सुरेंद्र कुमार
करीब एक महीने से सुबह के समय द टाइम्स ऑफ इंडिया का चौथा पृष्ठ पलटते हुए मैं ठिठकता हूं। इस पृष्ठ पर उन लोगों की सूचनाएं होती हैं, जो कोरोना महामारी के कारण असमय ही दुनिया छोड़कर चले गए। कुछ महीने पहले तक ऐसी सूचनाएं चौथाई पेज तक ही सीमित होती थीं। दुर्भाग्य से आज ऐसे लोगों की सूचनाओं और तस्वीरों से पूरा पृष्ठ भरा रहता है, और कई बार ऐसे कुछ लोगों की तस्वीरें अगले पेज पर भी रहती हैं।
लगभग रोज ही इन पृष्ठों में मैं दशकों पुराने अपने दोस्तों या रिश्तेदारों की तस्वीरें देखता हूं, जिससे मेरा हृदय दुख और संताप से भर जाता है तथा अतीत की सुनहरी स्मृतियां मेरे मानस पटल पर तैरती रहती हैं। मैं उनकी हंसी, फुसफुसाहटें, उनका कहा-अनकहा सब कुछ सुन सकता हूं; मैं उनकी मोहक मुस्कान और आंखों में न पूरे हो सके सपनों की अपूर्णता का एहसास कर सकता हूं। उनकी पत्नियों का विलाप और बच्चों की सुबकियां मुझे इस कदर हिला देती हैं कि मुंह से एक शब्द तक नहीं निकलता। रोज जब मैं इन तस्वीरों को देखता हूं, तब मेरे भीतर भी कुछ दरकता है। मेरे अंदर का भी एक हिस्सा उनके साथ चला जाता है। जब मैं अखबार मोड़ता हूं, तब क्षण भर के लिए यह विचार आता है कि मेरे दोस्त और रिश्तेदार भी शायद कल अखबार में मेरी तस्वीर देखें। जीवन के इस चक्र में कब और कहां किसका सफर थम जाता है, यह किसको पता है! हमारे पास न तो रुकने की लाल झंडी है, न चलने की हरी झंडी। रात को सोते हुए गुजरती रेलगाड़ी की आवाज मुझे पाकीजा फिल्म के दृश्य की तरह जगा देती है।
किसी देश के इतिहास में एक महीने का समय बहुत ज्यादा नहीं होता। एक मनुष्य के जीवन में एक महीने की अवधि बहुत मामूली होती है। लेकिन कोरोना की सुनामी द्वारा पूरे देश को बाधित और तहस-नहस कर देने, लाखों जीवन खत्म कर देने, दसियों लाख सपने तोड़ देने और किसी देश की छवि को ध्वस्त कर उसे घुटनों के बल खड़ा कर देने के लिए एक महीने का समय बहुत अधिक होता है। आप कोई भी टीवी चैनल खोलें, अस्पतालों के कॉरिडोर में ऑक्सीजन के लिए तरसते मरीजों, वैक्सीन के लिए लोगों का कतार में खड़े होकर लंबा इंतजार करने और फिर टीके के अभाव में उन्हें मना कर दिए जाने, भीड़ भरे श्मशान में शव के अंतिम संस्कार के लिए परिजनों द्वारा इंतजार करने, गंभीर हालत में लोगों को अस्पताल ले जाने और बेड न होने के कारण उनके दम तोड़ देने के कारुणिक ब्योरे आते हैं।
उच्च न्यायालयों द्वारा सरकारों को पर्याप्त ऑक्सीजन मुहैया करने और लोगों की जान बचाने के निर्देश दिए गए हैं। पवित्र गंगा नदी में और उसके तटों पर अनेक शव पाए गए हैं! एक बार फिर से लॉकडाउन और कर्फ्यू का दौर शुरू हो चुका है। नतीजतन असंख्य प्रवासी मजदूर भूखे-प्यासे, पत्नी-बच्चों के साथ, पीठ पर सामान लादे, सूनी आंखों से अपने गांव लौटने के लिए मजबूर हैं। पूरी तरह असहाय और निराश ये लोग अपने हाथ उठाकर टूटती आवाजों में गाते हैं, दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई! दूसरी तरफ ऐसे भी लोग हैं, जो अपने ऑफिस की मर्सीडिज/बीएमडब्ल्यू/जगुआर कारों पर चलते हैं, जिनके हुड पर छोटा-सा तिरंगा होता है, जबकि इंडिया हाउस की, जो राजदूतों/उच्चायुक्तों का आधिकारिक आवास होता है, छतों पर विशाल राष्ट्रध्वज फहराता है।
