पिछले हफ्ते बेंगलुरु वालों के दिन दुखदायी जलभराव के बीच बीते। चारों ओर ट्रैफिक जाम की स्थिति थी, सुरक्षित स्थान पर जाने के लिए संपन्न लोग ट्रैक्टर, बुलडोजर और नाव का सहारा ले रहे थे, फाइव स्टार होटल बुकिंग से भरे पड़े थे, और गरीब हमेशा की तरह अपने हाल पर छोड़ दिए गए।
इस दौरान नेतागण एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप में जुटे रहे। मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने पिछली कांग्रेस सरकार पर इसका ठीकरा फोड़ा और कहा कि बाढ़ की स्थिति ‘उसके कुप्रबंधन’ के कारण पैदा हुई। जवाब में विपक्ष ने भाजपा को निशाने पर लिया और राज्य में ‘राष्ट्रपति शासन’ लगाने की मांग की। यह टीका-टिप्पणी बहुत जल्द निरर्थक जंग में बदल गई। कुछ कांग्रेसी नेताओं ने तेजस्वी सूर्या के खिलाफ ट्विटर पर मोर्चा खोल दिया और आरोप लगाया कि भाजपा सांसद के पास डोसा खाने और उसके बारे में बताने, राहुल गांधी की पदयात्रा की आलोचना करने, हर चीज के लिए पंडित नेहरू को दोष देने का पर्याप्त समय तो है, लेकिन बाढ़ में घिरे लोगों को राहत पहुंचाने का वक्त नहीं है।
कुछ दृश्य वाकई अरुचिकर थे। आप कितनी बार अमीरों (लखपति नहीं, बल्कि करोड़पति) या नामचीनों के लिए यह सुनते हैं कि उन्हें अपने पांव को सूखा रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है? इसीलिए मर्सिडीज और ऑडी की जगह ट्रैक्टर और नाव ने ले ली थी। होसुर-सरजापुर रोड लेआउट (एचएसआर लेआउट) तो सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ, जो अमीरों का आवासीय क्षेत्र और बेंगलुरु के इलेक्ट्रॉनिक सिटी का प्रवेश-द्वार माना जाता है। एप्सिलॉन व दिव्यश्री जैसे महंगे रिहायशी इलाके भी डूबे रहे। अनएकेडमी के सीईओ गौरव मंुजाल ने कहा कि उन्हें, उनके परिवार और पालतू कुत्ते को टैक्टर से बचाया गया। कई उद्यमियों और सीईओ को पानी में उतरते देखा गया।
इसकी वजह हमारे लिए कोई अबूझ नहीं है। जलवायु परिवर्तन, खराब शहरी नियोजन, खस्ता जल-निकासी व्यवस्था, भ्रष्ट प्रशासन, राजनेता व बिल्डर की जुगलबंदी, अनियोजित शहरी विस्तार, लालच आदि के कारण बेंगलुरु को इस तरह से डूबना-उतराना पड़ा। मानवीय संकट के अलावा, इसमें माल-असबाब का भी खूब नुकसान हुआ। करीब 25,000 कारें पानी में डूबीं, और यह अब तक साफ नहीं है कि उनमें से कितनी ठीक हो सकती हैं। गरीबों का सामान बहना तो और भी कष्टदायक रहा।
जलवायु परिवर्तन और उसका प्रभाव निस्संदेह इसका एक प्रमुख कारण है, हालांकि कई इससे अब भी इनकार करते हैं। आंकड़े बताते हैं कि बारिश की आवृत्ति, यानी बरसने की दर बढ़ी है। विशेषज्ञ मानते हैं कि जो परिघटनाएं पहले 200 साल में एक बार होती थीं, अब उनकी अवधि घटकर 100 साल हो गई है। और, जो घटना 100 साल में एक बार होती थी, अब 50 या 25 साल में होने लगी है। कुछ मौसमी परिघटनाएं तो अब हर साल घटने लगी हैं।
