भारत की पैरवी पर संयुक्त राष्ट्र ने २०२३ को बाजरे का साल घोषित किया है। बाजरे से बने ‘मुरूक्कू' खिलाकर भारत ने अपना स्वाद तो चढ़ा दिया सब पर लेकिन फिलहाल जो संकट है‚ उससे जूझने का कोई छोटा रास्ता नहीं है हमारे पास। हमें चिकित्सक चाहिए‚ तंत्र में चरित्र चाहिए और संकट की दस्तक सुनकर तुरंत खड़े होने वाले कान चाहिए। एक चिकित्सक जिन्होंने दवा की पर्ची पर पेड़ लगाने की सलाह लिखी‚ एक जिन्होंने बिगड़ते हालात में बेबस तंत्र की नाकामी लिखी। ऐसे अनगिनत जिन्हें जब–जब संवेदनाओं ने कचोटा तब उन्होंने गुहार लगाई‚ समझाइश की‚ नाराजगी जताई। हौसला भी भरपूर दिया। जैविक–जंग के हालात में हमें उस अoश्य को हराना है‚ जो हमारे जैव अंश की उस दीवार को लांघने से कतराता है‚ जिसमें लड़ने का भरपूर माद्दा है। जिन झिल्लियों पर पोषण के पहरेदार हैं‚ वहां विषाणुओं को मात जल्द मिलने का पैगाम होता है। यह हमारी नस्ल को बचाए रखने की कुदरती किलेबंदी है। ॥ ऐसे में हमारी परंपराओं‚ जंगलों‚ जीवों और धरती के साथ हिलमिलकर रहने वाले आदिवासियों की अनदेखी और उन्हें पिछड़ा मानकर ओझल कर देने वाली व्यवस्था अब कह रही है कि जिन्होंने हजारों साल पुराने जिन बीजों और पद्धतियों को सहेजा है‚ वही अच्छे जीवन की तिजोरियां हैं। जीन में छेड़छाड़ कर तैयार संकर बीजों ने‚ रसायनों के छिड़काव ने मिट्टी‚ पानी और फसलों को बेजान करके छोड़ दिया है। उनमें जहर घोल दिया है। किया–धरा हम सबका‚ मगर धकेले गए वो जिन्होंने बिगाड़ में नहीं‚ संभाल में हिस्सा लिया हमेशा। संयुक्त राष्ट्र की जुलाई‚ २०२० में मूलवासियों के हकों को लेकर आई खास रिपोर्ट ने कहा गया कि दुनिया की छह फीसद इस आबादी में डर है‚ उदासी है‚ दुश्वारियां हैं‚ जिन्हें हमने भुला दिया है और धकेल दिया है। जो धकेले नहीं गए थे‚ उन्हें भी अब अंतरात्मा को झकझोर देने वाली महामारी से दो–चार हाथ करने के बाद अपने खाने में कई तब्दीलियां करनी होंगी। पोषण वाले तिरंगे और सतरंगे खाने की पैरवी सरकारी संस्थाएं करती रही हैं। अब इन्हें रोजमर्रा की आदत में शामिल करने का वक्त है। बीमारियों को उलटे पांव लौटा देने की ताकत भी यही है। वनवासियों के अचूक नुस्खों और देसी उपज को बाजार का ठप्पा मिलने लगा है‚ लेकिन इससे उनकी उद्यमिता को कितना उठान मिला है‚ इसका आकलन भी किए जाने की जरूरत है। ॥ जिन मामलों में हमारे यहां दो राय कभी थी ही नहीं वहां दुनिया अब एक राय हो रही है। कोविड महामारी के दौर में लगातार बदलते बयानों के कारण अपनी साख गंवा चुका विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्लूएचओ भी कहने को मजबूर है कि हर देश की अपनी पारंपरिक समझ‚ खान–पान की अच्छी आदतें और जीवन की सक्रियता इस महामारी से बचाए रखेंगी। दोहन की नीति और अनीति की राजनीति के दौर में आखिर गंभीरता से किसे लिया जाए‚ इस दोराहे पर खड़े होकर भी हमें अपने पांव‚ दिल और दिमाग का भरपूर साथ चाहिए अभी। यूं हर पुरानी जानकारी और सारा खान–पान वैज्ञानिकता की कसावट में हो यह जरूरी नहीं। बिना प्रमाण‚ बिना तथ्य कही बातों की काट के लिए गूगल भी है‚ और असल लोग भी। सनातन ज्ञान और आधुनिक विज्ञान एक होकर पुख्ता तौर पर जब तक फैसला नहीं सुनाएंगे‚ तब तक परंपराओं के नाम पर गैर–वैज्ञानिक