डॉ. विश्वजीत
आपदा अचानक ही आती है और संभलने का वक्त नहीं देती। कोरोना की महामारी ऐसी ही आपदा है। इसने पूरे विश्व को झकझोर कर रख दिया है। इसकी दूसरी लहर का प्रभाव भारत में भी काफी दिख रहा है। यह वायरस किसी कुटिल शत्रु की तरह अपना पैंतरा बदल रहा है। इसीलिए कोरोना की दूसरी लहर पहली लहर से अलग है। जो तैयारियां पहली लहर के हिसाब से की गई थीं, वह कम पड़ गईं। उत्तर प्रदेश का ही उदाहरण लें, तो यहां आक्सीजन की खपत औसतन 300 मीट्रिक टन थी, आज 1,000 मीट्रिक टन की आपूर्ति हो रही है। किसी को इसका अंदाजा नहीं था।दूसरी लहर में यह वायरस फेफड़े पर बहुत तेजी से हमला कर रहा है और शुरू में ही सावधानी न बरती, तो जोखिम बढ़ सकता है। जब तक मेडिकल साइंटिस्ट इस बदलाव को समझते, तब तक काफी नुकसान हो चुका था। दुनिया भर में इस पर शोध हो रहे हैं। पहली लहर के दौरान खड़ा किया गया बुनियादी ढांचा और तैयारियां ही दूसरी लहर से लड़ने में काम आ रही हैं। दूसरी लहर में मेरे जैसे बहुत से चिकित्सक संक्रमित हुए, उससे भी अनुभव मिला।
हालांकि बहुत से चिकित्साकर्मियों को जान भी गंवानी पड़ी। लेकिन शुरूआती झटके के बाद ही इलाज के कई तरीके सामने आने लगे। फेफड़े में संक्रमण के बाद भी बहुत सारे लोगों को बचाना संभव हुआ। प्रोटोकाल के इलाज के साथ पारंपरिक विधियों का मिश्रण 90 फीसदी मरीजों को राहत देने में सफल हुआ। महामारी को तुरंत रोकना किसी के हाथ में नहीं होता। अन्यथा सर्वाधिक संसाधन वाले देश अमेरिका में मौत का आंकड़ा सबसे अधिक नहीं होता। इसलिए यह सवाल उठाना ठीक नहीं है कि पहले से तैयारी नहीं थी या रोकने के लिए किसी ने कुछ नहीं किया। टेस्ट, ट्रैक और ट्रीट की नीति पर चलना ही इस आपदा से निकलने का मंत्र है। आज उत्तर प्रदेश में करीब सवा चार करोड़, महाराष्ट्र, कर्नाटक में करीब तीन करोड़ और दिल्ली में करीब दो करोड़ टेस्ट हो चुके हैं। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में एक दिन में लगभग तीन लाख तक टेस्ट हुए। बिना सरकारी प्रयास और नेतृत्व की सोच के यह संभव नहीं था।
पच्चीस करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में टेस्ट, ट्रैक की नीति अपनाना आसान नहीं। किसी डॉक्टर की ओपीडी में 200 की जगह 300 मरीज आ जाते हैं, तो उन्हें संभालने में हालत खराब हो जाती है। यहां सुदूर गांवों में फैली इतनी बड़ी आबादी की स्क्रीनिंग करनी थी। लेकिन 60 हजार से अधिक निगरानी समितियों के चार लाख सदस्य जब गांव-गांव घूमकर संदिग्ध संक्रमितों की पहचानकर उन्हें रैपिड रिस्पांस टीम से टेस्ट कराने और दवाओं की किट पहुंचाने में जुटे, तो इसका प्रभाव भी दिखा। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने उत्तर प्रदेश की इस रणनीति की प्रशंसा भी की है। उत्तर प्रदेश के इस मॉडल को अन्य राज्यों में लागू किया जा सकता है।
आज उत्तर प्रदेश में 10 दिन में 95,000 मामले कम हुए हैं। रिकवरी की दर भी लगातार बढ़ रही है। उत्तर प्रदेश में आबादी 25 करोड़,मृत्यु लगभग 16,000, दिल्ली में आबादी पौने दो करोड़ मृत्यु 20,000, महाराष्ट्र में आबादी 12 करोड़ मृत्यु लगभग 58,000 हुई है। समस्या यह है कि संक्रमण गांवों तक पहुंच गया है। वहां जन व्यवहार में अज्ञानता का भी हाथ है। उच्च स्तरीय चिकत्सा सुविधा के लिए लोग शहरी मुख्यालयों पर निर्भर हैं। इसलिए दबाव बढ़ने से पहले सामुदायिक प्रयत्न तेज किए जाने चाहिए। टेस्ट, ट्रैक और ट्रीट के मंत्र के साथ दूसरी और तीसरी लहर से निपटने के लिए वहां भी मेडिकेशन, आक्सीजन और वैक्सीनेशन पर ताकत लगानी होगी। अच्छी बात है कि स्वास्थ्य ढांचे के विस्तार पर बात होने लगी है। शुरुआती दौर में ना-नुकर करनेवाले लोग भी वैक्सीन लगवा रहे हैं। 18 वर्ष से ज्यादा की नई उम्र सीमा के लोगों में दिख रहा उत्साह कोरोना के आगे जिंदगी को सकारात्मक आयाम देगा। यह लड़ाई सिर्फ स्वास्थ्यकर्मियों या सरकार की नहीं है, इसमें समाज की भी जिम्मेदारी है कि वह इस वायरस के प्रसार कोरोकने वाली जीवनचर्या को अपनाए, स्वास्थ्य गाइडलाइन का पालन करे। (लेखक किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं।)
सौजन्य - अमर उजाला।
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