निखिल पांधी, शोधकर्ता, चिकित्सा व सांस्कृतिक नृविज्ञान, प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी
पश्चिमी अफ्रीका में इबोला महामारी ने 28,616 लोगों को संक्रमित किया था और 2014 से 2016 के बीच सिएरा लियोन, लाइबेरिया और गिनी में 11,310 लोगों की मौत हुई थी। इबोला से हुई वह त्रासदी भले ही एक क्षेत्र विशेष की थी, लेकिन कोविड-19 महामारी के समय वह गौरतलब है। आज जब दूसरी लहर भारत को कुचल रही है, तब सूक्ष्म और स्थूल, दोनों स्तरों पर इबोला संकट से हम सबक ले सकते हैं। सबसे पहले, इबोला की तरह ही कोविड-19 को भी देखभालकर्ता को भी होने वाली बीमारी के रूप में माना जाना चाहिए। पश्चिमी अफ्रीका में इबोला के इलाज से जमीनी स्तर पर जुड़े रहे विश्व प्रसिद्ध संक्रामक रोग चिकित्सक और मानव विज्ञानी पॉल फार्मर ने अपनी पुस्तक फेवर्स, फ्यूड्स ऐंड डायमंड्स : इबोला ऐंड द रैवेजेज ऑफ हिस्ट्री में लिखा है - महत्वपूर्ण बात यह है कि हजारों लोगों को इबोला इसलिए हुआ, क्योंकि वे बीमार लोगों की सेवा व मृतकों के अंतिम संस्कार में लगे थे। कोविड-19 के मामले में भी पहचानना जरूरी है कि यह देखभाल करने वालों, जैसे डॉक्टरों, नर्सों व पैरा-मेडिकल स्टाफ से लेकर घर, अस्पताल, क्लिनिक और श्मशान में काम करने वालों को प्रभावित कर रहा है। आज सेवा में लगे लोगों को अपने छोटे-छोटे प्रयास के स्तर पर कमियों को पहचानने व सुधार करने की जरूरत है।
टीकाकरण से परे भारत सरकार को कोरोना के खिलाफ मोर्चा ले रहे अग्रिम पंक्ति के योद्धाओं को जोखिम से बचाने के लिए ठोस योजना विकसित करनी चाहिए। अग्रिम पंक्ति के योद्धाओं की कमी का जोखिम बहुत वास्तविक है। श्मशान, कब्रिस्तान और मोर्चरी में कार्यरत लोग आम तौर पर दलित-दमित वर्ग से आते हैं, क्या उन्हें राज्य मान्यता देता है? क्या ऐसे उपेक्षित श्रमिकों (और उनके परिवारों) के लिए सरकार ने किसी बीमा की व्यवस्था की है? साफ है, इबोला या कोरोना से पीड़ित लोगों के साथ-साथ उनकी तिमारदारी करने वालों को भी उतनी ही गंभीरता से लिया जाए। दूसरा, संक्रमितों की देखभाल-क्षमता का विकास पहले करने के बाद ही कंटेनमेंट बनाकर वायरस से मुकाबले के निर्देश जारी किए जाने चाहिए। लॉकडाउन की घोषणा और सिर्फ जबरदस्ती से रोकथाम के उपाय लागू करना अपने आप में कोई समाधान नहीं है। इबोला के मामले में पॉल फार्मर चर्चा करते हैं, सार्वजनिक स्वास्थ्य और बायो-मेडिसिन राज्य के सामाजिक अनुबंध का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। सुरक्षित और प्रभावी देखभाल सुनिश्चित किए बिना रोकथाम की नीति की अपनी सीमाएं हैं। इबोला के समय भली-भांति देखा गया था कि ऐसा करना न सिर्फ पीड़ितों के जीवन को खतरे में डालता है, बल्कि राज्य के खिलाफ आक्रोश भी पैदा करता है, जो अविश्वास का रूप ले सकता है। अपने हाल पर छोड़ दिए गए लोग कंटेनमेंट, संपर्क-ट्रेसिंग और टीकाकरण का विरोध भी कर सकते हैं।
