सुधीश पचौरी
बंगाल के चुनावों ने कई तरह की ‘फाल्टलाइनों’ को सुलाने की जगह और भी जगा दिया है, जिसका एक उदाहरण इन चुनावों के परिणाम आने के तुरंत बाद शुरू हुई हिंसा है, जिसके उदाहरण भाजपा के दफ्तरों को आग लगाने और कई भाजपा कार्यकर्ताओं के मारे जाने की खबरें हैं। जिसे न तो विश्व मीडिया तवज्जो दे रहा है, न देसी मीडिया ही। एकाध टीवी चैनल जो वीडियोज दिखा रहे हैं, उनको ‘पुराने वीडियो’ कहकर टीएमसी द्वारा खारिज किया जा रहा है! जब कथित ‘पुराने वीडियो’ इतने लोमहर्षक हैं, तो नए कैसे होंगे? यह सहज ही सोचा जा सकता है।
पूछना जरूरी है कि बंगाल में जो खूनखराबा हो रहा है, वह जीत का जश्न है या ‘खेला होबे’ मुहावरे का चरम बिंदु है, जिसमें जीत की ‘विनम्रता’ की जगह, जीतने वाली टीम हारने वाली टीम से हिसाब तय कर रही है, जैसे कि फुटबाल के मैदान में हारी हुई टीम को जीतने वाले दौड़ा-दौड़ाकर मारे! ऐसा तो ‘हिटलर’ के जमाने में हुए ‘फुटबाल मैचों’ तक में नहीं दिखा! बहरहाल, अच्छी बात यह है कि उस ‘खेला होबे’ नारे के असली मानी अब प्रकट हो रहे हैं और इस बार अकेली भाजपा इस हिंसक ‘खेला’ की शिकायत नहीं कर रही, बल्कि मार्क्सवादी पार्टी की नेता सुभाषिनी अली तक को ट्वीट कर कहना पड़ा है कि निर्णायक जीत के बाद टीमएसी की आक्रामकता बढ़ी है। उनके ‘अखिल भारतीय जनवादी महिला संगठन’ की बर्दवान इकाई की एक महत्वपूर्ण कार्यकर्ता काकोली क्षेत्रापाल की नृशंस हत्या कर दी गई है। मोदी और भाजपा से घृणा करने वालों के लिए भाजपा की ऐसी शिकायत ‘एक ड्रामा भर’ होती, पर सुभाषिनी के उक्त ट्वीट के बारे में वे क्या कहेंगे? जीत अपनी जगह होती है, पर जीत का नशा मारक होता है। जीत के बाद भी ‘खेला’ रुका नहीं है, बल्कि सफाई अभियान की तरह जारी है।
कहने की जरूरत नहीं कि बंगाल के चुनावों के कुछ व्याख्याताओं ने भी टीमएसी की इस आक्रामकता को भी हवा दी हैः किसी के लिए यह जीत ‘केंद्र की भाजपा की तानाशाही’ के खिलाफ जीत है, किसी के लिए यह ‘मोदी के फासिज्म’ के खिलाफ जीत है और किसी के लिए यह ‘हिंदुत्व’ पर ‘सेकुलर शक्तियों’ की जीत है। किसी के लिए यह ‘महिषासुर मर्दिनी’ की जीत है। ऐसे व्याख्याता मोदी के अंध-विरोध के चलते यह नहीं देख पाते कि इस जीत में बहुत से ऐसे ‘तत्वों’ की भी भूमिका रही है, जो बंगाल में चार-चार पाकिस्तान बनाने की बात कहते थे। टीमएसी की जीत ने ऐसी ‘फाल्टलाइनों’ को खुलकर खेलने का अवसर दे दिया लगता है।
अगर कोई दल अपनी बड़ी जीत के बाद अपने विरोधियों का सफाया करने का एजेंडा चलाता है, तो यह भी एक प्रकार का ‘फासिज्म’ ही है, जो विरोधियों को छांट-छांटकर निपटाना चाहता है। अगर केंद्र का ‘फासिज्म’ खतरनाक है, तो स्थानीय ‘फासिज्म’ वरदान कैसे हो सकता है? फासिज्म फासिज्म होता है और वह किसी राज्य स्तर के नेता का भी हो सकता है! बंगाल में ऐसी निरंकुशता की परंपरा रही है, जिसकी शुरुआत कभी सिद्धार्थ शंकर रे के शासन में हुई थी। तब सीपीएम उसका टारगेट रही। बदले की इसी परंपरा को प्रकारांतर से सीपीएम ने भी चलाया। फिर टीमएसी ने सीपीएम के खिलाफ चलाया और अब वह भाजपा के खिलाफ चला रही है! लेकिन टीमएसी के अंहकार का एक नया कारण और भी है, वह है ‘दोहरा अस्मितावाद’!
