खुलेंगी खिड़कियां एक दिन (हिन्दुस्तान)

विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी 

सन 1947 में भारत का विभाजन एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सहमतियों से अधिक असहमतियों की गुंजाइश हमेशा बची रहती है। बहुत सारे मिथक हैं, जो हमने अपने नायकों, घटनाओं व नतीजों के इर्द-गिर्द बुन रखे हैं, और जैसे ही कोई बौद्धिक इन्हें ‘डीकंस्ट्रक्ट’ करने का प्रयास करता है, उसे बहुत से पूर्वाग्रहों और सरलीकृत स्थापनाओं से जूझना पड़ता है। भारत और पाकिस्तान, दोनों जगहों पर विभाजन को लेकर एक ऐसा विमर्श मौजूद है, जिसके केंद्र में हिंदुओं और मुसलमानों के 1,300 वर्षों से अधिक के संग-साथ की तल्खियां और मिठास दिख ही जाती है। दोनों देशों में पढ़ाए जाने वाले इतिहास की पाठ्य पुस्तकें खुद ही एक गंभीर समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय हो सकती हैं। किसी एक ही शख्सियत या घटना के बारे में दोनों के विवरणों और स्थापनाओं में इतना अंतर दिखता है कि विश्वास नहीं होता, वे एक ही विषय-वस्तु के इर्द-गिर्द अपना ताना-बाना बुन रहे हैं।


इस तरह की विभक्त बौद्धिक दुनिया में पिछले कुछ वर्षों से प्रोफेसर इश्तियाक अहमद एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप कर रहे हैं। लाहौर में जन्मे, पले-बढ़े और शुरुआती शिक्षा प्राप्त पाकिस्तानी मूल के स्वीडिश नागरिक प्रो अहमद वहीं इतिहास और राजनीति शास्त्र पढ़ाते रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में अंग्रेजी में छपी उनकी दो पुस्तकें पंजाब : लहूलुहान, विभाजित और नस्ली सफाई  तथा जिन्ना : सफलताएं, असफलताएं और इतिहास में उनकी भूमिका भारतीय उपमहाद्वीप की सांप्रदायिक राजनीति को समझने का प्रयास करने वाले किसी भी गंभीर अध्येता के लिए अनिवार्य पाठ्य सामग्री बन गई हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन की गुत्थियों को सुलझाने के लिए 1,300 वर्षों के उस पड़ोस को समझना जरूरी है, जो आठवीं शताब्दी में मोहम्मद बिन कासिम के सिंध विजय के साथ शुरू हुआ था। यह पड़ोस दुनिया की दो बड़ी जीवन पद्धतियों का था। एक तरफ, धर्म की शास्त्रीय समझ से परे हिंदू थे और दूसरी तरफ, आसमानी किताब और आखिरी पैगंबर में यकीन रखने वाले मुसलमान और स्वाभाविक ही इनकी विश्व दृष्टि एक-दूसरे से बहुत भिन्न थी। इस संग-साथ ने रचनात्मकता की दुनिया में बहुत कुछ श्रेष्ठ निर्मित किया। साहित्य, संगीत, स्थापत्य, मूर्तिकला, पाक शास्त्र- हर क्षेत्र में इन्होंने मिल-जुलकर अद्भुत योगदान किया। पर यह कहना सरलीकरण होगा कि दुनिया के दो बडे़ धर्मों के अनुयायी सिर्फ रचनात्मक लेन-देन कर रहे थे, सही बात यह है कि वे हजार साल से अधिक एक-दूसरे से लड़ते भी रहे थे। इसी तरह के दूसरे सरलीकरण हैं कि लड़ते तो सिर्फ शासक थे, प्रजा प्रेम से रहती थी या हिंदुओं और मुसलमानों को ब्रिटिश शासकों ने लड़ाया, अन्यथा वे तो शांति से रहना चाहते थे। विभाजन को लेकर भी सरलीकृत धारणाएं हैं, जो भारतीय समाज के सांप्रदायिक रिश्तों को समझने की कोशिश करने वाले मुझ जैसे जिज्ञासु को उलझन में डालती रही हैं। इन्हीं कुछ गुत्थियों को सुलझाने का मुझे मौका मिला, जब पिछले दिनों मैंने प्रो इश्तियाक से एक लंबी बातचीत की। सभी जानते हैं, विभाजन ने एक करोड़ से भी अधिक परिवारों को प्रभावित किया था। बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए या मारे गए। विभाजन में तो मुख्य रूप से पंजाब और बंगाल का बंटवारा हुआ था और प्रो इश्तियाक ने पंजाब पर बहुत महत्वपूर्ण काम किया है। दोनों तरफ के दर्जनों विस्थापितों से इंटरव्यू लेकर उन्होंने मौखिक इतिहास का दुर्लभ व मूल्यवान दस्तावेजीकरण किया है। 

