आपदा के वक्त अपेक्षा की जाती है कि लोग अपने राजनीतिक स्वार्थ, जाति-धर्म-वर्ग-वर्ण जैसे संकीर्ण दायरों से ऊपर उठ कर एक-दूसरे का सहयोग करें, विपत्ति से पार पाने के रास्ते तलाश करें, मगर राजनीतिक दलों को वह भी एक सियासी अवसर के रूप में नजर आता है, तो इसे विडंबना के सिवा और क्या कह सकते हैं। इस वक्त जब पूरा देश कोरोना संक्रमण को रोकने, संक्रमितों को जरूरी उपचार और सुविधाएं उपलब्ध कराने, इस संक्रमण से पैदा दूसरे कुप्रभावों को रोकने, टीकाकरण अभियान को व्यापक बनाने के उपायों पर विचार कर रहा है, कुछ राजनीतिक दलों को इसमें दिखने वाली कमियों के बहाने सत्ता पक्ष पर हमला बोलने का अवसर मिल गया है। सत्ता में असंतुष्ट कुछ राजनेता भी इस बहाने अपनी खुन्नस निकालते देखे जा रहे हैं। सत्ता पक्ष भी पलटवार करते हुए विपक्षी दलों से निपटने में उलझा नजर आता है।
अब एक नया ‘टूलकिट’ प्रकरण विवाद का विषय बन गया, जिसे लेकर सत्तारूढ़ भाजपा ने विपक्षी कांग्रेस पर आरोप लगाया कि वह इस टूलकिट के जरिए प्रधानमंत्री की छवि खराब करने का प्रयास कर रही है। इस पर कांग्रेस भी हमलावर हुई और उसने इस प्रकरण को भाजपा की ही कारस्तानी करार दिया। इसे लेकर दोनों गुत्थमगुत्था हैं। इस कोरोना समय में जब स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण आम लोगों का हाल बेहाल है, तब राजनीतिक स्वार्थों का टकराव एक तरह से असल मुद्दे से ध्यान भटकाने की कोशिश ही कही जाएगी। केंद्र ने टीकाकरण उत्सव की घोषणा की, तो गैरभाजपा शासित राज्यों ने टीके की कमी का मुद्दा उछाल दिया।
इस पर कई दिन तक बहसें चलती रहीं। यहां तक कि टीके की कमी का पोस्टर छाप कर दिल्ली के कुछ इलाकों में चस्पां कर दिया गया। फिर आक्सीजन की कमी को राजनीतिक रंग दे दिया गया। सत्ता पक्ष ने भी आक्सीजन उपलब्ध कराने वाले विपक्षी नेताओं और पोस्टर चिपकाने वालों के खिलाफ कार्रवाई करके बेवजह किरकिरी बटोरी। यह मामला कुछ शांत हुआ तो दिल्ली के मुख्यमंत्री ने कोरोना के सिंगापुर स्वरूप और बच्चों के खतरे की आशंका को लेकर ट्वीट करके केंद्र सरकार से टकराव का नया मुद्दा पैदा कर लिया। अब उस बयान से अंतरराष्ट्रीय संबंधों में दरार का बायस बताया जा रहा है। उधर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मुद्दा बनाया है कि प्रधानमंत्री ने कोरोना को लेकर बुलाई बैठक में उन्हें बोलने का अवसर नहीं दिया।
हमारे देश में कुछ लोगों को राजनीतिक नोकझोंक से आनंद मिलता है, इसलिए उन्हें इन गैरजरूरी बयानबाजियों और हरकतों से तोष मिला भी होगा, पर असल समस्या के समाधान की दिशा में इनसे कोई लाभ मिला हो, कहा नहीं जा सकता। ऐसे बयानों और आरोप-प्रत्यारोपों से कुछ देर के लिए आम लोगों का ध्यान भटकाने में जरूर कुछ कामयाबी मिल जाती है। तो क्या राजनीतिक दल अपनी जिम्मेदारियों से मुंह फेरने और नाकामियों पर परदा डालने के लिए ऐसा करते हैं? कायदे से सबको साथ मिल कर इस भयावह आपदा से पार पाने के उपायों पर काम करना चाहिए, एक-दूसरे पर दोषारोपण करके या अपनी छवि चमकाने की कोशिश में बयानबाजी नहीं।
ऐसे समय में जब गांवों में लोग इलाज के अभाव में दम तोड़ रहे हैं, अनेक स्वयंसेवी संगठन और नागरिक संगठन, धर्मादा संस्थाएं लोगों की मदद के लिए सराहनीय काम कर रही हैं, तब राजनीतिक दल और सरकारें उनके कंधे से कंधा मिला कर काम करने के बजाय सियासी स्वार्थ के चलते आपस में उलझी नजर आ रही हैं, तो इसे कोई अच्छी बात नहीं माना जाना चाहिए।
सौजन्य - जनसत्ता।
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