कोविड -19 की दूसरी लहर मेंं आरबीआई के पास विकल्प (बिजनेस स्टैंडर्ड)

तमाल बंद्योपाध्याय 

अभी हाल तक अधिकांश विश्लेषक मानते थे कि निकट भविष्य में अत्यधिक शिथिल मौद्रिक नीति ही भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर शक्तिकांत दास के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी। नीतिगत दरें मई 2020 से ही ऐतिहासिक रूप से निचले स्तर पर थीं और नकदी की कमी नहीं थी लेकिन कोविड महामारी की दूसरी लहर ने हालात बदल दिए। अब दास के सामने तात्कालिक चुनौती यह है कि वे बैंकों के परिसंपत्ति प्रबंधन में सहायता करें और तनावग्रस्त कर्जदारों को सहारा दें। इस दौरान वित्तीय स्थिरता भी सुनिश्चित करनी है।

कॉर्पोरेट जगत उतना प्रभावित नहीं दिखता। इस बार मार असंगठित क्षेत्र और छोटे तथा मझोले उपक्रमों पर पड़ी है। गत 26 मार्च तक विनिर्माण क्षेत्र के सूक्ष्म और छोटे उपक्रमों का बकाया ऋण 3.84 लाख करोड़ रुपये था। विनिर्माण और सेवा क्षेत्र के मझोले उपक्रमों का बकाया ऋण 1.36 लाख करोड़ रुपये था। खुदरा कारोबारों को बैंकों ने 2.98 लाख करोड़ का कर्ज दिया था। इसके अलावा प्राथमिकता क्षेत्र मेंं सूक्ष्म और लघु उपक्रमों को11.07 लाख करोड़ रुपये तथा मझोले उपक्रमों को 2.06 लाख करोड़ रुपये का कर्ज दिया गया था। प्राथमिकता के मानकों के अनुसार बैंकों को कुल ऋण का 40 प्रतिशत कृषि, छोटे उपक्रमों और संगठित-असंगठित क्षेत्र के अन्य हिस्सों को देना होता है। कोविड की दूसरी लहर इनके बड़े हिस्से को प्रभावित कर रही है।


सूक्ष्म, लघु और मझोले उपक्रम मंत्रालय की 2020 की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 6.34 करोड़ ऐसी इकाइयां हैं जिनमें 11.1 करोड़ लोग काम करते हैं। सीआईआई की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार देश के विनिर्माण जीडीपी में क्षेत्र का योगदान 6.11 फीसदी और सेवा गतिविधियों के जीडीपी में 24.63 फीसदी है। देश के विनिर्माण उत्पादन में इसकी हिस्सेदारी 33.4 फीसदी है। वाणिज्यिक खुफिया एवं सांख्यिकी महानिदेशालय के मुताबिक वर्ष 2018-19 में भारत से होने वाले कुल निर्यात में एमएसएमई उत्पादों की हिस्सेदारी 48.10 फीसदी थी। अप्रैल में एक आयोजन में एमएसएमई मंत्री नितिन गडकरी ने कहा था कि अर्थव्यवस्था में इस क्षेत्र का कुल योगदान आने वाले वर्षों में 30 फीसदी से बढ़कर 40 फीसदी हो जाएगा। राष्ट्रीय लॉकडाउन नहीं लगा है लेकिन विभिन्न राज्य लोगों की गतिविधियां सीमित कर रहे हैं। दूसरी लहर से निपटने कारोबारों को भी नियंत्रित किया जा रहा है आपूर्ति शृंखला बाधित हो रही है। नोमुरा इंडिया बिजनेस रिजंप्शन इंडेक्स ने 25 अप्रैल को समाप्त सप्ताह में 75.9 अंकों की गिरावट दर्ज की। इससे पहले यह स्तर अगस्त 2020 में दर्ज किया गया था। बीते दो माह में इसमें 25 अंकों की गिरावट आई।


