कोविड-19: भारत को बाहरी मदद की जरूरत (बिजनेस स्टैंडर्ड)

शेखर गुप्ता 

भारत इस समय एक बड़ी आपदा से दो-चार है और वह ऑक्सीजन से लेकर एन-95 मास्क तक और टीकों से लेकर ऑक्सीमीटर तक तमाम बड़े देशों से मदद मांग रहा है। जब बड़े मालवाहक विमानों में ये चीजें आ रही हैं तो हमारे केंद्रीय मंत्री खुश होकर ट्वीट कर रहे हैं। अभी कुछ सप्ताह पहले तक वे इस संभावना को बहुत बुरी तरह खारिज कर रहे थे कि 'नए भारत' को किसी विदेशी मदद की आवश्यकता भी पड़ सकती है।

यहां हम किसी जीत का दावा नहीं कर रहे। कर भी नहीं सकते। हम सब इस संकट में फंसे हुए हैं और यह अच्छी बात है कि सरकार इस राष्ट्रीय आपात की स्थिति में विदेशी सहायता को लेकर खुला रुख अपना रही है और सहायता मांग भी रही है।


यूरोपीय संघ और ब्रिटेन ने कहा है कि वे भारत के अनुरोध का जवाब दे रहे हैं। ब्रिटेन की सहायता उसके विदेश, राष्ट्रमंडल और विकास कार्यालय (एफसीडीओ) से आ रही है जबकि अमेरिका की यूएसएड से। मोदी सरकार के मंत्री इन्हें साझा मूल्यों और मित्रता का उदाहरण बताते हुए सराह रहे हैं। हमने अपने शहर कस्बों में रहते हुए सीखा है कि जब घर में चीनी खत्म हो जाए तो पड़ोसी से एक कटोरी चीनी मांगने में कोई शर्म की बात नहीं है क्योंकि कभी उसे भी जरूरत पड़ सकती है।


हालांकि हमारी हालत कहीं अधिक खराब है। जब इमरान खान और शी चिनफिंग दोनों मदद की पेशकश करें तो समझिए हालात ज्यादा बुरे हैं। अगर समझें तो एक देश कह रहा है कि हम उतनी बड़ी शक्ति नहीं हैं जितना दिखावा करते हैं तो जबकि दूसरा इस क्षेत्र में हमें हमारी हैसियत बता रहा है। खासकर तब जब इसी समय वह उपमहाद्वीप के विदेश मंत्रियों की एक बैठक बुला रहा है ताकि साझा सहयोग पर बात की जा सके। विषय कोविड सहायता का ही है।


हमारे निकटतम पड़ोसी देश को जिसे भारत भी अपना प्रभाव क्षेत्र बनाना चाहता है, स्पष्ट संदेश है कि हमें पता है तुम्हें कोविड से निपटने में सहायता चाहिए लेकिन भारत के भरोसे मत रहो। उसे तो खुद मदद की जरूरत है। चीन कहना चाहता है कि भारत टीके की वो खुराक और दवाएं भी नहीं दे सकता जिनका ऑर्डर उसे पहले दिया गया था। कहा जा रहा है कि बैठक में भारतीय विदेश मंत्री भी शामिल हो सकते हैं। इसीलिए हम कहते हैं कि जब आपके विरोधी मजाक उड़ा रहे हों तो मित्रों की मदद लेने में कोई हर्ज नहीं। यह उचित कूटनीतिक कदम है। तब हम आखिर कहना क्या चाहते हैं? किसी देश की मदद के लिए बहुत बड़ा दिल चाहिए, साथ ही मदद मांगने के लिए भी। इतनी विनम्रता बंद जेहन से नहीं आती। क्योंकि तब आप उत्तर कोरियाई, क्यूबाई या वेनेजुएला के मौजूदा शासन की तरह हो जाएंगे। इतनी मुश्किलात के बावजूद अगर हम खुला दिल और दिमाग रखते हैं तो थोड़ा पहले ऐसा करने में क्या हर्ज था? खासकर तब जब हम वायरस पर जीत और खुद के 'टीका गुरु' होने के दावे कर रहे थे।


जिस समय देश की आबादी के 1.5 फीसदी से भी कम का टीकाकरण हुआ था उस समय प्रधानमंत्री ने दुनिया से कहा कि भारत ही उसका दवाखाना है। मुझे अच्छा लगेगा अगर देश की सबसे बड़ी टीका निर्माता सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) विदेशी ऑर्डर के अनुबंधों को समय पर पूरा करे या हमारी सरकार ही कुछ मित्र देशों को टीके देकर टीका मैत्री की बात करे।


बड़े देशों को ऐसा करना भी चाहिए लेकिन केवल तभी जब ऐसे बड़े देश अपनी स्थिति पर भी नजर डालें और उन्हें विश्व बाजार में उन्हीं चीजों की तलाश में भटकना न पड़े जो उन्होंने तोहफे में दी हों। अगर आपके पास केवल एक कटोरी चीनी हो तो क्या आप पड़ोसी को देंगे? यह एक तथ्य है कि हमने टीके की 6 करोड़ से अधिक खुराक दूसरे देशों को दे दीं जबकि वे इस समय काम आ सकती थीं जबकि टीकों की कमी के कारण हमारा टीकाकरण पिछड़ा हुआ है। विशाल आबादी वाला देश होने के बावजूद 6 करोड़ टीके हमें कुछ समय तक राहत दे सकते थे और इस बीच व्यापक पैमाने पर टीकाकरण शुरू करने की कोशिश की जा सकती थी। लेकिन हमने अपनी दोनों टीका विनिर्माता कंपनियों को उत्पादन बढ़ाने को कहे बिना टीके विदेश भेजना जारी रखा। यह अतिआत्मविश्वास नहीं तो और क्या था?


