अजित बालकृष्णन
भारतीय शिक्षा व्यवस्था विभिन्न प्रकार की जटिलताओं से दो-चार है। शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले की प्रतिस्पर्धा, ट्यूशन का बढ़ता चलन और कृत्रिम मेधा के इस्तेमाल के बारे में बता रहे हैं अजित बालकृष्णन
अगर आप चाहते हैं कि वरिष्ठ शिक्षाविदों का समूह एक दूसरे पर चीखे-चिल्लाए तो इसके लिए उनके सामने एक सवाल रख देना काफी है: क्या आप चाहते हैं कि एक 10 वर्ष के बच्चे को साइकिल चलाना सिखाने के पहले उसे भौतिकी में गति के नियमों का पूरा ज्ञान हो? ऐसे सवाल प्रतीकात्मक होते हैं और अक्सर शैक्षणिक नीति निर्माण के केंद्र में ऐसी ही बहस होती हैं: ‘क्या आपको नहीं लगता कि हमें बच्चों को रचनात्मक कथा लेखन सिखाने के पहले मिल्टन और शेक्सपियर का प्रमुख काम पढ़ाना चाहिए?’ ‘क्या आपको नहीं लगता कि हमें बच्चों को पाइथन प्रोग्रामिंग सिखाने के पहले उन्हें शब्दों के अर्थ निकालना समझाना चाहिए?’
मुझे लगता है कि ऐसी बहसों का होना बहुत जरूरी है। भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था मोटे तौर पर ब्रिटिश युग में तैयार की गई और इसलिए इसमें बुनियादी रूप से ज्ञान को कौशल से श्रेष्ठ मानने पर ब्रिटिशों का जोर भी हमें विरासत में मिला। ऐसे में सर्वाधिक बुद्धिमान और योग्य बच्चे जिनमें परीक्षा में अधिक अंक पाने की काबिलियत होती है, वे इंजीनियरिंग कॉलेजों तथा ऐसे ही अन्य तकनीकी करियर में शामिल हो जाते हैं और जिन बच्चों को ऐसी परीक्षाओं में कम अंक मिलते हैं लेकिन वे ऐसे ही तकनीकी पाठ्यक्रमों में दाखिला लेना चाहते हैं वे पॉलिटेक्नीक या व्यावसायिक पाठ्यक्रमों आदि में दाखिला ले लेते हैं।
ऐेसे में आश्चर्य नहीं कि व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के माध्यम से पढ़ाई करने वाले बच्चों को नियमित विश्वविद्यालयों के स्नातक पाठ्यक्रमों में पढ़ाई करने वालों की तुलना में कमतर माना जाता है। मैंने अक्सर देखा है कि जब भी मैं अपने मित्रों को बताता हूं कि जर्मनी में चीजें एकदम अलग हैं तो उनके चेहरे पर असमंजस के भाव होते हैं। जर्मनी में 19 से 24 आयुवर्ग के 75 प्रतिशत लोग औपचारिक रूप से व्यावसायिक प्रशिक्षण लेते हैं जबकि भारत में यह आंकड़ा केवल पांच फीसदी है। भारत में एक और दिलचस्प कारक है जिसे मैं भी समझ नहीं पाया हूं: ट्यूशन क्लासेस की केंद्रीय भूमिका। फिर चाहे यह स्कूल के स्तर पर हो या किसी तरह के पाठ्यक्रम में प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए।
स्कूल के स्तर पर तथा कॉलेज के स्तर पर ट्यूशन पढ़ाने वाले शिक्षकों को मनोवांछित संस्थान में दाखिले की दृष्टि से तथा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने के लिहाज से बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। ऐसी निजी ट्यूशन कक्षाएं लगभग हर जगह होती हैं और शहरी और ग्रामीण स्कूलों तथा सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त तथा निजी स्कूलों में बहुत मामूली अंतर है। यहां तक कि प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चे भी ट्यूशन लेते हैं।
दक्षिण भारत के राज्यों में इसका प्रतिशत कम है जबकि पूर्वी राज्यों में दोतिहाई या उससे अधिक स्कूली बच्चे ट्यूशन पढ़ते हैं। अधिकांश मामलों में ये बच्चे रोज ट्यूशन पढ़ते हैं। शोधकर्ताओं ने यह पता लगाने के कई प्रयास किए कि आखिर ट्यूशन को लेकर इतना आकर्षण क्यों है तो पता चला कि आमतौर पर खराब शिक्षण को इसकी वजह माना जाता है लेकिन इसकी सबसे आम वजह यह है कि चूंकि बाकी बच्चे ट्यूशन पढ़ रहे हैं इसलिए लोग अपने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना चाहते हैं। भारत में यह आम मान्यता है कि परीक्षाओं में अच्छे अंक पाने के लिए निजी ट्यूशन जरूरी है।
क्या ट्यूशन में आपको कौशल या ज्ञान सिखाया जाता है? जहां तक मैं कह सकता हूं, ट्यूशन आपको पूछे जाने वाले संभावित सवालों के बारे में अनुमान लगाने में मदद करते हैं और आपको उनके उचित जवाब देने का प्रशिक्षण देते हैं। वास्तविक प्रश्न है: क्या इससे ज्ञान हासिल होता है?
