देश के गृह मंत्री अमित शाह ने एक हालिया बयान में कहा कि गंभीर अपराधों की विवेचना में अदालती विज्ञान या फोरेंसिक साइंस के इनपुट को अनिवार्य कर दिया जाएगा और इसके लिए दंड विधान संहिता (आईपीसी), दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (इंडियन एविडेंस ऐक्ट) में शीघ्र ही संशोधन किए जाएंगे। यदि सरकार इन घोषणाओं को लेकर सचमुच गंभीर है, तो यह 1860 के दशक में बने कानूनों से एक आधुनिक संस्था के रूप में निर्मित भारतीय पुलिस की कार्य पद्धति में एक आमूलचूल परिवर्तन या पैराडाइम शिफ्ट जैसा होगा। हमें याद रखना होगा कि वर्तमान स्वरूप में पुलिस की परिकल्पना गौरांग महाप्रभुओं ने भारत को अपना उपनिवेश बनाए रखने में मददगार संस्था के रूप में की थी और वह दशकों तक इस कसौटी पर खरी भी उतरी। यह देखना दु:खद है कि 1947 के बाद भी इस स्थिति में बहुत परिवर्तन नहीं आया। इस लिहाज से देखें, तो गृह मंत्री के घोषित परिवर्तन यदि लागू हो सकें, तो पुलिस के संगठन और आचरण में ये बड़ा फर्क डालेंगे।
गांधीनगर में नेशनल फोरेंसिक साइंस यूनिवर्सिटी के प्रथम दीक्षांत समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए गृह मंत्री ने इस सिलसिले में कई घोषणाएं कीं। इनमें राज्यों में फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाएं बनाने से लेकर जिलों में सचल प्रयोगशालाओं की सुविधा विवेचकों को उपलब्ध कराने जैसी कई योजनाएं भी हैं। निस्संदेह, इनमें बहुत धन खर्च होगा और कहना मुश्किल है कि पुलिस को जरूरी संसाधन उपलब्ध क्रराने में कंजूसी बरतने वाली राज्य सरकारें इस मामले में अपने खजानों का मुंह कितना खोलेंगी।
देश के छह सौ से अधिक जिलों के कई हजार पुलिस थानों में नियुक्त एक लाख से अधिक विवेचनाधिकारियों को वैज्ञानिक उपकरणों से लैस करना और फिर उन्हें इनके उपयोग के लिए प्रशिक्षित करना एक दुष्कर कार्य होगा। विवेचना में रत ये अधिकारी मुख्य रूप से निरीक्षक और उप निरीक्षक स्तर के होते हैं, पर कई राज्यों में काम के बढ़ते बोझ से इनका स्तर हेड कांस्टेबल तक घटा दिया गया है। इन सबका शैक्षणिक स्तर भिन्न होता है और उन्हें फोरेंसिक विज्ञान की बुनियादी तालीम भी नहीं मिलती। एक बार बल का सदस्य होने के बाद जरूर प्रशिक्षण के दौरान कुछ आधी-अधूरी-सी शिक्षा उन्हें इस क्षेत्र में मिलती है, पर यह पेशेवर जीवन में बहुत काम नहीं आती।
नेशनल फोरेंसिक सइंस यूनिवर्सिटी के कैंपस हर राज्य में खोलने की बात जरूर हुई है, पर मुझे नहीं लगता कि यह व्यावहारिक है। भारत जैसे विविधता वाले देश में जहां एक दर्जन से अधिक भाषाओं में विवेचक अपनी विवेचना करते हैं और अदालतों में भी इन्हीं भाषाओं में काम होता है, किसी एक विश्वविद्यालय के लिए यह संभव नहीं होगा कि वह अलग-अलग भाषाओं में पाठ्य सामग्री तैयार कराए और फिर उनमें अपने छात्रों को शिक्षित करे। जरूरी है कि हर राज्य अपने यहां फोरेंसिक विज्ञान के लिए कम से कम एक उच्च शिक्षा संस्थान कायम करे। यदि भारतीय भाषाओं में स्तरीय पाठ्य सामग्री उपलब्ध न हो, तो प्रारंभ में अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषाओं से उपयोगी किताबों का अनुवाद कराया जा सकता है। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में एक संस्थान से भी काम नहीं चलेगा। जरूरी है कि दूसरे विश्वविद्यालयों में भी स्नातक, स्नातकोत्तर या डॉक्टरेट स्तर के कार्यक्रम फोरेंसिक विज्ञान के अनुशासन में चलाए जाएं और इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में निर्मित होने वाले रोजगार के लिए योग्य उम्मीदवार उपलब्ध कराए जाएं। यह भी जरूरी है कि पाठ्यक्रमों के निर्माण के समय पुलिस की जरूरतों का भी ध्यान रखा जाए।
