जलवायु कूटनीति की मुखर होती चेतावनी (बिजनेस स्टैंडर्ड)

नितिन देसाई  

ऐसा लगता है कि वैश्विक जलवायु कूटनीति एक नए एवं अधिक एक्टिविस्ट दौर में प्रवेश कर रही है। देशों के वर्ष 2050 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने का संकल्प जताने जैसी घोषणा में यह नजर भी आता है। चीन ने भी वर्ष 2060 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य घोषित किया हुआ है। इसी तरह यूरोप, ब्रिटेन, अमेरिका एवं जापान ने वर्ष 2030 तक उत्सर्जन स्तर में कटौती की घोषणा की है।

अमेरिका और चीन के उत्सर्जन लक्ष्यों में बदलाव का ऐलान अहम है। वैश्विक जलवायु कूटनीति 40-40-20 शक्तिसंरचना पर काम करती है। पहले 40 फीसदी में दो बड़े उत्सर्जक चीन एवं अमेरिका (जी-2) शामिल हैं जो वैश्विक उत्सर्जन में 40 फीसदी अंशदान देते हैं और किसी भी प्रभावी समझौते के लिए इन दोनों देशों की सक्रिय भागीदारी एक पूर्व-शर्त है। दूसरे 40 फीसदी हिस्से में भारत समेत 18 देश शामिल हैं जिनमें से हरेक देश कम-से-कम 1 फीसदी वैश्विक कार्बन उत्सर्जन करता है। सामूहिक तौर पर ये देश इस समूह में जी-2 जितने ही अहम हैं और उत्सर्जन नतीजों पर कुछ हद तक निजी दखल रखते हैं। बाकी 20 फीसदी हिस्से में दुनिया के करीब 180 अन्य देश हैं जो उत्सर्जन की पीड़ा झेलने को अभिशप्त हैं।


तेजी से अहम होता जा रहा एक कारक वैज्ञानिक संगठनों एवं वैश्विक एक्टिविस्ट समूहों का सार्वजनिक हस्तक्षेप है। इसका एक उदाहरण वर्ष 2018 में जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) द्वारा जारी एक रिपोर्ट है जो तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस के बजाय 1.5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि के असर को दर्शाती है। इस रिपोर्ट ने पेरिस जलवायु समझौते में उल्लिखित संक्रमण की रफ्तार बढ़ाने पर विमर्श को तेज कर दिया है और देशों ने वर्ष 2050 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने का संकल्प जताना शुरू कर दिया है।


21वीं सदी के मध्य तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने के लिए वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि से कम नहीं रह पाएंगे, अगर अगले 30 वर्षों में हम मौजूदा नीतियों द्वारा लागू दरों पर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करना जारी रखते हैं। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वर्ष 2030 तक अंतराल 59 गीगा टन कार्बन डाई ऑक्साइड के बराबर रहने के आसार हैं और दुनिया की ताप वृद्धि को अगर 1.5 डिग्री सेल्सियस तक ही सीमित रखना है तो 25 गीगा टन कार्बन डाई ऑक्साइड समकक्ष का फासला काफी बड़ा है। वर्ष 2050 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य कोई मायने नहीं रखता है अगर हम उत्सर्जन कटौती में तेजी नहीं ला पाते हैं और पेरिस सम्मेलन में घोषित 2030-पश्चात के लक्ष्य नहीं बढ़ाते हैं।


पिछले दिनों अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने ऐलान किया कि 13 फीसदी ग्रीनहाउस उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार उनका देश वर्ष 2030 तक इसमें 50 फीसदी की कमी करेगा। इस वादे का एक अहम हिस्सा उन कदमों पर आधारित है जिन्हें अमेरिकी संसद कांग्रेस से मंजूरी हासिल करनी है। वैश्विक उत्सर्जन में 9.3 फीसदी अंशदान करने वाले यूरोपीय संघ एवं ब्रिटेन ने 2030 तक उत्सर्जन में 55 फीसदी कटौती करने की बात कही है, वहीं 2.8 फीसदी भागीदारी वाले जापान ने 46 फीसदी कटौती की घोषणा की है। इस तरह करीब 25 फीसदी उत्सर्जन वाले तमाम बड़े विकसित देशों ने वर्ष 2030 तक उत्सर्जन कटौती के लक्ष्य घोषित किए हैं जो उन्हें ताप वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए करना चाहिए।


लेकिन क्या यही काफी है? हानिकारक उत्सर्जन में इन देशों के अपराध और विकासशील देशों के लिए कार्बन गुंजाइश बनाने की जरूरत को देखते हुए क्या उन्हें अधिक प्रयास नहीं करने चाहिए? अगर अमेरिका, यूरोपीय संघ एवं ब्रिटेन और जापान वर्ष 2030 तक उत्सर्जन स्तर में बड़ी कटौती करने और 2050 तक शून्य उत्सर्जन के अपने ऐलान को पूरा कर देते हैं तो भी उन्हें अब से 2050 तक उपलब्ध 150 गीगा टन कार्बन डाई ऑक्साइड समकक्ष की कार्बन गुंजाइश का इस्तेमाल करना होगा। जिस समय तक वे शुद्ध-शून्य उत्सर्जन लक्ष्य तक पहुंचते हैं, वे औद्योगीकरण-पूर्व काल से उपलब्ध कार्बन गुंजाइश का 976 गीगा टन इस्तेमाल कर चुके होंगे। इसी आधार पर चीन वर्ष 2060 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य तक पहुंचने तक 530 गीगा टन कार्बन डाई ऑक्साइड की कार्बन गुंजाइश पूरा कर चुके होंगे।