तीर–तुक्के खारिज नहीं हो पाएंगे। भारत में आज भी विज्ञान का जन–चेतना में पैरना बाकी है। दक्षिण भारत से शुरू हुई ‘पीपल्स साइंस मूवमेंट' जैसी पहल ओझल है। मुख्यधारा के संवाद और लोकभाषाओं की गपशप में समाधान और विज्ञान की बात होती तो जोर से सुनाई भी देती। उत्तराखंड के ‘बीज बचाओ' जैसे ढेरों आंदोलन भी अब याददाश्त से बाहर हैं। युवा पीढ़ी की ऑनलाइन दुनिया में सब खप गया है। जो खोजेगा‚ वो तो फिर भी पा ही जाएगा। यूं जैविक और ताकत वाले खाने के बढ़ते चाव का अंदाज भी यहीं से मिल रहा है। ॥ इकोविया इंटेलिजेंशिया की रिपोर्ट कहती है कि पिछले साल भर में जैविक उत्पादों की मांग बेतहाशा बढ़ी है। फिलहाल बाजार के बूते का नहीं कि इतनी मांग को पूरी भी कर पाए। आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस के जरिए लोगों की खान–पान की पसंद पहचानने वाले एक स्टार्टअप ने जाना कि जैविक और सेहत से भरे खाने के बारे में जानकारी जुटाने में २७ फीसद बढ़ोतरी है। देश की स्थानीय और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को हमारी हाट संस्कृति ने जिंदा रखा था‚ अब उसी का नया कलेवर सामने है। आजकल किसान–बाजार लगने लगे हैं‚ जहां मंडियों और बिचौलियों की मनमानी से बचे रहकर किसान अपनी मेहनत के सीधे–सच्चे दाम पा रहे हैं। रोगों से लड़ने की ताकत वाले फल‚ सब्जियां‚ बीज‚ सबकी पूछ और उनकी पूछताछ बढ़ रही है। वैदिक और आधुनिक ज्ञान को परंपराओं के साथ जोड़ने और किसानों की आय बढ़ाने के लिए काम कर रही महाराष्ट्र की भव्यता फाउंडेशन ने सत्तू और मौरिंगा सहित ढेरों सेहत भरे खानों के नये उत्पाद बनाए हैं‚ जिन्हें युवा और बच्चे भी शौक से खा लें। सूखे इलाकों की खूबियां बढ़ाने के लिए जुटे हुए जोधपुर के केंद्रीय शोध संस्थान ‘काजरी' ने बाजरे के बिस्किट सहित बाजार को भाने वाले ऐसे ढेरों उत्पाद तैयार किए हैं‚ जो सेहत भी दे रहे हैं‚ और स्वाद भी। राजस्थान में दूध से पनीर‚ घी और आइसक्रीम बन रही है‚ और साबुन‚ उबटन और सजने–संवरने का इतना सामान तैयार हो रहा है कि यदि इन्हें सही प्रचार मिले तो ये सब मिलकर अर्थव्यवस्था को चमकाने में कोई कसर ना छोड़ें। ॥ जब ऑक्सीजन के लिए मारामारी मची है‚ तो ऐसे में खून की कमी यानी हीमोग्लोबिन कम न हो‚ इसकी खबर पूरी रखनी है। बाजरा‚ चना‚ मूंग‚ पत्तेदार सब्जियां‚ सहजन‚ लहसुन‚ खट्टे फल सबके साथ नाता करीब से जोड़े रखना है। खेती के नाते मोटा अनाज और देसी उपज बेशकीमती हो गए हैं। जलवायु संकट का सामना भी ये कर लेते हैं‚ और जैव–विविधता को बरकरार रखने का जरिया भी यही हैं। मोटा दाना–जैविक खाना‚ यह कायदा ही कायम रहेगा अब। जो नहीं समझे हैं‚ उन्हें मल्टीग्रेन‚ स्मार्ट फामिÈग‚ मल्टी क्रॉपिंग के फायदे जान लेने होंगे। भारत अन्न–धान‚ फलों–दालों को बाहर बेच रहा है यानी अपना पेट भरने को तो भरपूर है हमारे पास। अब पोषण सुरक्षा में पूरी ताकत झोंकनी है। कुछ लौटते हुए‚ कुछ आगे बढ़ते हुए ‘पोषणम' को अपनी–अपनी दुनिया का ध्येय बनाकर ही जिंदगी की जंग जीतेंगे हम सब। फिलहाल साथ देना‚ साथ निभाना और अच्छा खाना ही सबसे बड़ा हासिल है।
सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।
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