सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि लोन न चुकाने वाली कंपनियों के मामले में इन्सॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्सी कोड (आईबीसी) की प्रक्रिया शुरू होने का मतलब यह नहीं है कि ये कंपनियां और लोन के पर्सनल गारंटर देनदारी की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि कोर्ट ने ऐसे मामलों में पर्सनल गारंटरों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने का रास्ता भी साफ कर दिया। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले से संबंधित 75 याचिकाएं थीं, जो अलग-अलग हाईकोर्ट में दायर की गई थीं। पिछले साल ये सारे मामले सुप्रीम कोर्ट में हस्तांतरित किए गए थे। यह फैसला इस मायने में भी अहम माना जा रहा है कि इससे 2016 में लाई गई
दीवाला और दिवालियापन संहिता यानी आईबीसी पर ठीक से अमल की राह में आ रही सबसे बड़ी बाधा के हटने की उम्मीद बन गई है। बैंकों के बैड लोन की गंभीर होती समस्या के मद्देनजर डिफॉल्टर कंपनियों से बकाया वसूली के लिए आईबीसी लाया गया था, जो व्यवहार में ज्यादा फायदेमंद साबित नहीं हो रहा था।
दिक्कत यह है कि इससे लोन देने वाली वित्तीय कंपनियों और बैंकों का फंसा हुआ पूरा पैसा वापस नहीं मिल पा रहा था। आईबीसी के तहत लोन पर पर्सनल गारंटी देने वाले प्रमोटरों के खिलाफ कार्रवाई रोकने के लिए संबंधित पक्ष कोर्ट चले गए। उनका कहना था कि बैंकों को ऐसा करने का अधिकार नहीं है। इसी सिलसिले में आईबीसी के संबंधित प्रावधानों को चुनौती मिली थी। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले ने कानून के इस पहलू पर कोई दुविधा नहीं रहने दी, जो एक अच्छी बात है। फैसले का एक संभावित नतीजा तो यह माना जा रहा है कि इसके बाद बैंकों और अन्य देनदार एजेंसियों के लिए अपना पैसा वसूलना आसान हो जाएगा। इस फैसले का एक नतीजा यह भी होगा कि विभिन्न कंपनियों के शीर्ष पदों पर बैठे लोग कंपनी के लिए लोन सुनिश्चित करने के प्रयास करते हुए अपनी भूमिका को लेकर ज्यादा गंभीर होंगे। किसी जोखिम वाले प्रॉजेक्ट के लिए लोन लेने में अब सिर्फ कंपनी की साख और बैंकों का पैसा ही दांव पर नहीं होगा, जोखिम के दायरे में वे खुद भी होंगे।
जाहिर है, इस आधार पर अपने देश में बैंक और इंडस्ट्री के बीच ज्यादा भरोसेमंद रिश्ता बनने की संभावना भी बन रही है। लेकिन ऐसा नहीं कि फैसले में सब कुछ अच्छा ही देखा जा रहा है। एक हलके में यह खटका भी बना हुआ है कि कहीं इस फैसले के बाद कंपनियों के शीर्ष नेतृत्व के लिए फैसला करना ज्यादा मुश्किल न हो जाए। ऐसा हुआ तो रिस्क लेकर आगे बढ़ने का इंडस्ट्री का जज्बा प्रभावित हो सकता है। बहरहाल, कोई भी रास्ता मुश्किलों से खाली नहीं होता। उम्मीद की जाए कि बैंक और इंडस्ट्री दोनों ही इस फैसले की हद को समझते हुए आगे बढ़ेंगे।
सौजन्य - नवभारत टाइम्स।
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