युद्ध के मुहाने (जनसत्ता)

इसमें कोई शक नहीं कि इजराइल और फिलस्तीन के बीच विवाद करीब सात दशक पुराना है, लेकिन पिछले कुछ दिनों से उस समूचे इलाके में जिस तरह का संघर्ष चल रहा है, उसने विश्व समुदाय की चिंता बढ़ा दी है। हाल ही में अल-अक्सा मस्जिद में नमाज पढ़ने आए फिलस्तीनियों और इजराइली सैनिकों के बीच झड़प के बाद भड़की हिंसा ने अब जो शक्ल अख्तियार कर ली है, अगर उसे तुरंत नहीं रोका गया तो शायद यह आधुनिक दौर के एक त्रासद टकराव के तौर पर दर्ज होने जा रहा है। सवाल है कि इस संघर्ष को रोकेगा कौन? कहने को संयुक्त राष्ट्र के जिम्मे दुनिया भर में किसी भी वजह से होने वाले ऐसे युद्धों को रोकने का दायित्व है। लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है कि या तो वह महज औपचारिक प्रतिक्रिया जाहिर कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेने वाली संस्था के तौर पर सिमट कर रहा गया है या फिर उस पर अमेरिका जैसे ताकतवर देशों का प्रभाव काम करता है। अब अगर अमेरिका खुद परोक्ष रूप से इजराइल के पक्ष में खड़ा है, तब ऐसे में हल या फिर कम से कम तात्कालिक तौर पर वहां फैली व्यापक हिंसा पर रोक लगने की उम्मीद कहां से आएगी!

गौरतलब है कि अल-अक्सा मस्जिद पर भड़की हिंसा के बाद इजराइली सैनिकों के हमले में अब तकरीबन सवा दो सौ फिलस्तीनियों की जान जा चुकी है, जिसमें पांच दर्जन से ज्यादा बच्चे थे। दूसरी ओर, हमास के हमले में इजराइल में बारह लोगों की मौत हुई। संघर्ष या टकराव की बुनियाद में जो कारण है, उस पर बात करना अब शायद इजराइल को अपने पक्ष में या फिर सुविधाजनक नहीं लगता है, दूसरी ओर हमास को समस्या के हल का अकेला रास्ता हिंसक टकराव लगता है। सच यह है कि फिलस्तीन के एक हिस्से में एक देश के रूप में अस्तित्व में आने के बाद से अब तक इजराइल ने खुद को सैन्य मोर्चे पर इतना ताकतवर बना लिया है कि युद्ध में उसका सामना करना अकेले हमास के बूते संभव नहीं है।

दूसरी ओर, फिलस्तीन के पास स्थायी सेना तक नहीं है और ईरान जैसे कुछ देशों के सहयोग से हमास ही इजराइल के खिलाफ जंग लड़ता है। समस्या यह है कि हमास को अंतरराष्ट्रीय पटल पर कोई वैध हैसियत हासिल नहीं है और उसे एक आतंकवादी समूह के तौर पर देखा जाता है। यही वजह है कि हमास से संघर्ष के मसले पर इजराइल को अमेरिका या दुनिया के कई देशों का औपचारिक समर्थन मिल जाता है।

युद्ध के मोर्चे पर इजराइल के पक्ष में एकतरफा तस्वीर और अमूमन हर बार के टकराव में फिलस्तीनी जान-माल की व्यापक हानि के बावजूद न तो संयुक्त राष्ट्र को दखल देकर समस्या का स्थायी हल निकालने की जरूरत नहीं लगती है, न दुनिया के दूसरे ताकतवर और विकसित देश फिलस्तीन के पक्ष में कोई ठोस हस्तक्षेप कर पाते हैं। यही वजह है कि हर युद्ध और छोटे-मोटे टकराव के मौके पर इजराइल को अपना विस्तार करने का मौका मिल जाता है, वहीं फिलस्तीन का भौगोलिक क्षेत्र भी सिकुड़ता जा रहा है।

अमूमन हर मौके पर मानवाधिकारों की दलील पर दूसरे देशों में दखल देने वाले ताकतवर देश भी इजराइल-फिलस्तीन टकराव में बच्चों समेत भारी तादाद में लोगों के मारे जाने पर अनदेखी करने का रवैया अख्तियार कर लेते हैं। सवाल है कि जो संयुक्त राष्ट्र और वैश्विक समुदाय दुनिया के कई देशों के आंतरिक मामलों में दखल देने के लिए उतावला रहता है, उसे इजराइल की स्थापना के समय उसके और फिलस्तीन के बीच तय हुई वास्तविक सीमा रेखा के मद्देनजर कोई ठोस हल निकालने की जरूरत क्यों नहीं लग रही है!

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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