ज्यादा दिक्कतदेह बात यह है कि पिछले दशक में स्टार्टअप और वेंचर कैपिटल निवेश को लेकर बढ़े उत्साह के बीच ऐसे निवेश का बड़ा हिस्सा तथाकथित एडटेक क्षेत्र में गया। इस क्षेत्र में जहां ज्यादातर कंपनियां ऑनलाइन शिक्षा को सरल ढंग से पेश करने की बात करती हैं, वहीं मूलरूप से ये परीक्षाओं की तैयारी कराने पर केंद्रित हैं। ऐसी स्टार्टअप को जो भारी भरकम मूल्यांकन हासिल हो रहा है उसे देखते हुए ऐसा लगता है मानो भारत में बच्चों के माता-पिता रुचि लेकर अपनी मेहनत की बचत को बच्चों के लिए ऐसी स्टार्टअप में लगा रहे हैं।
परंतु भारत में हम राजस्थान के कोटा जैसे संस्थानों पर नजर भी नहीं डालते जहां हर वक्त कम से कम एक लाख बच्चों को आईआईटी की प्रवेश परीक्षा निकालने की तैयारी कराई जाती है। करीब 10 लाख बच्चे इस परीक्षा में उतरते हैं और 10,000 सफल होते हैं। या देश भर में मौजूदा कोचिंग कक्षाएं जहां करीब पांच लाख बच्चे सिविल सेवा परीक्षाओं के 1,000 पदों की तैयारी करते हैं। या फिर नैशनल लॉ स्कूल की साझा प्रवेश परीक्षा जिसमें 75,000 से अधिक आवेदक 7,500 सीटों के लिए आवेदन करते हैं।
अच्छी हैसियत वाले लोग अपने बच्चों को इस तरह की प्रतिस्पर्धा से बचा लेते हैं और 25 लाख रुपये से अधिक शुल्क देकर उन्हें निजी विश्वविद्यालयों में दाखिल कराते हैं या फिर चार साल की पढ़ाई के लिए एक करोड़ रुपये से अधिक खर्च करके उन्हें विदेश भेज देते हैं।
हाल ही में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने निजी और मुनाफा कमाने वाले कारोबारों को केजी से लेकर कक्षा नौ तक ऑनलाइन और ऑफलाइन ट्यूशन पढ़ाने से रोक दिया। इन नए दिशानिर्देशों में साफ कहा गया है कि प्राथमिक से माध्यमिक स्तर तक ऑफलाइन या ऑनलाइन ट्यूशन देने वाली सभी कंपनियों को खुद को गैर लाभकारी संस्था के रूप में पुनर्गठित करना होगा। दिशानिर्देश ऐसे कारोबारों को सप्ताहांत, अवकाश के दिन तथा गर्मियों और सर्दियों की छुट्टी में भी कक्षाएं आयोजित करने से रोकते हैं। यानी सभी तरह की पढ़ाई सप्ताहांत पर या सीमित घंटों के लिए होगी।
ऐसी बहसों के साये में एक संभावित चौंकाने वाली बात शायद कृत्रिम मेधा आधारित अलगोरिद्म की तलाश हो सकती है। दुनिया भर में शोध पर हो रही फंडिंग का करीब 80 फीसदी हिस्सा इसी क्षेत्र में जा रहा है। शुरुआती नतीजों के तौर पर कॉल सेंटरों में सभी इंसानी परिचालकों के स्थान चैटबॉट लेने लगे हैं। आप कल्पना कर सकते हैं कि अगले दो से पांच वर्ष में भारत की विशालकाय कॉल सेंटर अर्थव्यवस्था की क्या स्थिति होगी? इसके अलावा इस दिशा में भी काम चल रहा है कि इस समय जो काम अधिवक्ताओं, न्यायाधीशों और चिकित्सकों द्वारा किया जा रहा है उसका 90 प्रतिशत हिस्सा चैटबॉट को सौंपा जा सके। ध्यान रहे भारत के मध्य वर्ग में बड़ा हिस्सा ये काम करता है।
भविष्य में इन सबके एक साथ होने से कैसी तस्वीर बनेगी? ट्यूशन कक्षाओं की बढ़ती अर्थव्यवस्था, देश के शीर्ष पेशेवर विश्वविद्यालयों में दाखिले के लिए भारी प्रतिस्पर्धा, देश के निजी विश्वविद्यालयों में अनापशनाप शुल्क और कृत्रिम मेधा की बढ़ती भूमिका के जरिये विशेषज्ञ पेशेवरों को बेदखल किए जाने जैसी घटनाएं देखने को मिलेंगी।
(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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