भारत चीन जैसी स्थिति में नहीं है। इसका कार्बन उत्सर्जन चीन के एक-चौथाई उत्सर्जन से थोड़ा ही अधिक है। इसके बावजूद भारत पर शुद्ध-शून्य उत्सर्जन लक्ष्य की तारीख के ऐलान का दबाव होगा। अगर यह मान लें कि भारत वर्ष 2040 में 4.5 गीगा टन सीओ2 समकक्ष के कार्बन उत्सर्जन शिखर पर होगा जो इसके मौजूदा स्तर का करीब दो-तिहाई है और वर्ष 2070 तक भारत शुद्ध- शून्य उत्सर्जन स्तर तक पहुंच जाएगा तो फिर उसे सिर्फ 194 गीगा टन सीओ2 समकक्ष कार्बन गुंजाइश की ही जरूरत होगी। साझा कार्बन गुंजाइश के बिलगाव में इस फर्क के लिए जरूरी है कि औद्योगिक देशों को वर्ष 2050 के पहले ही शुद्ध-शून्य उत्सर्जन तक पहुंचने का लक्ष्य रखना चाहिए और आर्थिक समृद्धि की राह पर देर से चलने वाले भारत जैसे देशों के लिए जगह खाली रखी जाए।


भारत को अपने लक्षित शुद्ध-शून्य तारीख के बारे में किसी भी व्यवहार्य ऐलान के लिए अधिक व्यापक विश्लेषण के बाद ही राजी होना चाहिए क्योंकि वर्ष 2050 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने के बारे में उपलब्ध कुछ अध्ययन काफी हद तक अवास्तविक राह का खाका पेश करते हैं। भारत सावधानीपूर्वक अध्ययन के बाद शून्य उत्सर्जन की जो तारीख घोषित कर सकता है वह इस शर्त पर होनी चाहिए कि भारत को रियायती वित्त एवं तकनीकी प्रवाह बना रहे। जलवायु न्याय के नजरिये से ऐसा होना बेहद जरूरी है और आगे चलकर यह किसी शर्त के बगैर होगा।


इस अहम मसले पर ध्यानपूर्वक अध्ययन करने की जरूरत है कि भारत बिजली उत्पादन के लिए कोयले का इस्तेमाल बंद करने के लिए क्या समय-सीमा तय करे? राष्ट्रपति बाइडन द्वारा हाल ही में बुलाए गए सम्मेलन में चीन ने यह ऐलान किया कि वह 2026 में अपनी 15वीं पंचवर्षीय योजना शुरू होने के साथ ही कोयला उपयोग कम करना शुरू कर देगा। वहीं भारत में कोयला आधारित कुछ बिजली संयंत्र वर्ष 2026-27 तक उत्पादन शुरू करने की स्थिति में पहुंचेंगे। लेकिन भारत नवीकरणीय ऊर्जा के लिए एक महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम भी चलाए हुए है जिससे वर्ष 2030 तक वह 40 फीसदी बिजली पैदा कर पाएगा। उसके बाद के दौर में अतिरिक्तबिजली मांग की भरपाई नवीकरणीय ऊर्जा से ही होने की उम्मीद है। इसके साथ ही इस्पात एवं सीमेंट उत्पादन में कोयला उपभोग घटाने के लिए मुहिम चलाकर भारत कोयला उपभोग के 2030 के बाद अधिकतम स्तर पर पहुंचने और फिर उसमें क्रमिक गिरावट आने की तारीख दे सकता है।


हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ये आकलन एवं प्रतिबद्धताएं उपभोग के बजाय उत्पादन से होने वाले उत्सर्जन पर आधारित हैं। उपभोग-आधारित विश्लेषण ने हमें दिखाया है कि दुनिया के सबसे धनी 10 फीसदी लोगों का कुल उत्सर्जन में 48 फीसदी अंशदान है और इनमें से आधे लोग उच्च-आय वाले देशों में रहते हैं और बाकी आधे लोगों में से अधिक मध्य-आय वाले देश के निवासी हैं। इस तरह समान लेकिन विभेदीकृत दायित्व के सिद्धांत का अंतर-देशीय नजरिया धनी एवं गरीब लोगों के बीच सामाजिक न्याय के कुछ बुनियादी सिद्धांतों से भी जुड़ा हो सकता है।


भारत ने पेरिस जलवायु सम्मेलन में की गई अपनी प्रतिबद्धताओं पर प्रभावी एवं सम्मानजनक ढंग से अमल किया है। उसे 2030 के उत्सर्जन लक्ष्यों की महत्ता पर जोर देने से पडऩे वाले दबावों का भी सामना करना होगा। भारत को सजग अध्ययन के बाद शुद्ध-शून्य उत्सर्जन की भरोसेमंद तारीख तय करने की जरूरत है ताकि जलवायु न्याय के सिद्धांत राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित प्रतिबद्धताओं और उनकी निगरानी एवं मूल्यांकन में भी नजर आएं।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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