विधानसभा चुनाव मिथक और तथ्य ( बिजनेस स्टैंडर्ड)

ए के भट्टाचार्य  

गत रविवार को सामने आए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों को लेकर कई तरह की व्याख्याएं सामने आ रही हैं। इन तमाम निष्कर्षों में एक साझा तत्त्व है जो इन्हें राष्ट्रीय राजनीति और देश में क्षेत्रीय दलों के भविष्य दोनों के लिए अहम बनाता है।

इन चुनावों से निकले प्रमुख रुझानों को देखना जानकारीपरक है। केरल में यह पहली बार हुआ जब वाम लोकतांत्रिक मोर्चा लगातार दूसरी बार चुनाव जीतने में कामयाब रहा। इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) राज्य में अपनी इकलौती सीट गंवा बैठी। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे पूर्वी राज्यों में वाम दलों के सिमटते जनाधार के बीच दक्षिण की वाम राजनीति में पिनाराई विजयन का मजबूती से उभरना अहम घटना है।


तमिलनाडु में द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (द्रमुक) ने चिरप्रतिद्वंद्वी अखिल भारतीय अन्नाद्रमुक को हराकर दोबारा सत्ता हासिल की। इस जीत के साथ एम करुणानिधि के पुत्र एम के स्टालिन ने द्रमुक पर मजबूत नियंत्रण कायम कर लिया है। पुदुच्चेरी में भाजपा और अखिल भारतीय एन आर कांग्रेस (एआईएनआरसी) के गठजोड़ ने कांग्रेस को पराजित किया और एआईएनआरसी प्रमुख एन रंगास्वामी का वर्चस्व कायम हुआ।


असम में भाजपा ने अपनी सत्ता कायम रखी, हालांकि उसकी सीट कम हुईं। दूसरी बार सरकार बनाते समय उसे अपने दो शीर्ष नेताओं की महत्त्वाकांक्षाओं को साधने में भी दिक्कत आ सकती है। कांग्रेस ने असम में पिछली बार से 13 सीट अधिक जीती हैं लेकिन ये सरकार बनाने के लिए अपर्याप्त हैं।


इस वर्ष जिन पांच राज्यों में चुनाव हुआ उनमें से पश्चिम बंगाल ने राजनीतिक विश्लेषकों का सबसे अधिक ध्यान खींचा। यहां ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस लगातार तीसरी बार सरकार बनाने के लिए भाजपा से मुकाबला कर रही थी और भाजपा ने अपने शीर्ष नेतृत्व के बल पर तगड़ा हिंदुत्ववादी अभियान छेड़ा था। आखिरकार तृणमूल कांग्रेस दो तिहाई बहुमत पाने में कामयाब रही और उसकी सीटों में भी सुधार हुआ। भाजपा ने तीन सीट से 77 सीट का सफर तय किया जो अपने आप में बहुत अच्छा प्रदर्शन है लेकिन तृणमूल कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए यह पर्याप्त नहीं था।


यहां रेखांकित करने लायक एक बात यह है कि इन चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद खराब रहा। पार्टी पुदुच्चेरी में हार गई और दो अन्य राज्यों में जीत हासिल करने में नाकाम रही। आजादी के बाद पहली बार पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वाम दलों का एक भी प्रत्याशी नहीं जीता।


पश्चिम बंगाल के अंतिम नतीजों के बारे में एक व्यापक मान्यता यह है कि भाजपा ने उन सीट पर जीत हासिल की है जो पहले वाम दलों और कांग्रेस के पास थीं। अंतिम सूची ने इस धारणा को मजबूत किया है। कांग्रेस और वाम दलों को 2016 में 76 सीटों पर जीत मिली थी लेकिन 2021 में वे इन सभी सीटों पर हार गए। जबकि भाजपा की सीट 2016 में तीन से बढ़कर 2021 में 77 हो गईं। जबकि तृणमूल कांग्रेस ने 2016 की 211 के मुकाबले 2021 में 213 सीट जीतीं। अभी दो सीट पर चुनाव शेष हैं।


