शंकर अय्यर
मृत्यु, संकट, निराशा और अवसाद से घिरे वातावरण में चारों ओर दुख व्याप्त है। एक बदहवास राज्य ने अपने लोगों को असहाय छोड़ दिया है। सोशल मीडिया और व्यक्तिगत संपर्कों की जगहें आसन्न मौत से बचाने की गुहारों से अटी पड़ी हैं। मनोव्यथा अनजान लोगों को भी दुख की एक असाधारण अंतरंगता में बांध रही है। निराशा मर्मांतक छवियों में लिपटी नजर आ रही है- आगरा में एक ऑटो रिक्शा में पति को जिलाने की पुरजोर कोशिश करती पत्नी, अपनी मृत दादी का शव लेकर कार से श्मशान खोजने की जद्दोजहद करता पोता, नदियों में बहती लाशें, अपनी मां के लिए एक आईसीयू बेड का बंदोबस्त न कर पाने में अक्षम एक बेटी की इच्छा मृत्यु को वैध ठहराने की अपील।
मित्रों और परिवारों को स्मृतियां झकझोर रही हैं, वे आखिरी बातचीत को याद करते हैं और फोन की संपर्क सूची में उन नंबरों पर नजर डालते हैं, जो अब स्क्रीन पर फिर कभी नहीं चमकेंगे। जैसा कि लेखक जॉन डिडिओन ने लिखा, 'जब हम किसी को खोने का शोक मनाते हैं, तब हम खुद के बेहतर या बदतर होने का भी शोक मनाते हैं। जैसे कि हम थे, पर अब नहीं हैं, जैसे कि हम एक दिन बिल्कुल भी नहीं होंगे। निराशा ने उम्मीद को ढक लिया है- वस्तुतः यह दुख का गणराज्य है। चिताओं से उठते सर्पिल धुएं ने देश को घिनौनी असमर्थता में जकड़ लिया है। जितनी जिंदगियां खोई हैं, वे बहुत भारी पड़ेंगी। लोगों को जो बात सबसे ज्यादा परेशान करती है और करेगी, वह है क्रूर और अमानवीय तरीके से हुई क्षति, जिसमें बेईमान राजनीति और व्यवस्था की उदासीनता ने उन्हें बेदम करके छोड़ दिया।
लोगों का गुस्सा राजनीतिक बयानबाजी से बढ़ा है। एक केंद्रीय मंत्री ने कहा, 'लोकतंत्र में हम चुनाव को नहीं रोक सकते।' क्या चुनावी प्रक्रिया मतदाताओं को खतरे में डाल सकती है? निश्चित रूप से, चुनावों को बीच में रोका गया है। 1991 के संसदीय चुनावों को रोक दिया गया था। दरअसल, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 153 स्पष्ट रूप से कहती है, चुनाव आयोग इस बात के लिए सक्षम होगा कि वह उन कारणों के लिए किसी भी चुनाव को पूरा करने की अवधि को बढ़ा सकता है, जिन्हें वह पर्याप्त समझता है। दुख को देखते हुए सवालों के जवाब मिलने चाहिए- क्यों और किसके चलते बेबसी के ये हालात पैदा हुए।
दुर्भाग्य से ये सवाल तू-तू मैं-मैं की दलील में खो गए हैं और जवाब, दावों और आरोपों के बीच फंस गया है। दावों को सत्यापित नहीं किया जा सकता और आरोपों को खारिज नहीं किया जा सकता। भारत और दुनिया को बताया गया है कि किसी ने भी लहर को आते हुए नहीं देखा है, कि कोई भी महामारी विशेषज्ञ या अध्ययन ने कोरोना की दूसरी लहर की भयावहता का अंदाजा नहीं लगाया। यकीनन, किसी ने भी इसकी गंभीरता व तीव्रता- हर मिनट 250 से अधिक मामले और लगभग तीन मौतों की भविष्यवाणी नहीं की थी।
महत्वपूर्ण सवाल यह है कि किसने और किस अध्ययन ने महामारी पर हमारी जीत की। सूचना दी, खासतौर से स्वास्थ्य मंत्री के इस दावे की कि,'कोरोना का खेल खत्म।' तथ्य यह है कि मामले मध्य फरवरी से ही बढ़ने लगे थे और वास्तव में प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार ने कहा था कि हमने दूसरी लहर का संकेत देखा है, लेकिन इसका पैमाना और इसकी तीव्रता स्पष्ट नहीं है। ऐसी अटकलें और रिपोर्टें भी सामने आई हैं कि कोविड टास्क फोर्स की महीनों से बैठक नहीं हुई और इन्हें किसी ने भी विश्वसनीयता के साथ मना नहीं किया था।
