समझौते की सरहद (जनसत्ता)

लद्दाख के गोगरा में पिछले पंद्रह महीनों से तनातनी के माहौल में एक-दूसरे के आमने-सामने खड़ी भारत और चीन की सेनाओं का अब अपनी-अपनी जगहों पर लौट आना एक महत्त्वपूर्ण घटना है। दोनों देशों के उच्च अधिकारियों के बीच बारहवें दौर की हुई बातचीत के बाद इस पर सहमति बनी। यह बातचीत और घटनाक्रम इसलिए अधिक महत्त्वपूर्ण है कि न सिर्फ दोनों देशों ने अपनी सेनाएं वापस बुला ली हैं, बल्कि उस इलाके में बनाए सभी अस्थायी निर्माण भी हटा लिए गए हैं।

दोनों में सहमति बनी है कि वे वास्तविक नियंत्रण रेखा का अतिक्रमण नहीं करेंगे। पिछले छह महीनों में दोनों देशों के बीच यह दूसरा कदम है, जब उन्होंने अपनी सेनाओं को पीछे लौटने को कहा। फरवरी में पैंगोंग त्सो झील के दोनों छोरों पर से इसी तरह तनातनी समाप्त की गई थी। हालांकि अब भी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर कम से कम चार जगहों पर दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने हैं। उनमें देपसांग और हॉट स्प्रिंग को ज्यादा संवेदनशील माना जाता है। चीन ने उन क्षेत्रों से अपनी सेना हटाने से मना कर दिया है। मगर गोगरा से सेना हटाने के ताजा फैसले से उम्मीद बनी है कि उन बिंदुओं पर भी सकारात्मक नतीजे सामने आएंगे।

पिछले साल गलवान घाटी में दोनों देशों के सैनिकों में हिंसक झड़प होने की वजह से तनाव काफी बढ़ गया था। उसमें दोनों तरफ के कई सैनिक मारे भी गए थे, जिसे लेकर स्वाभाविक ही दोनों देशों के बीच रोष बढ़ गया था। खासकर भारत सरकार पर दबाव बनना शुरू हो गया था कि वह अपना नरम रवैया छोड़ कर चीन के साथ कड़ाई से पेश आए। चीन ने भी उस इलाके में अत्याधुनिक हथियारों से लैस अपने सैनिकों की संख्या बढ़ानी शुरू कर दी थी।

वह भारत के हिस्से वाले क्षेत्र में काफी अंदर तक घुस आया था। मगर इस तनातनी को दूर करने के मकसद से दोनों देशों के सैन्य अधिकारियों के बीच बातचीत का सिलसिला बना हुअ था। राजनीतिक स्तर पर भी इसे सुलझाने के प्रयास जारी रहे। उसी का नतीजा था कि फरवरी में लद्दाख क्षेत्र में चीन ने अपने कदम वापस खींचे थे। अभी देपसांग और हॉट स्प्रिंग को लेकर बातचीत का सिलसिला बना हुआ है। उम्मीद की जा रही है कि वहां भी तनाव का वातावरण समाप्त करने में कामयाबी मिलेगी।

दरअसल, आज के समय में देशों की ताकत उनकी अर्थव्यवस्थाओं से आंकी जाती है। अब कोई भी देश युद्ध नहीं चाहता और न उसके लिए किसी भी रूप में ऐसा कदम उठाना लाभकारी साबित हो सकता है। यह बात चीन भी समझता है। मगर वह अपनी विस्तारवादी नीति का लोभ नहीं छोड़ पाता। वह दुनिया के बाजारों पर कब्जा करने के लिए भी उनकी सीमाओं पर तनाव पैदा करके उन्हें अपनी छतरी के नीचे लाने की कोशिश करता है।

भारत के पड़ोसी सार्क देशों में से ज्यादातर के साथ वह ऐसा कर चुका है। पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका उसके चंगुल में फंस चुके हैं। भारत से उसकी खुन्नस इस बात को लेकर भी है कि यह तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था है और इसका झुकाव पिछले कुछ सालों से अमेरिका की तरफ बढ़ा है। यों भी भारत के साथ लगती उसकी लंबी सीमा का बड़ा हिस्सा अस्पष्ट है, इसलिए उसकी सेना अक्सर भारत वाले हिस्से में चली आती है। पर चीन का मकसद इस तरह भारत पर धौंस जमाना भी रहता है। मगर भारत के सामने अब, न तो आर्थिक स्तर पर और न सामरिक स्तर पर, उसकी धौंस बर्दाश्त करने की कोई विवशता नहीं है।

सौजन्य - जनसत्ता।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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