इसमें दो राय नहीं कि सीमित संसाधनों व पर्याप्त चिकित्सा सुविधा के अभाव में भी देश के डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी प्राणपण से कोविड-19 की महामारी से जूझ रहे हैं। पहले से पस्त चिकित्सातंत्र और मरीजों की लगातार बढ़ती संख्या के बीच स्वास्थ्यकर्मियों पर दबाव लगातार बढ़ रह है। इतना ही नहीं, मरीज को न बचा पाने पर उपजी तीमारदारों की हताशा की प्रतिक्रिया भी डॉक्टरों व स्वास्थ्यकर्मियों को झेलनी पड़ती है। जब पहली लहर में पीपीए किट व संक्रमणरोधी मास्क न थे, तब भी फ्रंटलाइन वर्कर सबसे आगे थे। कृतज्ञ राष्ट्र ने तब इनके सम्मान में ताली-थाली भी बजाई। दीये भी जलाये। हवाई-जहाजों व हेलीकॉप्टरों से फूल भी बरसाये। निस्संदेह इन कदमों का प्रतीकात्मक महत्व है। लेकिन इससे कठोर धरातल की हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। हमारी चिंता का विषय यह भी होना चाहिए कि देश के एक-चौथाई स्वास्थ्यकर्मियों का अभी टीकाकरण नहीं हो पाया है। कोरोना महामारी के खिलाफ कारगर लड़ाई लड़ने वाले उच्च जोखिम समूह को जनवरी से वैक्सीन लगाने में प्राथमिकता मिली थी। लेकिन तब कई तरह की शंकाएं इस बिरादरी में थी। लेकिन दूसरी मारक लहर ने तमाम नकारात्मकता के बीच वैक्सीन लगाने के प्रति देश में जागरूकता जगाने का काम जरूर किया है। अब राज्यों के मुखियाओं से लेकर आम आदमी तक में वैक्सीन लगाने की होड़ लगी है। बहरहाल, इसके बावजूद बकौल इंडियन मेडिकल एसोसिएशन यानी आईएमए, इस साल अब तक 270 डॉक्टरों ने महामारी की दूसरी लहर में दम तोड़ा है, जिसमें अनुभवी व युवा चिकित्सक भी शामिल हैं। इनमें देश में स्वास्थ्य जागरूकता अभियान चलाने वाले व पद्म पुरस्कार विजेता डॉ. के.के अग्रवाल भी शामिल हैं जो कोविड संक्रमित होने के बावजूद रोगियों के साथ टेली-कंसल्टिंग कर रहे थे। ऐसे अग्रिम मोर्चे के नायकों की लंबी सूची है, जिसमें डॉक्टर-स्वास्थ्यकर्मी अपने परिवार को जोखिम में डालकर रोज कोविड मरीजों को बचाने के लिये घर से निकलते हैं।
विडंबना यह है कि देश के नीति-नियंताओं ने सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत करने को कभी भी अपनी प्राथमिकता नहीं बनाया। वहीं जनता के स्तर पर यही कमी रही है कि वे छोटे हितों के जुमले पर तो वोट देते रहे, लेकिन जनप्रतिनिधियों पर इस बात के लिये दबाव नहीं बनाया कि पहले चिकित्सा व्यवस्था को ठीक किया जाये। यह विडंबना है कि देश में डाक्टर व रोगी का अनुपात एक के मुकाबले 1700 है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित एक अनुपात 1100 से बहुत कम है। ऐसे में संकट के इस दौर में अनुभवी डॉक्टरों की मौत हमारा बड़ा नुकसान है, जो पहले से चरमराती स्वास्थ्य प्रणाली के लिये मुश्किल पैदा करने वाला है। निस्संदेह जब तक स्वास्थ्यकर्मियों को हम वायरस के खिलाफ सुरक्षा कवच उपलब्ध न करा पाएंगे, तब तक जीवन रक्षक ठीक तरह से काम नहीं कर पायेंगे। बकौल इंडियन मेडिकल एसोसिएशन इस साल मरने वाले डॉक्टरों में बमुश्किल तीन फीसदी को टीके की दोनों डोज लगी थीं। निस्संदेह अधिकारियों को स्वास्थ्यकर्मियों के टीकाकरण हेतु व्यवस्था सुनिश्चित करनी चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बीते साल कोरोना संक्रमण की पहली लहर के दौरान देश में 748 डॉक्टरों की मौत हुई थी। ऐसे में यदि सब के लिये टीकाकरण का अनुपालन सुनिश्चित नहीं किया जाता तो इस साल यह संख्या बढ़ भी सकती है। इसकी वजह यह है कि दूसरी लहर में संक्रमण दर में गिरावट के बावजूद मृत्युदर बढ़ी हुई है। आशंका जतायी जा रही है कि तीसरी लहर और घातक हो सकती है। इस संकट के दौरान उच्च जोखिम वाले समूह में श्मशान घाट पर काम करने वाले लोग भी शामिल हैं, जिनकी केंद्र-राज्य सरकारों ने अनदेखी की। पीपीए किट के बिना दैनिक वेतन पर काम करने वाले ये लोग कोविड पीड़ितों के शवों का अंतिम संस्कार कर रहे हैं। पिछले दिनों हिसार में तीन सौ से अधिक पीड़ितों का अंतिम संस्कार करने वाले एमसी सफाई कर्मचारी प्रवीण कुमार की मौत इस भयावह खतरे को दर्शाती है। ऐसे लोगों के लिये मुआवजा नीति बननी चाहिए।
सौजन्य- दैनिक ट्रिब्यून।
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