जलवायु परिवर्तन का असर विकसित और विकासशील सहित दुनिया भर के शहरों में देखा जा रहा है। विडंबना है कि अमीर राष्ट्रों ने प्रकृति का सबसे अधिक दोहन किया, जबकि इसका नुकसान विकासशील देशों को सबसे अधिक उठाना पड़ रहा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अमीर देशों ने नुकसान को कम करने का बुनियादी ढांचा तैयार कर लिया है। वहां सड़कें इस कदर बनाई जा चुकी हैं कि जलभराव नहीं होता। वहां राहत-कार्य तुरंत पहुंचाए जाते हैं। आपातकालीन सेवाएं यह सुनिश्चित करती हैं कि किसी की जान न जाए। और, बुजुर्गों एवं गरीबों का विशेष ख्याल रखा जाता है। विकासशील देश इन तमाम सुविधाओं के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं, जिस कारण ज्यादातर प्राकृतिक आपदाओं में लोग खासा प्रभावित होते हैं। संपन्न देशों में शहरी नियोजन को भी गंभीरता से लिया जाता है। वे निर्माण-कार्यों में इलाके के भौगोलिक चरित्र को बनाए रखने का हरसंभव प्रयास करते हैं। इससे पानी बेजा बहता नहीं है, बल्कि वह मिट्टी में अवशोषित हो जाता है।
बेंगलुरु कभी ‘बगीचों और झीलों का शहर’ माना जाता था। अंग्रेज यहां आराम व मनोरंजन करने आया करते थे। मगर अब इसका रूप-रंग बदल गया है। 1.3 करोड़ की आबादी वाले इस शहर में 189 झीलें हैं, जिनमें से अधिकांश का निर्माण 16वीं सदी में हुआ है। चेन्नई और मुंबई जैसे तटीय शहरों के उलट यह ऊंचाई पर है और इसीलिए कहीं अधिक संवेदनशील है। यहां की झीलों को राजकालुवे (नहरों) जोड़ते हैं, जो कभी यह सुनिश्चित करते थे कि बिना बाढ़ लाए पानी एक से दूसरे स्थान की ओर बह जाए। आंकड़े बताते हैं कि 890 किलोमीटर के राजकालुवे का अब बमुश्किल 50 फीसदी हिस्सा काम करता है, क्योंकि उसकी साफ-सफाई न किए जाने के कारण समय के साथ वे बेकार हो गए। यह शहर भारत का ‘सिलिकॉन वैली’ है और यहां नहरों में कई तरह के सेंसर भी लगाए गए हैं, जिनको उचित समय पर (जब नहर की क्षमता का 75 फीसदी पानी जमा हो जाए) पर चेतावनी भेजनी चाहिए। मगर लगता है कि इन सेंसरों ने भी काम नहीं किया।
इसमें भ्रष्ट व्यवस्था का अपना योगदान है। रिपोर्टें बताती हैं कि जमींदारों, कुछ पुराने सामंतों ने अपनी काफी जमीन बिल्डरों को बेच दी, जिनमें झील का डूब क्षेत्र, निचले इलाके आदि भी शामिल थे। इन जमीनों पर बनी चमकदार इमारतों ने जल निकासी और प्राकृतिक जल-मार्गों को अवरुद्ध कर दिया है। कुछ इलाकों में तो स्थानीय निकाय की अनुमति के बिना निर्माण-कार्य किए गए हैं। यहां कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि बेंगलुरु ही नहीं, पूरे भारत की यही सच्चाई है। देश भर में जहां-तहां ऐसा होता है, क्योंकि हमारी आबादी बड़ी है और भूमि पर दबाव है।
मगर भारतीय विज्ञान संस्थान (बेंगलुरु) में पारिस्थितिक विज्ञान विभाग के प्रमुख टीवी रामचंद्र ने कई अध्ययन करके बताए हैं कि बेंगलुरु में क्यों बार-बार बाढ़ आती है? उन्होंने मुख्यत: यहां की झीलों के कायाकल्प के साथ-साथ शहरी नियोजन में सुधार करने के उपाय सुझाए हैं। इससे न सिर्फ अत्यधिक बारिश में बाढ़ से बचा जा सकेगा, बल्कि गरमी में पानी की किल्लत भी नहीं होगी। साफ है, स्थानीय प्रशासकों को कहीं दूर देखने के बजाय अपने आसपास इस समस्या का समाधान खोजना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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