वे भारत की 1.4 अरब आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं और भारत सरकार की तरफ से करोड़ों रुपयों के समझौतों पर दस्तखत करते हैं। ज्यादातर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों पर वे कूटनीतिज्ञों के लिए रिजर्व रास्तों से निकलते हैं और अपना सामान ले जाने के लिए भी उन्हें कस्टम्स अधिकारियों की पूछताछ का सामना नहीं करना पड़ता। लेकिन कोरोना महामारी कूटनीतिज्ञों के विशेषाधिकारों को नहीं पहचानती। बेड, ऑक्सीजन और वैक्सीनों की कमी से जूझते दिल्ली के निजी अस्पताल बीमार मरीजों और उनके चिंतित परिजनों से भरे हैं, ऐसे माहौल में न तो किसी के पास सुविधाएं हासिल करने के लिए कूटनीतिक हल्कों में अपनी ऊंची पहुंच के बारे में बताने का अवसर है, न ही समय। हर मरीज संख्या में तब्दील हो चुका है।
कोरोना की सुनामी के बीच ऐसे अनेक बीमार कूटनीतिज्ञों ने बेड का इंतजार करते हुए अस्पतालों की लॉबी में जान दे दी है। ऐसी स्थिति क्यों बनी? क्या हम बुरे दिनों का आना नहीं देख पाए? हमने अपने सुरक्षा प्रबंध कम क्यों कर दिए? जब हमारी विजय हुई ही नहीं थी, तो महामारी पर जीत की घोषणा हमने क्यों कर दी? हमने खुद के विश्वगुरु होने का दावा किया! हमने दावा किया कि हम दुनिया की फार्मेसी हैं! यह दावा किया कि अपना ख्याल रखने के साथ-साथ हमने अनेक देशों की मदद की। क्या हम इसकी गणना नहीं कर सके कि देश भर में हमें कुल कितने बेड की जरूरत है? इसका आकलन करने के लिए क्या रॉकेट साइंस का ज्ञान जरूरी है कि पूरे देश का टीकाकरण करने के लिए कितने टीकों की जरूरत पड़ेगी?
क्या हम नहीं जानते थे कि देश में प्रति 1,000 लोगों पर महज 1.5 डॉक्टर हैं, और यह अनुपात पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी कम है? हवा में दाएं-बाएं सवाल तैर रहे हैं, लेकिन उनके ईमानदार जवाब नहीं हैं। हैं तो सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप और दूसरों पर ठीकरा फोड़ने की कोशिश। पैंतालीस की उम्र में कोरोना से जान गंवाने पर बूढ़े-अनुभवी लोग उपदेश देते हैं कि ईश्वर का प्रिय होने के कारण ही वह चले गए। तो जो उम्रदराज लोग जिंदा हैं, क्या वे ईश्वर के प्रिय नहीं हैं?
चाहे कुछ भी कहा जाए, लेकिन इस सच्चाई की अनदेखी नहीं की जा सकती कि अगर हम लोगों को जीवित रहने का मौका देते, तो उन्हें असमय ही दुनिया छोड़कर नहीं जाना पड़ता। पर कौन जानता है! मनुष्य सोचता कुछ और है, जबकि होता कुछ और है। लेकिन यह दुख तो है ही कि बिछड़कर जाने वालों में से ज्यादातर को हमें अलविदा कहने का मौका भी नहीं मिला। प्रतीक्षालय से निकलने की कतार में अब अगला कौन है? कागज के फूल फिल्म का गाना मार्मिक है, पर बेहद प्रासंगिक है : देखी जमाने की यारी, बिछड़े सभी बारी-बारी।
सौजन्य - अमर उजाला।
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