दिक्कत है कि ये संस्थान मुख्य रूप से नए छात्रों को शिक्षित करने का काम करेंगे, जो पुलिस बल में नए निर्मित पदों पर भर्ती होंगे, पर उन विवेचकों का क्या होगा, जो पुलिस में मौजूद हैं और अभी अगले कई दशकों तक अपनी आधी-अधूरी जानकारी के चलते खराब विवेचना करते रहेंगे। उनके लिए तो पुलिस प्रशिक्षण महाविद्यालयों या अकादमियों को ही कमर कसनी पडे़गी। देश में 300 से अधिक पुलिस प्रशिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रमों का अगर निरीक्षण किया जाए, तो हम पाएंगे कि उनके पाठ्यक्रमों में फोरेंसिक विज्ञान से संबंधित कुछ इनपुट हैं जरूर, पर न उनके प्रशिक्षुओं की मातृभाषा में स्तरीय पाठ्य सामग्री है, और न ही उन्हें पढ़ाने वाले योग्य अध्यापक। जरूरी है कि प्रशिक्षण सुविधाओं में फोरेंसिक विज्ञान के शिक्षण/प्रशिक्षण के लिए जरूरी गंभीरता हो और उन्हें आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराए जाएं, जिससे कानूनों में संशोधन होने के समय पुलिस के पास वैज्ञानिक उपकरणों का प्रयोग करने में समर्थ पर्याप्त विवेचक हों।
विवेचना में वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग करने से सदियों पुरानी उस धारणा से भी मुक्ति मिलेगी, जिसके अनुसार, सिर्फ थर्ड डिग्री ही किसी अपराध की गुत्थी सुलझाने में सबसे बेहतरीन जरिया हो सकती है। वैसे भी पिछले कुछ दशकों में अपराध और अपराधी की प्रोफाइल पूरी तरह बदल गई है। रात में गांवों में लूटपाट करते डकैत अब फिल्मों में ही अधिक दिखते हैं। वास्तविक जीवन में तो पढ़े-लिखे आर्थिक अपराधियों से हमारा पाला पड़ता है, जो सोशल मीडिया पर हमारी निजता का हनन करते हैं, बैंकों या दूसरे वित्तीय संस्थाओं में हमें अदृश्य रहकर लूटते हैं या ऑनलाइन प्रलोभन में फंसाते हैं। साइबर क्राइम आज का सबसे सक्रिय परिदृश्य है और इसके अपराधियों के लिए राष्ट्र-राज्यों की सीमाओं का भी कोई मतलब नहीं रह गया है। वे अपराध करते हैं और किसी अदृश्य में विलीन हो जाते हैं। अपराधी एक देश में बैठता है, दूसरे देश में मौजूद अपराधी गिरोह के जरिये तीसरे देश में अपराध कराता है। पंजाब में हाल में सिद्धू मूसेवाला नामक गायक की हत्या इस तरह के अपराध का उदाहरण है। ऐसे अपराधियों से थर्ड डिग्री वाली पुलिस नहीं निपट सकती, उनका मुकाबला तो वैज्ञानिक संसाधनों से सुसज्जित और प्रशिक्षित पुलिस ही कर सकेगी। केंद्रीय गृह मंत्रालय को खुद तो समझना ही होगा और राज्य सरकारों को भी समझाना होगा कि घोषित कार्यक्रम में पैसा खर्च होगा, पर पर्याप्त संसाधनों के अभाव में एक प्रभावी और पेशेवर पुलिस तंत्र भी तो विकसित नहीं किया जा सकता।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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