हमें पता है कि अग्रिम ऑर्डर का अर्थ था कीमतों को लेकर तेज चर्चा। जब संयुक्त राष्ट्र 3 डॉलर का भुगतान कर रहा था तब 150 रुपये या 2 डॉलर का मार्जिन बहुत अधिक था और इसे राजनीतिक जीत माना जा रहा था। इसके अलावा जरूरी मात्रा का ऑर्डर करने के लिए बड़ी मात्रा में अग्रिम राशि चुकानी होती जो आगे चलकर अंकेक्षण की दिक्कतों को जन्म दे सकती थी। अफसरशाही को इन बातों की चिंता रहती है। ऐसे नेता को इनकी चिंता नहीं करनी चाहिए जो इनसे निजात दिलाने के वादे से सत्ता में आया हो। इस समय हमारे सामने ऐसा तूफान है जिसे हमने स्वयं खड़ा किया है। टीके की कीमत केंद्र के लिए अलग है और राज्यों के लिए अलग। जब तक टीके की खुराक सरकार के पास उपलब्ध है मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं कि निजी क्षेत्र उसकी क्या कीमत वसूलता है या चुकाता है। दूसरा, टीकाकरण के लिए आयु वर्ग आधारित नीति है और कीमतों को लेकर काफी भ्रम है। तीसरा केंद्र को पहले ही दोनों टीका विनिमार्ताओं को उनकी मांग के अनुसार पर्याप्त अग्रिम राशि दे देनी थी। काश यह निर्णय समय पर ले लिया जाता तो हमारे पास पर्याप्त खुराक होतीं। एक मई से जहां टीकाकरण 18 वर्ष से अधिक आयु के सभी लोगों के लिए शुरू कर दिया गया, वहीं अधिकांश राज्यों के पास टीके की पर्याप्त खुराक ही नहीं हैं। यह पूरा घटनाक्रम गांव के उस प्याज चुराने वाले व्यक्ति से कितना मेल खाता है? पंचायत ने दोषी ठहराकर दंडस्वरूप उसे प्याज खाने या जूते खाने की सजा सुनाई। पहले उसने प्याज खाना चुना लेकिन 10 प्याज खाने के बाद उसकी हिम्मत जवाब दे गई। अब उसने जूते खाने शुरू किए लेकिन 10 जूतों के बाद वह टूट गया और वापस प्याज खाने लगा। कुलमिलाकर उसने जूते भी खाए और प्याज भी।


अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने पिछले दिनों कांग्रेस के एक संयुक्त सत्र में कहा कि ऊपर से नीचे की ओर लाभ पहुंचाने की नीति कभी कामयाब नहीं होती। उन्होंने कहा कि अर्थव्यवस्थाएं अब शून्य से विकास की ओर सफर करेंगी। इसका भारी प्रतिरोध भी होगा और बौद्घिक तबका दलील देगा। राजनीतिक अर्थव्यवस्थाओं में यह बहस शाश्वत है।


परंतु नेतृत्व एक ऐसा क्षेत्र है जहां ऊपर से नीचे की ओर होने वाले प्रसार को चुनौती नहीं दी जा सकती। नेता जितना ताकतवर होता है नीचे उसका प्रभाव उतना ही अधिक होता है। समय से पहले जीत की घोषणा जैसी बातें टीम के दिलोदिमाग में बैठ जाती हैं। यही कारण है कि कोई इस बात की जांच नहीं करता कि देश में पर्याप्त टीके, ऑक्सीजन, रेमडेसिविर और यहां तक कि पैरासिटामॉल हैं भी या नहीं। दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है जहां वायरस की दूसरी लहर का हमला न हुआ हो। हर किसी ने जश्न मनाया और आने वाले संकट के संकेत ग्रहण करने से इनकार कर दिया। दिल्ली में कोविड से संक्रमित होने वालों की दर 0.23 फीसदी से बढ़कर रातोरात 32 फीसदी हो गई। लगातार चार सप्ताह बढऩे के बाद इसने विस्फोटक रूप लिया। किसी ने ध्यान नहीं दिया। शीर्ष नेतृत्व चुनाव जीतने में व्यस्त था जिस समय देश को एकजुट होने की जरूरत थी वह राज्य सरकारों को अपमानित करने में व्यस्त था।


केरल और महाराष्ट्र में कोविड की दूसरी लहर के विस्फोट से भी कोई नहीं जागा। इसे दो दूरवर्ती राज्यों की दिक्कत के रूप में देखा गया। समुद्र लांघकर चले आने वाले वायरस से यह आशा करना गलत था कि वह राज्यों की सीमाओं का सम्मान करेगा। इस बात ने हमें उस संकट तक पहुंचा दिया जहां चार दशक बाद हमें विदेशी सहायता की जरूरत पड़ी। इसका यह अर्थ नहीं है कि हमारा विजेता वाला बोध कमजोर पड़ा है। यदि ऐसा होता तो कोविड संकट को लेकर विदेशी मीडिया में आ रही खबरों के खिलाफ अपने शीर्ष राजनयिकों से शिकायत नहीं करवाते। जबकि हम उन्हीं देशों से सहायता मांग रहे हैं।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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