बंगाल के इस चुनाव अभियान का पुनर्पाठ करें, तो साफ हो जाएगा कि टीएमसी और ममता बनर्जी की जीत उसी क्षण तय हो गई थी, जब ममता ने अपने को ‘बंगाल की बेटी’ कहा था और ‘बंगाली स्वाभिमान’ को जगाने के लिए ‘स्थानीय’ बरक्स ‘बहिरागत’ का नारा दिया था। टीएमसी के चुनाव अभियान में दो तरह के अस्मितावादी सुर एक साथ बजते थेः एक था ‘बंगाली अस्मिता’ के अभिमान का सुर और दूसरा था बंगाल की एक बेटी का यानी एक अकेली बांग्ला स्त्री का अनकहा ‘स्त्री अस्मिता’ सुर! यह ‘दुहत्थड़’ की तरह था!
इस दोहरे अस्मितावाद की दोहरी मार को काटने के लिए भाजपा के पास न कोई वैकल्पिक भाषा थी, न कोई नया केंद्रीय नारा था, जबकि ममता के पास था बंगालियों में लोकप्रिय ‘फुटबाल’ के खेल जैसी आक्रामकता को जगाने वाला ‘खेला होबे’ नारा! मोदी और भाजपा के नेता, अपनी मोदीवादी-विकासवादी संस्कृति के मुकाबले इस ‘खेला होबे’ की ‘काउंटर कल्चर’ की सांस्कृतिक दीवार को भेदने में असमर्थ रहे। भाजपा दोहरी अस्मितावादी दीवारों को न समझ पाई, न उनमें सेंध लगा पाई! जबकि एक वक्त में गुजरात चुनावों में मोदी ने स्वयं ‘गुजराती अस्मिता’ का नारा बुलंद किया था कि मैं गुजरात की पांच करोड़ जनता का अपमान नहीं होने दूंगा और कांग्रेस उसे कभी भेद नहीं पाई। ममता का ‘बंगाल बंगालियों का’ जैसा नारा बंगालियों के बीच हिट होना ही था, क्योंकि वह तो यों भी अपनी संस्कृति पर अतिरिक्त गर्व करने वाले होते हैं। इस नारे ने ममता के प्रति चुनाव-पूर्व के जनता के गुस्से को भी बिसरवा दिया।
अस्मितावादी विमर्श ऐसे ही ‘निरंकुशतावादी विमर्श’ होते हैं। वे अपने से ‘अन्य’ या ‘अपने से भिन्न’ को जरा भी जगह नहीं देते। ममता की जीत में असली ‘खेला’ उक्त प्रकार के दोहरे अस्मितावादी विमर्श ने ही खेला है। यों भी यह दौर राष्ट्रवाद बरक्स स्थानीयतावादी अस्मितावादी विमर्शों का दौर है, जो केंद्रवादी राजनीति को अपना ‘अन्य’ यानी ‘शत्रु’ मानते हैं। और बंगाल का दिल्ली से पंगा तो पुराना है और गुजरात से भी पुराना है। यह ‘नेताजी बरक्स गांधी’ के जमाने से चला आता है। भाजपा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की राजनीति के चलते स्थानीय अस्मितावादी सांस्कृतिक विमर्शों की दीवारों की दुर्भेद्यता को न समझ सकी, न उचित भाषा और मुहावरे से उनको भेदने में समर्थ रही, इसीलिए हारी।
फिर भी भाजपा ने बंगाल में जितना वोट लिया है और जिस तरह से वामपंथी तथा कांग्रेस ने अपना वोट टीमएसी को शिफ्ट कर ‘राजनीतिक हाराकीरी’ की है, उससे साफ है कि टीएमसी के लिए अब भी असली चुनौती भाजपा ही है। भाजपा कार्यकर्ताओं पर होते हमले यही बताते हैं कि आगे के चुनावों में उसे अगर किसी से खतरा है तो भाजपा से है। इसलिए न भाजपा के अंध विरोधियों को बहुत खुश होने की जरूरत है और न भाजपा वालों को रोने की जरूरत है। हां, अपने राष्ट्रवादी विमर्श पर आत्ममुग्ध होने की जगह भाजपा को नए-नए अस्मितावादी विमर्शों को समझने की जरूरत है।
सौजन्य - अमर उजाला।
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