भारत में बहुत से लोग, जिनमें फैजान मुस्तफा जैसे आधुनिक और असदुद्दीन ओवैसी जैसे कट्टरपंथी शरीक हैं, तर्क देते हैं कि हिन्दुस्तान के मुसलमान अपनी मर्जी से भारतीय हैं। उन्हें 1947 में मौका मिला था कि वे पाकिस्तान जा सकते थे, पर वे अपनी धरती से प्यार करते थे, इसलिए उन्होंने भारत नहीं छोड़ा। मुझे इस स्थापना से हमेशा दिक्कत होती है कि क्या पाकिस्तान से आने वाले सिख और हिंदू अपनी धरती से प्यार नहीं करते थे। इस स्थापना से आजाद भारत के गांधी-नेहरू जैसे रोशन ख्याल नेतृत्व के प्रयासों का अपमान होता है, जिनके कारण भारत से उस तरह से मुसलमानों की नस्ली सफाई नहीं हो सकी, जैसे पाकिस्तान से सिखों और हिंदुओं की हुई। उन्होंने अपनी पंजाब वाली किताब का जिक्र किया, जिसमें उन्होंने विस्तार से मार्च 1947 में रावलपिंडी में सिखों पर मुसलमानों के हमलों का जिक्र किया है। इसमें कई हजार सिख मारे गए थे और हजारों परिवार उजड़कर पटियाला पहुंचे थे। यह आजादी के पहले की शुरुआती नस्ली सफाई थी। बाद में शेष पाकिस्तान में इसी पैटर्न की दूसरी कार्रवाइयां हुईं और नतीजतन आज एक प्रतिशत से कम हिंदू, सिख वहां हैं। इसके बरक्स भारत में क्या हुआ? मार्च में जब सिख भागकर आए, तब जरूर नस्ली सफाई का एक दौर आया, जिसमें सिखों ने मुसलमानों को मलेरकोटला छोड़कर पूरे पंजाब से खदेड़ दिया। याद रहे कि तब का पंजाब दिल्ली की सीमा तक था। पर जब तक नस्ली सफाई का सिलसिला दिल्ली तक पहुंचा, देश आजाद हो चुका था और बलवाइयों के लिए गांधी और नेहरू एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आए। गांधी तो सांप्रदायिक हिंसा के विरुद्ध अनशन पर बैठ गए और इसे तोड़ने के लिए उनकी एक शर्त यह भी थी कि हिंदू और सिख बलात कब्जा की गई अन्य संपत्तियों के साथ मस्जिदों को भी मुसलमानों को वापस सौंप दें। इस तरह का कोई प्रयास जिन्ना या लियाकत अली खां द्वारा पाकिस्तान में नहीं किया गया। भारत में आजादी के बाद के रोशन ख्याल नेतृत्व को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उसने नस्ली सफाई नहीं होने दी और अधिसंख्य मुसलमान देश में रुक सके। इसी तरह, कैबिनेट मिशन को लेकर एक मिथ यह है कि यदि कांग्रेस ने उसे मान लिया होता, तो विभाजन टल सकता था। पर प्रो इश्तियाक से बात करके यह मिथ टूटता है। वह मानते हैं कि कैबिनेट मिशन की असफलता का मुख्य कारण जिन्ना की हठधर्मिता ही अधिक थी। प्रो इश्तियाक भारत-पाकिस्तान के उन बुद्धिजीवियों में हैं, जो विश्वास करते हैं कि यद्यपि सन 1947 के पहले की स्थितियां लौटाई नहीं जा सकतीं, पर यूरोपीय यूनियन जैसी व्यवस्था तो हो ही सकती है, जिसमें वीजा खत्म हो सकता है, व्यापार निर्बाध हो जाए या साहित्य और संस्कृति की खिड़कियां खोलकर ताजी हवा के झोंके आने दिए जाएं। हम दोनों ने इसी उम्मीद के साथ बातचीत खत्म की कि हमारे जीवन में ही यह दिन आएगा जरूर।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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