प्रवक्ताओं ने हांफते हुए बताया कि अन्य देशों (अमेरिका और ब्रिटेन) ने प्रति दस लाख मामले और मृत्यु के अनुपात के मामले में बदतर प्रदर्शन किया। यह सच है, लेकिन पैमाना यह होना चाहिए कि एक राष्ट्र ने बुरा प्रदर्शन करने वाले दूसरे राष्ट्र से कितना बेहतर प्रदर्शन किया। क्या दूसरों की शर्मनाक विफलताओं पर हम गर्व कर सकते हैं? कुछ अन्य लोगों ने कहा कि चुनाव महामारी से अलग थे। उम्मीद है कि लहर का उभार उन्हें 'भ्रम' से जगा देगा। तू-तू मैं-मैं के दूसरे छोर पर विपक्ष की ट्रोल ब्रिगेड है-खासकर कांग्रेस, जो मुद्दों को भटकाने की आदत से अपनी अप्रासंगिकता बढ़ा रही है। निश्चित रूप से नीति और वित्तपोषण का केंद्रीकरण हुआ है। क्या यह बहाना बताता है कि जब दिसंबर और जनवरी में मामले घट गए थे, तो क्या करने की जरूरत थी?
वित्त वर्ष 2020–21 के अंत में, राज्य तीन लाख करोड़ रुपये से अधिक की राशि पर कुंडली जमाए बैठे थे। क्या राज्यों ने संसाधनों का उपयोग अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए किया था? दूसरी लहर ग्रामीण भारत को प्रभावित कर रही है। सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थिति को ही देखिए। वर्ष 2019 में भारत को 1.89 लाख उप केंद्रों की जरूरत थी, जिसमें से 1.57 लाख उपकेंद्र ही थे। सामान्य रूप से सबसे बड़ा अंतराल उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और झारखंड जैसे गरीब राज्यों में है। प्रति व्यक्ति सेहत पर खर्च की स्थिति बहुत बुरी है। बिहार में 1,250 रुपये या उत्तर प्रदेश में 1,602 रुपये से मुश्किल से वैक्सीन के दो डोज और शायद आरटी-पीसीआर जांच हो पाए!
केंद्र की उपेक्षा को कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता। वैक्सीन खरीद की गड़बड़ी को ही लीजिए। पहली किस्त की मात्रा का क्या आधार था और फिर 28 अप्रैल तक ठहराव की सलाह किसने दी थी? अध्ययनों से साबित है कि कम टीकाकरण वेरिएंट और संक्रमणों के लिए मैदान खुला छोड़ देता है, जिससे स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे पर बोझ पड़ता है। हां, सात दशकों से स्वास्थ्य सेवाओं की उपेक्षा हुई है। लेकिन इससे 2014 के बाद से आवंटन या निष्पादन की कमी ढक नहीं जाती। वित्त वर्ष 2016-17 के बजट में सतत विकास के लिए पंचायतों को धन देने का वादा किया गया था। 2017-18 के बजट में 1.5 लाख उप केंद्रों के रूपांतरण का वादा किया गया था। स्वास्थ्य परिणामों में सुधार के उद्देश्य से 'आकांक्षी जिले कार्यक्रम' शुरू किया गया था। फिर भी अप्रैल 2021 में नंदुरबार में राजेंद्र भरुद का काम सफलता की अकेली कहानी है।
आमतौर पर भारत में जवाबदेही की खोज बयानबाजी में खो जाती है। निजी सफलता या समाधान को व्यक्तिगत बनाने के लिए अवतार संस्कृति का मोहक आकर्षण अक्सर संस्थागत विफलता के रूप में सामने आता है। भारत इस तरह के बुरे यथास्थितिवाद को बर्दाश्त नहीं कर सकता है। वह बेहतर कर सकता है और उसे करना चाहिए!
सौजन्य - अमर उजाला।
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