परंतु सीटवार विश्लेषण अलग कहानी कहता है। भाजपा ने जो 77 सीट जीती हैं उनमें से 48 सीट ऐसी हैं जो 2016 में तृणमूल कांग्रेस के पास थीं। भाजपा ने कांग्रेस से केवल 15 जबकि वाम दलों से 9 सीट छीनीं। उसने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के कब्जे वाली दो सीट जीतीं जबकि एक सीट स्वतंत्र विधायक से छीनी। पार्टी 2016 में जीती तीन सीट में से केवल दो ही अपने पास रख सकी और एक सीट तृणमूल कांग्रेस के हाथों गंवा बैठी। यानी यह धारणा गलत है कि भाजपा ने वाम दलों और कांग्रेस का सफाया किया।


यह धारणा भी उतनी ही गलत है कि तृणमूल कांग्रेस अपनी सभी पुरानी सीटों पर मजबूत बनी रही। पार्टी को 2016 में जीती 20 फीसदी से अधिक सीट इस बार भाजपा के हाथों गंवानी पड़ीं। पार्टी ने इसकी भरपाई उन इलाकों में जीत से की जो पिछली बार कांग्रेस और वाम दलों के पास थीं। सन 2021 में तृणमूल ने जो नई सीट जीतीं उनमें से 29 कांग्रेस और 22 वाम दलों से छीनी गईं।


पश्चिम बंगाल चुनावों के विभिन्न चरणों में भाजपा के प्रदर्शन से भी दिलचस्प नतीजे निकते हैं। राज्य में आठ चरण में हुए चुनाव में भाजपा को पहले पांच चरण में 180 सीट पर 31 फीसदी मत मिले। परंतु मतदान के अंतिम तीन चरणों में 112 सीट पर भाजपा का मत प्रतिशत घटकर 21 रह गया। जबकि अंतिम तीन चरणों में तृणमूल कांग्रेस का मत प्रतिशत 81 हो गया जबकि पहले पांच चरण में यह 68 फीसदी था। जिन लोगों को लगता है कि निर्वाचन आयोग का आठ चरण में चुनाव कराना या कोविड-19 ने चुनाव परिणाम पर असर नहीं डाला उन्हें इस पर विचार करना चाहिए।


तृणमूल कांग्रेस के लिए अगले पांच वर्ष में सवाल यही रहेगा कि अब जबकि भाजपा ने अच्छी खासी पैठ बना ली है तो तृणमूल अपनी जमीन का बचाव कैसे करेगी। सन 2026 का चुनाव तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच होगा। उसका नतीजा काफी हद तक इस  बात पर निर्भर करेगा कि तृणमूल कांग्रेस अगले पांच साल में शासन का एक बेहतर मॉडल दे सकती है या नहीं।


गत पांच वर्ष में तृणमूल कांग्रेस की सरकार ने कई कल्याण योजनाएं शुरू कीं। इनमें कन्याओं, महिलाओं और ग्रामीण गरीबों के हित में शुरू की गई योजनाएं शामिल हैं। आयुष्मान भारत और किसान सम्मान जैसी केंद्र समर्थित योजनाओं का इस्तेमाल किए बिना भी पश्चिम बंगाल केंद्र सरकार के वित्त पोषण वाली कई अन्य योजनाओं मसलन महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, ग्रामीण आवास योजना, ग्रामीण सड़क निर्माण कार्यक्रम और घरेलू गैस सिलिंडर के रियायती वितरण जैसी योजनाओं बेहतर क्रियान्वयन में कामयाब रहा।


यह मानने की पर्याप्त वजह है कि सन 2021 में तृणमूल कांग्रेस की सफलता का एक बड़ा कारण इन कल्याण योजनाओं का सफल क्रियान्वयन था। ये योजनाएं राज्य सरकार के साथ-साथ केंद्र सरकार द्वारा फंड की गई थीं। यदि अपने तीसरे कार्यकाल में तृणमूल कांग्रेस शासन के मॉडल में सुधार करती है और गरीबों के लिए बनी योजनाओं के क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार में कमी लाने में कामयाब होती है तथा केंद्र की कल्याण योजनाओं का पूरा लाभ उठाती है तो शायद ममता बनर्जी को बंगाली विशिष्टता की बात का इस्तेमाल नहीं करना पड़े। इसके बजाय वे कल्याण योजनाओं और सुशासन की मदद से वह लड़ाई मजबूती से लड़ सकती हैं।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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