद राज्यपाल ने चुनाव कराया। ठाकरे ने इसका बदला तब लिया जब उन्होंने राज्यपाल को उत्तराखंड जाकर चमोली भूस्खलन का सर्वे करने के लिए सरकारी विमान के इस्तेमाल की इजाजत देने से इनकार कर दिया। यह सिलसिला जारी है।
भले ही ठाकरे को अपनी पार्टी तथा कुछ सहयोगियों का समर्थन हासिल हो लेकिन निकट भविष्य में उन्हें शासन के स्तर पर विभिन्न चुनौतियों का सामना करना होगा। फरवरी 2022 में वृहन्मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) के चुनाव होंगे। बीएमसी पर शिवसेना 30 साल तक काबिज रही है। सन 2017 में हुए चुनाव में शिव सेना को 227 में से 86 सीट पर जीत मिली थी जबकि भाजपा को 82 सीट पर। कांग्रेस और राकांपा को क्रमश: 30 और नौ सीट हासिल हुई थी। सवाल यह है कि क्या सरकार में उसके साझेदार बीएमसी चुनाव भी साथ में लड़ेंगे? ठाकरे के नेतृत्व की यह एक बड़ी परीक्षा होगी।
राज्य में भाजपा की स्थिति भी बहुत सहज नहीं है। आंतरिक नेतृत्व के मुद्दों को हल किया जा रहा है। देवेंद्र फडणवीस के दो सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वियों विनोद तावडे और एकनाथ खडसे को हाशिये पर धकेल दिया गया है। पंकजा मुंडे को आश्वस्त किया गया है कि उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में जगह दी जाएगी (इस बात को एक वर्ष बीत चुका है)। सच यह है कि भाजपा धीरे-धीरे अपना घर ठीक करने में लगी है।
उद्धव ठाकरे कठिन और अनिश्चित समय से गुजर रहे हैं। लोग उनकी गलतियों को अनुभव की कमी मानकर माफ कर सकते हैं लेकिन अगर गलती शासन में होती है तो दूसरा मौका मिलना मुश्किल होता है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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