दायित्व के निर्वहन से पीछे नहीं हटे सरकार (बिजनेस स्टैंडर्ड)

श्याम सरन 

भारत इस समय भीषण त्रासदी से गुजर रहा है। कोविड-19 महामारी से देश शवों के ढेर पर खड़ा है और अनगिनत परिवारों की दुनिया उजड़ गई है। इस महामारी ने यह बात भी उजागर कर दी है कि हमारा देश किस तरह अपने नागरिकों को न्यूनतम बुनियादी सुविधाएं देने में विफल रहा है और लोग स्वास्थ्य एवं जीने के अधिकार से वंचित रखे गए हैं। एक लोकतंत्र के तौर पर भारत अपने नागरिकों के लिए स्वाभिमान की जिंदगी सुनिश्चित करने में विफल साबित हुआ है और हालत इतनी खराब है कि मरने के बाद भी लोगों के शवों को उचित सम्मान नहीं मिल पा रहा है।


इस गहरे संकट के दौर में देश के नागरिक भगवान भरोसे छोड़ दिए गए हैं। बस आपसी भाईचारे, नागरिक समाज की सहानुभूति, सामुदायिक स्तर पर हो रहे प्रयासों और कुछ लोगों के नेक कर्मों की बदौलत वे कोविड-19 महामारी से जूझ रहे हैं। देश के संघीय ढांचे में पहले ही दरार पड़ गई थी और इस महामारी में दरार और चौड़ी हो गई है। आखिरकार, आपदा प्रबंधन में राज्यों से समन्वय करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की बनती है। जैसे ही केंद्र को लगा कि वह कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर से निपटने में विफल हो गया है उसने तपाक से राज्यों पर दोषारोपण करना शुरू कर दिया। 


आरोप-प्रत्यारोप की हवा जोर-जोर से बह रही है। केंद्र सरकार के एक वरिष्ठï मंत्री ने मौजूदा संकट से पल्ला झाड़ लिया और दावा कर डाला कि राज्य सरकारों को दूसरी लहर के प्रति पहले ही आगाह कर दिया गया था और उन्हें इसकी रोकथाम के आवश्यक उपाय करने के लिए कह दिया गया था। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस कथन का जिक्र करना किसी ने जरूरी नहीं समझा जो उन्होंने 28 जनवरी को विश्व आर्थिक मंच के सम्मेलन में कहा था।


प्रधानमंत्री के उस कथन का निहितार्थ यह था कि भारत कोविड-19 महामारी को मात देने में सफल रहा है और इससे निपटने में अब दुनिया का नेतृत्व करने के लिए तैयार है। भारत का वह दावा भी खोखला साबित हुआ है जिसमें उसने कहा था कि वह दुनिया में गरीब से लेकर अमीर देशों को टीके मुहैया करा रहा है। नौबत यह आ गई है कि 'दुनिया का दवाखाना' होने का दावा करने वाला भारत स्वयं दूसरे देशों से दवाएं और टीके मांग रहा है। देश के नागरिक लॉकडाउन के कारण अपने घरों में बंद हैं लेकिन सरकार सेंट्रल विस्टा परियोजना को आवश्यक सेवा बताकर नैतिकता से संबंध तोड़ रही है।


कोविड-19 महामारी से जान गंवा चुके लोगों की जलती चिताओं के बीच नए संसद भवन और प्रधानमंत्री के लिए भव्य आवास बनाने की परियोजना जारी रहने को एक विडंबना ही कहा जा सकता है। लोकतंत्र में जवाबदेही एक बुनियादी चीज है लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार का दूर तक इससे कोई लेना देना नहीं है। मैं इस बात की चर्चा पहले भी कर चुका हूं कि मौजूदा नेतृत्व किस तरह लोगों का ध्यान भटकाने में सफल रहा है। यह कार्य सांप्रदायिक धु्रवीकरण और राज्य सरकारों पर दोषारोपण करने से लेकर किसी बाहरी ताकत की साजिश बताने तक जैसे कई रूपों में हो रहा है। हालांकि देश जिस त्रासदी और संकट से जूझ रहा है उसमें लोगों का ध्यान भटकाना असंभव है।


चारों तरफ के हालात चीख-चीख कर सच्चाई बता रहे हैं। क्या सब कुछ नियंत्रण में होने का दावा कर और विदेशी, खासकर पश्चिमी मीडिया में हो रही आलोचनाओं का त्वरित जवाब देकर एक देश के तौर पर हम अपनी विफलता छुपा सकते हैं? या फिर देश में सरकार के आलोचक दुनिया को नुक्ताचीनी करने का मौका दे रहे हैं, इसलिए उन्हें क्या नहीं रोका जाना चाहिए? इन बातों में उलझकर भारत अपने हित नहीं साध सकता है। हम अपनी कमजोरी स्वीकार कर ही दूर कर सकते हैं। वर्तमान परिस्थितियों में शासन व्यवस्था में कमियां पूरी तरह उजागर हो गई हैं और यह अब किसी से छुप नही सकतीं। हमें इस बात से विचलित नहीं होना चाहिए कि विदेशी समाचार माध्यमों में भारत की कैसी तस्वीर पेश हो रही है, बल्कि हमारा सारा ध्यान अपनी हताश जनता को राहत और सुविधाएं देने पर होना चाहिए। देश और सरकार की छवि सुधारने का काम तो बाद में भी चलता रहेगा। 


किन खास बिंदुओं पर ध्यान देने की जरूरत?