उपभोक्ता शोध फर्म कैंटर वल्र्ड पैनल के मुताबिक जनवरी-मार्च तिमाही में भारत का ग्रामीण बाजार केवल 3 फीसदी विकसित हुआ जो दिसंबर तिमाही के 7 फीसदी से काफी कम है और इसमें और कमी आ सकती है। कोविड की पहली लहर ने गांवों को प्रभावित नहीं किया था जबकि इस बार मामला उलट है। माना जा रहा है कि संक्रमितों और मृतकों की वास्तविक तादाद घोषित से कहीं अधिक है। नतीजा यह कि एमएसएमई उद्योग ऑक्सीजन के लिए तड़प रहा है।


आरबीआई ने गत वर्ष नीतिगत दरों में कटौती के अलावा कई तरह से नकदी बहाल की थी। ऋण चुकाने पर छह महीने की राहत और संकटग्रस्त परिसंपत्तियों के पुनर्गठन के लिए केवी कामत की अध्यक्षता में समिति का गठन किया गया था। सरकार ने एमएसएमई को 3 लाख करोड़ रुपये का पूर्ण गारंटी ऋण देने की पेशकश की थी।


एमएसएमई क्षेत्र के लिए प्रभावित क्षेत्रों के ऋण के पुनर्भुगतान को स्थगित किया जा सकता है। किसी ऋण को फंसा हुआ घोषित करने की अवधि 90 दिन से बढ़ाकर 180 दिन कर दी जाए ताकि उन्हें चुकाने को अधिक समय मिले। यह इजाफा भी ऐसी फर्म के लिए किया जाना चाहिए जो मंशा होने पर भी ऋण चुकाने में असमर्थ हैं।


बैंकिंग तंत्र पहली लहर से अपेक्षाकृत बेहतर तरीके से निपट सका। अतीत की तरह इसने पुनर्गठन का दुरुपयोग नहीं किया। फंसा हुआ कर्ज भले ही 7.5 फीसदी से बढ़कर 31 मार्च तक 9.5 फीसदी हो गया लेकिन दो फीसदी ऋण का पुनर्गठन भी हुआ। एमएसएमई और असंगठित क्षेत्र वाकई दबाव में हैं। यदि आरबीआई आगे नहीं आता तो कुछ एमएसएमई का ऋण आने वाले समय में फंसे हुए कर्ज में तब्दील हो जाएगा। ऐसा तब होता है जब कर्जदार 90 दिन में उसे न चुका सके। आरबीआई की जनवरी की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में कहा गया था कि सकल फंसा हुआ कर्ज सितंबर 2021 तक बढ़कर 13.5 से 14.8 फीसदी के बीच हो सकता है। दास अपारंपरिक तरीके अपनाकर इन दिक्कतों से सीधे मुकाबला कर सकते हैं। एमएसएमई ऋण के स्थगन के बजाय बैंकों को भुगतान से राहत दी जा सकती है और संकटग्रस्त कर्जदारों से निपटने का निर्णय उन पर छोड़ा जा सकता है।


वह बैंकों को एक खास सीमा तक सस्ता ऋण भी दे सकते हैं ताकि वह राशि छोटे कर्जदारों को दी जा सके। बैंकों के सामने नकदी संकट नहीं है लेकिन वे सरकारी बॉन्ड की खरीद से पर्याप्त राशि जुटा सकते हैं। इससे उन्हें सूक्ष्म ऋण में नुकसान की भरपाई करने में मदद मिलेगी।


सन 2008 के वैश्विक संकट के समय अमेरिकी सरकार ने शीर्ष बैंकों को बचाने के लिए नकदी दी थी। यहां सरकार द्वितीय श्रेणी की पूंजी को राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक तथा भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक की सहायता से जरूरत बैंकों को देकर आय अर्जित कर सकती है। येस बैंक और लक्ष्मी विकास बैंक जैसी घटनाओं में बॉन्ड धारकों को नुकसान होने के बाद बैंकों के लिए 12-13 फीसदी ब्याज के बाद भी द्वितीय श्रेणी के बॉन्ड जुटाने में मुश्किल हो रही है। बैंकों की मजबूती के लिए पूंजी जरूरी है।


संकटग्रस्त कर्जदारों में कोई नीरव मोदी या विजय माल्या नहीं है। बैंक भी सबक सीख चुके हैं। अब दोनों पर भरोसा करने का वक्त है।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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