तीसरा, भारत में मौजूदा संकट इसलिए भी ज्यादा है, क्योंकि अस्पताल जरूरत से ज्यादा दबाव में आ गए हैं, और राज्य बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में नाकाम है, ऑक्सीजन, बिस्तर, उपकरण, दवाएं और टीके का अभाव है। इबोला संकट भी यही दर्शाता है कि बुनियादी कर्मचारियों, सामग्री और देखभाल की व्यवस्था का अभाव था। पश्चिमी अफ्रीका में स्वतंत्र इबोला उपचार इकाइयां सामुदायिक सक्रियता के माध्यम से स्थापित की गई थीं और दूसरे व तीसरे स्तर की चिकित्सा की अनुपस्थिति में दो साल तक कायम थीं। भारत में उन इलाकों में चिकित्सा इकाइयों को तेजी से विकसित करना चाहिए, जिनके आसपास लोग इलाज के अभाव में मर रहे हैं, जहां अस्पताल में जगह नहीं मिल रही। लोग कोरोना से नहीं, बल्कि स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी से जान गंवा रहे हैं। अभी बुनियादी चिकित्सा ढांचे की अनुपस्थिति भारी पड़ रही है। आज जांच और इलाज के लिए तत्काल चिकित्सा इकाइयों और ऑक्सीजन हब बनाने की जरूरत है। चौथा, हम वायरल महामारी में स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारकों की उपेक्षा नहीं कर सकते। भारत में चल रही दूसरी लहर में संक्रमण और चिकित्सा व्यवस्थाओं की विफलता मध्य व उच्च-मध्य वर्गों को प्रभावित कर रही है। यह 2020 की पहली लहर से अलग है, जिसमें सबसे पहले दुर्बल श्रमिक, प्रवासी श्रमिक, गरीब व सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित ज्यादा निशाने पर थे। हमें खुद से पूछना चाहिए, राज्य, मीडिया, नागरिक (नेटिजन सहित) और चिकित्सा व्यवस्थाएं पहली और दूसरी लहर के बीच के समय में पर्याप्त कदम उठाने में नाकाम क्यों रहीं? वर्तमान दौर दर्शाता है कि वर्ग और जाति के आधार पर संकट व देखभाल की हमारी धारणा कैसे तय की जाती है? हम सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति तभी गंभीर होते हैं, जब उच्च वर्ग के लोग शिकार होने लगे।
पांचवां, वायरस हमेशा समाज में कमजोरियों का पीछा करते हैं, और समाज की दरारों व कमियों पर हमला बोलते हैं। जैसा कि पॉल फार्मर ने एक साक्षात्कार में कहा था, महामारी की शुरुआत में एक भ्रम होता है कि यह नया वायरस समाज में सभी वर्गों, लोगों को समान रूप से प्रभावित करेगा, लेकिन ऐसा कभी होता नहीं है। आज वायरस की गति को समझने और उसे काबू करने के लिए हमें अपनी सामाजिक व्यवस्था को अधिक संवेदनशील ढंंग से समझना चाहिए। इबोला के मामले में पॉल फार्मर इतिहास में समस्या की जड़ें तलाशते हैं। उपनिवेशवाद व उत्तर-औपनिवेशिक गृह युद्धों, जातीय संघर्ष और शोषणकारी संरचनात्मक ढांचा इबोला से मची तबाही के लिए जिम्मेदार हैं। भारतीय संदर्भ में देखें, तो स्वास्थ्य के प्रति सरकारों के रवैये का आधार नस्ल, वर्ग, लिंग या जातीयता नहीं रही है। इसी वजह ने सार्वजनिक स्वास्थ्य को सामाजिक या सरकारी प्राथमिकता के रूप में आकार लेने से रोका। ऐसे में, बीमार स्वास्थ्य व्यवस्था की जिम्मेदारी पीड़ितों पर ही डाल देना आम बात है। वैज्ञानिकों और वायरोलॉजिस्टों के साथ, जिनके प्रयास महत्वपूर्ण हैं, भारत सरकार को अपनी आपदा तैयारियों में समाज विज्ञानियों, सामुदायिक स्वयंसेवकों और नियमित रूप से समाज पर नजर रखने वाले लोगों को शामिल करना चाहिए। सिर्फ इबोला ही नहीं, एड्स जैसी वैश्विक महामारियों के रिकॉर्ड से भी इलाज की खास जरूरतों की पूर्ति, कमजोर समूहों की पहचान और मौजूदा देखभाल उपायों का सही पता चलता है। इबोला से सीखते हुए हमें खुद को याद दिलाना चाहिए कि एक अच्छी स्वास्थ्य व्यवस्था ही वायरस जनित खतरों को जवाब दे सकती है। कोई आपातकालीन व्यवस्था नहीं, बल्कि ऐसी रोजमर्रा की व्यवस्था ही आपदा से मुकाबले के लिए खड़ी होती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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