सबसे पहले सरकार एवं प्रशासन को अपनी अति महत्त्वपूर्ण और स्वाभाविक जिम्मेदारियों के निर्वहन को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए। इनमें नागरिकों को सुरक्षा मुहैया कराना और उन्हें स्वास्थ्य एवं शिक्षा के अधिकार देना शामिल हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर सरकारें इन दायित्वों का निर्वाह करने में असफल रही हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में निजी सुरक्षा, निजी शिक्षा और निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र सर्वाधिक तेजी से आगे बढ़ रहे हैं और मुनाफा बटोर रहे हैं। सरकार अपनी जिम्मेदारियों के तहत ये सेवाएं सुचारु रूप से लोगों को देने में विफल रही है। मौजूदा हालात में इन क्षेत्रों को निजी क्षेत्र को थमाने के बजाय इन सेवाओं की आपूर्ति के ढांचे में सुधार की जरूरत आन पड़ी है। ये सेवाएं सार्वजनिक हित से जुड़ी हुई हैं और इसे सुनिश्चित करना सरकार का परम कत्र्तव्य है। जब सार्वजनिक हितों को प्राथमिकता दी जाती है तो परिणाम सकारात्मक होते हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं, जिन्होंने सार्वजनिक हितों को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाई है। 


दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया साक्ष्यों पर आधारित होनी चाहिए और इनके स्वतंत्र एवं आलोचनात्मक आकलन की भी गुंजाइश रखी जानी चाहिए। मुख्य नीतिगत निर्णय व्यापक एवं विश्वसनीय आंकड़ों पर आधारित होना चाहिए। तकनीक की मदद से आवश्यक आंकड़े जुटाना अब पूरी तरह संभव है। संभाव्यता तय करने के लिए सबसे पहले प्रायोगिक परियोजनाएं सतर्कतापूर्वक तैयार की जानी चाहिए। जन जागरूकता पैदा करना परियोजना नियोजन का अवश्य हिस्सा होना चाहिए। भविष्य के लिए सबक लेने के लिए परियोजना के क्रियान्वयन के बाद स्वतंत्र आकलन की व्यवस्था होनी चाहिए।


तीसरी अहम बात यह है कि भारत को एक ऐसी अर्थव्यवस्था नहीं तैयार करनी चाहिए जिसमें बाजार और आर्थिक तंत्र का बेजा फायदा उठाने की खुली छूट होती है। उद्यमशीलता और निवेशकों को आकर्षित करने के लिए आवश्यक ढांचा तैयार करने की बेहद जरूरत है। नियंत्रण एवं नियमन स्थापित करने से पहले सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इनके सफल एवं प्रभावी क्रियान्वयन के लिए इसके पास पर्याप्त तंत्र मौजूद हैं। ऐसी नीतियां लागू करने में विफल रहने से ही अर्थव्यवस्था में अवैध तरीके से आय अर्जित करने की बीमारी फैलती है। अगर रकम लोगों को अवैध तरीके से आसानी से मिल जाए तो कोई पूंजी लगाने और फिर आय अर्जित करने का जोखिम क्यों लेगा? भारत में यह व्यवस्था बीमारी की तरफ फैली है और इसी का नतीजा है कि इस महामारी के बीच हमें ऑक्सीजन, अस्पतालों में बिस्तर और अति आवश्यक दवाओं की कमी से जूझना पड़ रहा है। 


अंत में, ज्ञान, विशेषज्ञता और वृत्ति दक्षता का कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हमने विशेषज्ञों की चेतावनी की अनदेखी कर एक भीषण गलती की है। हमने एक ऐसा माहौल तैयार कर दिया है जिसमें पेशेवरों की भूमिका किसी एक राजनीतिक विचारधारा पर मुहर लगाने तक सीमित रह गई है। पंडित नेहरू ने जिस वैज्ञानिक धारणा की बात की थी उसे बढ़ावा देने के बजाय हमने इनकी राह में रुकावट पैदा कर दी है। नेहरू ने जिस सोच और बौद्धिक पूंजी तैयार करने में अहम भूमिका निभाई थी हमारा देश अब भी उनसे लाभान्वित हो रहा है। हालांकि अगर हमनें इनमें नयापन नहीं लाया और समय के साथ इनमें मूल्य वद्र्धन नहीं किया तो वांछित लाभ नहीं मिल पाएंगे। 


(लेखक पूर्व विदेश सचिव और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च से जुड़े हैं।)


सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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