अनदेखी की भारी कीमत (बिजनेस स्टैंडर्ड)


विधानसभा चुनावों के नतीजे मोटे तौर पर एक्जिट पोल में जताए गए अनुमानों के अनुरूप ही रहे। पश्चिम बंगाल इसका अपवाद रहा जहां त्रिशंकु विधानसभा का कयास पूरी तरह गलत साबित हुआ और तृणमूल कांग्रेस ने जोरदार जीत दर्ज की। सन 2016 के विधानसभा चुनाव नतीजों से तुलना की जाए तो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने जबरदस्त सुधार किया है। उसे 2016 की तीन सीटों के मुकाबले इस बार करीब 75 सीट मिलती दिख रही हैं। पार्टी को कुल मतों में 38 फीसदी प्राप्त हुए। परंतु भाजपा जीत के लिए चुनाव लड़ रही थी, न कि दूसरे स्थान पर आने के लिए। इसलिए यह परिणाम पार्टी के लिए झटका है। पार्टी ने बहुत अधिक धन और संसाधन वहां झोंके थे। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा कई प्रमुख नेताओं ने प्रदेश में कई रैलियों को संबोधित किया। हालांकि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भवानीपुर की सुरक्षित सीट छोड़कर जो जोखिम उठाया था वह कामयाब नहीं रहा और उन्हें नंदीग्राम में अपने पुराने वफादार लेकिन अब पाला बदल चुके शुभेंदु अधिकारी से पराजित होना पड़ा। परंतु इसमें दो राय नहीं कि इन नतीजों ने माहौल यही बनाया है कि एक कमजोर महिला ने शक्तिशाली और डराने धमकाने वाले पुरुषों की एक पूरी फौज को हरा दिया। अहम बात यह है कि भाजपा को यह लाभ कांग्रेस और वाम मोर्चे की भारी पराजय के बल पर हासिल हुआ है। इससे संकेत मिलता है कि प्रदेश में अत्यधिक ध्रुवीकरण हुआ और यह आने वाले वर्षों में भी बरकरार रहेगा। राज्य में कोविड-19 संकट को थामने के अलावा तीसरे कार्यकाल में बनर्जी के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी एक बड़े और आक्रामक विपक्ष की मौजूदगी। उन्हें पहली बार ऐसे विपक्ष का सामना करना पड़ेगा।

विधानसभा चुनावों में दूसरी बड़ी खबर केरल में पिनाराई विजयन के नेतृत्व वाले वाम लोकतांत्रिक मोर्चे (एलडीएफ) की जीत की है। एलडीएफ ने इस जीत के साथ दशकों पुरानी उस परंपरा को तोड़ दिया जिसमें एलडीएफ और कांग्रेसनीत यूडीएफ बारी-बारी से सत्ता में आते रहे। बल्कि एलडीएफ ने तो 2016 के अपने प्रदर्शन में सुधार ही किया है। इन नतीजों को सन 2019 की बाढ़ और 2020 में कोविड-19 महामारी के प्रबंधन में विजयन की सरकार की कामयाबी के प्रति जनता की स्वीकृति के रूप में देखा जा सकता है। सन 2014 के बाद के हर चुनाव की तरह ये चुनाव भी कांग्रेस के पराभव को ही दर्शाते हैं। पार्टी को पश्चिम बंगाल में एक भी सीट नहीं मिली और असम में भी वह अपनी स्थिति नहीं सुधार सकी। वहां भाजपा ने अपने 2016 के प्रदर्शन में सुधार किया। केरल में राहुल गांधी के लगातार प्रचार के बावजूद पार्टी को जीत नहीं मिली। कुल मिलाकर इन चुनावों से कई राजनीतिक संदेश निकलते हैं। पहला और सबसे मजबूत संदेश यह है कि प्रमुख राष्ट्रीय दल भाजपा को प्रचार अभियान के लिए एक विश्वसनीय स्थानीय नेता चाहिए। बंगाल में वह एक स्थानीय नायक पाने को व्यग्र थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब यह बात और अधिक स्पष्ट है कि राष्ट्रीय और राज्य विधानसभा चुनावोंं को मतदाता अलग-अलग नजर से देखते हैं। विधानसभा चुनाव में वे अक्सर स्थानीय और जमीनी नेता को चुनते हैं। दूसरी बात यह कि मोदी-शाह के तूफानी दौरों के बावजूद चुनाव में महामारी और शासन की अनदेखी भाजपा के खिलाफ गई। हालांकि अभी निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगा। तीसरी बात है निर्वाचन आयोग की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचना और महामारी का प्रसार रोक पाने में उसकी नाकामी। आयोग रैलियों के आकार नियंत्रित करने और सुरक्षा मानकों का पालन करा पाने में नाकाम रहा। पश्चिम बंगाल में आठ चरण में चुनाव कराने को भी इसकी वजह माना जा सकता है। महामारी के प्रसार के दौरान अंतिम तीन चरण के चुनाव एक साथ कराने से इनकार करना तो अत्यधिक निंदनीय है। इस अनदेखी की कीमत अब विजेताओं को चुकानी होगी।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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